उत्तराखंड के 134 गांव डुबाने की योजना बना चुकी सरकार

Update: 2017-07-24 10:09 GMT

न कोई जनसुनाई, न उससे पहले ग्रामीणों को परियोजना की विस्तृत जानकारी, न पुनर्वास की कोई बात, लेकिन 11 अगस्त को बांध पर सहमति के कोरम को पूरा करने का जुगाड़ अधिकारियों ने कर लिया है, पर ये नहीं चलेगा...

विमल भाई /मनोज मटवाल

भारत व नेपाल आपसी समझौते के तहत उत्तराखंड में पिथौरागढ़, चम्पावत व अल्मोड़ा जिलों में रामगंगा व शारदा नदी जिसे नेपाल में महाकाली नदी कहते है, पर 5600 मेगावाट का 315 मीटर उंचा मिटटी-पत्थर का बांध प्रस्तावित है। जिसमें 25 किलोमीटर नीचे रुपालीगाड में भी बांध प्रस्तावित है। इनमें भारत के कुल 134 गांव डूब में आ रहे है, जिसकी 11 अगस्त को जनसुनवाई है.

जनसुनवाई के लिए आवश्यक है कि गाँवों के स्तर पर जनसुनवाई की जानकारी उपलब्ध करायी जाए और पर्यावरण प्रभाव आंकलन रिपोर्ट व् प्रबंध योजना तथा सामाजिक आंकलन सम्बन्धी रिपोर्टों (EIA, EMP एंड SIAR) का सार एक महीने पूर्व दिया जाए . किन्तु ऐसा यहाँ नहीं हूआ है, जनता को जो कि बीसियों वर्ष से बाँध बनेगा, बाँध बनेगा का राग सुन रही है, विकास के छोटे से लेकर बड़े लाभों से वंचित रखी गयी है . उस पर अचानक से ही अंग्रेजी के बड़े बड़े पोथे लाद कर अपेक्षा की जा रही है कि वो उनको पढ़े समझे और उनपर अपनी राय व्यक्त करे .

पिथौरागढ़ में रखी गयी, EIA, EMP एंड SIAR को कौन से अधिकारी पढ़ सकेंगे और जनता को समझा सकेंगे ? बाँध प्रभावित क्षेत्र में शिक्षा और स्वास्थ सेवाओं की स्थिति निम्न स्तर पर है, उस क्षेत्र के लोगों से हम ये कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि ग्रेजुएशन स्तर की साल भर की सामग्री मामूली पढ़े—लिखे या अनपढ़ लोग, जिनके पास अख़बार भी नहीं पहुँचता वे EIA, EMP एंड SIAR पर अपनी राय देंगे .

किसी भी बड़ी बांध परियाजना के लिये पर्यावरण स्वीकृति और वन स्वीकृति लेनी आवश्यक होती है। वन स्वीकृति के लिये लोगों से नहीं पूछा जाता है बल्कि पर्यावरण स्वीकृति के लिये ही जनसुनवाई का आयोजन होता है, जिसमें प्रभावितों के सामने परियोजना से जुड़े सभी पक्ष इन कागजातों में परियोजना संबन्धी सम्पूर्ण जानकारी होती है जिसमें जन-जीवन, जंगल, धूल, वायु-प्रदूषण, जीव-जंतुओं, नदी घाटी आदि पर प्रभावों का अध्ययन शामिल होता है। पुनर्वास आदि सहित इन प्रभावों के प्रबंधन पर प्रस्तावित खर्च का ब्यौरा भी होता है।

सुनवाई एकमात्र वो खुला मंच होता है जहां बांध प्रभावित अपनी बात कह सकते हैं। तेज बारिश के मौसम में, बांध प्रभावित क्षेत्र से दूर, जहां आने के लिये हर व्यक्ति को सैकड़ों रुपये खर्च करने होंगे, फिर पिथौरागढ़ के विकास भवन के एक छोटे से कमरे में जनसुनवाई का आयोजन यह बताता है कि सरकार इतनी बड़ी योजना की जनसुनवाई को गंभीरता से नहीं ले रही है या उसकी मंशा बस बांध की जनसुनवाई की प्रक्रिया किसी तरह से पूरी करके बांध काम को आगे बढ़ाना है। जैसाकि आजतक होता आया है।

