हर अस्पताल ने दरवाजे बंद कर लिए और वो बीवी-बच्चे को फूंक घर आ गया

Update: 2018-07-21 12:08 GMT

उसकी आँखों के सामने उसकी गर्भवती बीबी की नब्ज जब डूब रही थी, उसकी दुनिया उजड़ रही थी तो इलाहाबाद के चार बड़े निजी अस्पतालों ने उसको भर्ती करके चिकित्सा सेवा देने से ही इन्कार कर दिया। वो गिड़गिड़ाता रहा, मगर मानवता की सेवा को समर्पित होने का दावा करने वाले अस्पतालों ने उसकी बीवी को मौत के मुंह में धकेल दिया...

सुशील मानव की रिपोर्ट

आज 21 तारीख है। गाइनकोलॉजिस्ट मीना दयाल ने आज की ही तारीख दे रखी थी डिलीवरी की। सो एहतियातन वो पंद्रह रोज पहले ही अपनी बीबी को लेकर शहर आ गया था अपने किराये कमरे पर, जो अस्पताल से महज दो किलोमीटर की दूरी पर था। ताकि कोई असुविधा न हो।

जीवन में आने वाले नन्हे नये मेहमान को लेकर दोनों पति—पत्नी बहुत खुश और रोमांचित थे। नये मेहमान के लिए कितने नाम, कितनी बातें, कितनी साझा इच्छाएं सँजो रखी थी उन दोनों ने। जैसे जैसे डिलीवरी की तारीख नज़र आने लगी थी, उसकी पत्नी की तकलीफें बढ़ने लगी थीं।

वो अपनी ढाई साल की बिटिया को संभालता, खाना बनाता, झाड़ू—पोछा करता। बीबी और बिटिया दोनों को नहलाता, उनके कपड़े फींचता, ताकि कहीं से भी उसे कोई हल्का—सा भी झटका न लगे, तकलीफ़ न हो।

14 तारीख को अचानक उसकी गर्भवती पत्नी को उल्टी-दस्त शुरू हो गई। वो उसे लेकर सीधा अस्पताल भागा। डॉ मीना दयाल ने देखा, दवाई दी और बताया कि घबराने कि कोई ज़रूरत नहीं है वाटर इन्फेक्शन है। बिसलेरी का पानी इलेक्टॉल डालकर या फिर नीबू-चीनी-नमक का घोल बनाकर दो।

 

दिल नहीं माना तो वो फिर पूछ बैठा, ‘डॉ साहिबा और तो कोई परेशानी की बात नहीं है।’ डॉ मीना दयाल ने उसे फिर से बताया, 'नहीं सामान्य सा इन्फेक्शन है, घर ले जाकर पहले दवा खिलाओ।' गौरतलब है कि बच्चा गर्भ में आने के बाद से उसकी पत्नी को डॉ मीना दयाल ही देख रही थीं।

पत्नी को कमरे पर वापिस आकर उसने पहली खुराक़ दवा खिलाई। बीच—बीच में बिसलेरी के पानी में इलेक्ट्रॉल का घोल भी बनाकर देते रहा। फिर रात के खाने में वो क्या खायेगी, पूछकर वो खाना बनाने लगा। रात के खाने में उसकी गर्भवती पत्नी ने दो रोटी, थोड़ा सा भात, भाजी और दही खाई। मगर इस बीच उल्टी—दस्त बंद नहीं हुए तो उसने डॉक्टर के कहे मुताबिक उसे दवा की दूसरी खुराक़ भी खिलाकर बिस्तर पर लिटा दिया और खुद बिटिया को लेकर कूलर के सामने दूसरी खटिया पर लेट गया। दोनों की आँख लग गई।

इस बीच रात के साढ़े ग्यारह-पौने बारह बजे के करीब उसकी बीवी को फिर से दस्त हुआ तो वह पति को जगाए बिना खुद अकेले ही चली गई। शौंच से निकल बाहर आने लगी, चक्कर आया तो दीवार पकड़कर वहीं बैठ गई। पति को दो-तीन आखर आवाज भी दी, पर कूलर के शोर के आगे उसकी कमजोर आवाज़ उस तक पहुँच ही न सकी। अलबत्ता बगल के कमरे में पढ़ रही मकान मालकिन की बिटिया ने उसकी आवाज सुनकर आवाज दी, तो वो चौंककर उठा। देखा तो शौचालय के बाहर वो जमीन पर लेटी हुई थी। वो उसे उठाकर बिस्तर पर ले आया। शौच साफ करके उसे दूसरे कपड़े पहनाये।

उसने अपने पति को बताया कि उसे चक्कर आ गया तो वो वहीं बैठ गई थी। चक्कर आने के बाद उसे आवाज भी दी थी। पति ने उसे फिर से इल्क्टॉल का घोल पिलाया। इस बीच उसका शरीर बेकाबू होने लगा। हाथ-पैर ऐंठने लगे। लड़के ने अपने पिता को तत्काल फोन करके बुलाया। ऑटोरिक्शा करके वो उसे मेडिकल कॉलेज लेकर भागे। वहाँ काउंटर पर दो नर्सों ने प्राथमिक जाँच करने के बाद बताया कि इन्हें मेडिसिन विभाग में लेकर जाइए। वहाँ उन्हें बताया गया कि कोई डॉक्टर मौजूद नहीं है, तो बाप—बेटे गर्भवती को लेकर प्राइवेट अस्पताल की ओर भागे।

बाप—बेटे गर्भवती को लेकर सबसे पहले साकेत अस्पताल गए, वहाँ मरीज की हालत देखकर अस्पताल ने भर्ती करने से मना कर दिया। फिर वो उसे लेकर नाज़रत अस्पताल लेकर गए, वहाँ से भी मनाही हो गई। फिर वो मल्टीहॉस्पिटलिटी केंद्र पार्वती में लेकर गए, वहाँ भी मरीज को भर्ती करने इन्कार कर दिया गया।

वो उसे लेकर स्वरूपरानी अस्पताल गए तो पता चला वहाँ भी कोई डॉक्टर नहीं है। बाप—बेटे ने विनती की कि अब तक मीना दयाल मैडम देखती रही हैं मरीज को, उन्हें ही फोन करके बुलवा लीजिए, तो उन्हें बताया गया कि वो रात में किसी का भी फोन नहीं उठाती हैं। पूरी रात वो अस्पताल दर अस्पताल भटकते रहे। कोई भी गर्भवती को भर्ती करने को तैयार नहीं था।

सुबह हो रही थी। थक—हारकर पिता ने कहीं से सोर्स-सिफारिश का जुगाड़ किया तो रविवार की सुबह स्वरूपरानी में मरीज को इमरजेंसी वार्ड में एडमिट कर लिया गया। बल्ड प्रेशर लगातार निम्न स्तर पर बना रहा। डॉक्टरों को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करें। इसी बीच लड़की के मायके वालों ने सरकारी अस्पताल में सही चिकित्सा न मिलने की बात कहकर इलाहाबाद शहर से कुछ दूर झलवा के एक निजी अस्पताल में भर्ती करवाने का सुझाव और आश्वासन देकर शाम को स्वरूपरानी से निकलवाकर गर्भवती महिला को वहाँ भर्ती करवा दिया, मगर वह रात नहीं बीतने पाई। गर्भवती महिला साँसों का संघर्ष हार चुकी थी। नये मेहमान को गर्भ में लिए लिए ही वो चल बसी। वो भी महज 23 साल की उम्र में।

मात्र 25 साल की उम्र में उसने दारागंज के श्मशान घाट पर अपनी बीबी को गर्भ के बच्चे समेत चिता पर लिटाकर अपने ही हाथों आग के हवाले कर दिया। उसकी इस पीड़ा का रंचमात्र भी एहसास नहीं कर सकती ये निर्मम सत्ता और असंवेदशील लापरवाह व्यवस्था। 25 साल का युवा सिर पर दुखों का पहाड़, आँखों में टूटे हुए सपनों के ताजा लहू और मन में विछोह की अथाह पीड़ा लिए सिर मुडाये बैठा है।

ढाई साल की बिटिया माँ के जाने के बाद से ही बीमार है। बीबी की आखिरी निशानी उस बिटिया की जिम्मेदारी अब उसे ही ताज़िंदग़ी माँ-बाप दोनों बनकर निभानी है। उसे समझ में नहीं आ रहा है ये सब क्यों और कैसे हो गया। उसकी आँखों के सामने उसकी बीबी की नब्ज जब डूब रही थी तो इलाहाबाद के चार बड़े निजी अस्पतालों ने उसको भर्ती करके चिकित्सा सेवा देने से ही इन्कार कर दिया।

वो गिड़गिड़ाता रहा, मगर मानवता की सेवा को समर्पित होने का दावा करने वाले नाज़रत जैसे अस्पताल ने उसे भर्ती नहीं किया। जब उसकी गर्भवती बीवी अपनी सांसों का संघर्ष जारी रखे हुए थी तो अस्पतालों नें बिना संघर्ष, बिना कोशिश किए ही अपने हाथ क्यों खड़े कर दिए। अग़र सही समय पर समुचित इलाज मिल जाता तो वो आज उसकी बीबी और बच्चा इस दुनिया में हँसते—मुस्कुराते हुए उसके सामने होते।

सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की इतनी किल्लत क्यों है कि रात को किसी मरीज की हालत बिगड़ने पर इमरजेंसी सेवा के लिए कोई डॉक्टर तक उपलब्ध नहीं है। आखिर उसकी 23 साल की बीबी और अजन्मे बच्चे की मौत का जिम्मेदार कौन है? तमाम अस्पतालों, डॉक्टरों और सरकारी नीतियों ने मिलकर उसकी बीवी और अजन्मे बच्चे की हत्या कर दी?

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