टिहरी बाँध में अभी तक पुनर्वास पूरा नहीं हो पाया, पर्यावरण शर्तें तो पूरी हूई ही नहीं, बाँध के नीतिगत लाभ प्रभावितों को नहीं मिले हैं . जून 2013 की आपदा में बड़े बांधों के कारण तबाही में वृद्धि हूई . यह भी सिद्ध हुआ है कि टिहरी बाँध बनने के बाद बादल फटने की घटनाये बडी हैं, जलवायु परिवर्तन के दौर में, पडौसी देश चीन से ख़राब होते संबंधों के दौर में, केंद्रीय ऊर्जा मंत्री श्री पीयूष गोयल जी के कथनानुसार देश में बिजली अधिक है, भारत से बिजली निर्यात की जाती है, संसार में विशेषकर अमेरिका में बडे बाँध तोड़े जा रहे हैं, बांधों के लिए पूँजी निवेश के लिए समस्याये आ रही हैं. 

ऐसी कौन सी त्वरित जरूरत आ गयी की काली और रामगंगा घाटी के लाखों लोगों का भविष्य अँधेरे में फैंका जा रहा है . इन लोगों को सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा व् विकास अन्य लाभों से आजादी के बाद से ही महरूम रखा गया है .

सूचना का अधिकार होते हूए भी डबल इंजन की सरकार क्यों लोगों को छल रही है . टिहरी बाँध के विस्थापित पुनर्वास की बाट जोह रहे हैं . श्रीनगर बाँध से प्रभावित पीन के साफ़ पानी जैसी समस्याओं को झूल रहे हैं आदि-इत्यादि . उत्तराखंड की सभी नदियाँ अपने बहने के अधिकार से ही वंचित हो रही हैं .


इस सब परिस्थितियों में यह आवश्यक है हमारी माँग है कि :-

1. 11अगस्त को पिथौरागढ़ में होने वाली जन सुनवाई, तुरंत स्थगित की जायें .
2. EIA, EMP एंड SIAR सरल हिंदी में प्रभावितों को समझायी जाए जिसके लिए पर्यावरण सामजिक क्षेत्र में काम करने वाली निष्पक्ष संस्था को जिम्मेदारी दी जाए .
3. अगली जन सुनवाई के स्थल बाँध प्रभावित क्षेत्र में ही रखे जाएँ .
4. जन सुनवाई का समय मानसून के बाद का ही होना चाहिए .

पर्यावरण प्रभाव आंकलन, जन सुनवाई का उद्देश्य परियोजनाओं में पारदर्शिता लाने, सम्पूर्ण जानकारी देकर प्रभावितों को विश्वास में लेने व् परियोजना में भविष्य में होने वाली रुकावटों को दूर करना आदि है, किन्तु यहाँ ऐस बिल्कुल न करके मात्र और मात्र कागजी प्रक्रिया पूरी की जा रही है . जो पर्यावरण और लोगों के अधिकारों पर खुला हमला है, भविष्य के लिए नए आंदोलन को जन्म देगा चूँकि लोगों से उनके जानने का हक़ छीन का उन पर अँधेरा भविष्य थोपा जा रहा है .

बिना सही जानकारी मिले कैसे लोग सही प्रतिक्रिया दे पायेंगे? आखिर सरकार की मंशा किसके विकास की है? इस प्रक्रिया में क्षेत्र के गरीब अनपढ़ किन्तु सच्चे मेहनती कृषक-मजदूर के सही विकास की चिंता तो नजर नही आ रही!

(विमल भाई /मनोज मटवाल पिछले दो दशकों से नदी और पर्यावरण रक्षा को लेकर सक्रिय हैं।)

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