जम्मू-कश्मीर पुलिस बिना कागज़ी कार्रवाई के चुपचाप गिरफ्तार कर रही है बच्चों को
कश्मीर के कड़े आतंक-विरोधी क़ानून पुलिस को नागरिकों छह महीनों तक बिना मुक़दमे के हिरासत में रखने की अनुमति देते हैं, उसके बाद पुलिस आरोपी पर फिर नया मामला लगा सकती है अगले और छह महीने हिरासत में रखने के लिए...
हफ़पोस्ट इंडिया ने ऐसे कम-से-कम चार मामलों की शिनाख्त की जिनमें से एक 15 वर्षीय स्कूली बच्चा था और जिसे बिना कोई आरोप लगाये 23 दिन गैरकानूनी तरीके से रखा गया हिरासत में...
सफ़वत ज़रगर की रिपोर्ट
श्रीनगर, जम्मू एवं कश्मीर। 27 अगस्त से 3 सितम्बर तक एक सप्ताह तक 17-वर्षीय वसीम अहमद ठाकुर सौरा में रोज़ सुबह निकटस्थ पुलिस थाने में जाता था जहाँ उसे 12 घंटे बैठना पड़ता था और उसी के बाद घर लौटने के लिए छोड़ा जाता था।
ठाकुर के पिता गुलाम अहमद ने 'हफ़पोस्ट इंडिया' को बताया कि "उन्होंने उसे रोज़ सुबह 8 बजे से रात 8 बजे तक पुलिस स्टेशन में उपस्थित रहने को कहा था। जब मेरा बेटा पहले दिन थाने गया तो उसने बताया कि वहां उस की तरह 5-10 लड़के और थे जिन्हें ऐसा ही कहा गया था।"
ठाकुर उन कई कश्मीरी बच्चों में से है जिन्हें राज्य के पुलिस बल ने गहन अनिश्चितता में धकेल रखा है, और संभवत: ऐसा कानून का उल्लंघन कर के किया गया है। कुछ बच्चों के अभिभावकों ने कहा कि गैरकानूनी हिरासत के दौरान पुलिसकर्मियों ने उन्हें मारा-पीटा भी।
'हफ़पोस्ट इंडिया' ने ऐसे कम-से-कम चार मामलों की शिनाख्त की, जिनमें एक 15-वर्षीय हाई स्कूल छात्र था जिसे बिना किसी आरोप के 23 दिन गैरकानूनी तरीके से हिरासत में रखा गया। इन बच्चों और उनके अभिभावकों ने बताया कि और भी बच्चों को गिरफ्तार किया गया है। पारिवारिक सदस्यों ने तस्वीर खींचने से मना किया और अधिकांश ने पुलिस के भय से ऑफ द रिकॉर्ड बात की।
5 अगस्त 2019 को भारत सरकार ने जम्मू एवं कश्मीर को संविधान के तहत मिली स्वायत्तता समाप्त कर दी, घाटी में हजारों सैनिक भेजे, सभी इन्टरनेट और मोबाइल फ़ोन सेवाएं काट दीं, एक तरह से सभी नागरिक अधिकार और स्वतंत्रताएं निलंबित कर दीं, और क्षेत्र के प्रमुख राजनीतिज्ञों समेत 4,000 से अधिक कश्मीरियों को जेल में डाल दिया।
गिरफ्तारियों और घेराबंदी ने विरोध प्रदर्शनों की लहर को जन्म दिया है और फिर उसी कारण और गिरफ्तारियां व विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं।
नागरिक अधिकार कार्यकर्ता कहते हैं कि हिरासत में लिए गए लोगों में बच्चे भी हैं, हालांकि भारतीय सुरक्षा बल इस दावे को झुठलाते हैं। अगस्त 14 को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सिस्ट-लेननिस्ट) की कविता कृष्णन ने सुरक्षा बलों के एक 11-वर्षीय बच्चे समेत बच्चों को हिरासत में लेने के कम-से-कम तीन मामलों के बारे में 'हफपोस्ट' को बताया।
20 सितम्बर को सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू एवं कश्मीर की जुवेनाइल जस्टिस कमिटी को कश्मीर में घेराबंदी के दौरान कश्मीरी बच्चों को गैरकानूनी तरीके से हिरासत में लिए जाने के आरोपों की जांच करने का आदेश दिया।
ठाकुर का मामला दिखाता है कि राज्य पुलिस ने बड़ी सावधानी से किसी क़िस्म की कागज़ी कार्रवाई नहीं की जो उन्हें जिम्मेदार ठहरा सके। औपचारिक रूप से बच्चों को गिरफ़्तार करने, जो राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामला बन सकता है, के बजाय राज्य पुलिस बच्चों को उठा लेती है, उन्हें बिना आरोप लगाए या उन पर बिना मामला दर्ज किये उन्हें वयस्क इकाइयों में हिरासत में रखती है और अपनी कार्रवाई के लिए बिना कोई सफाई दिए बाद में छोड़ देती है।
ठाकुर से मिलते जुलते मामलों में बच्चों को छोड़े जाने के बाद भी खुद को पुलिस स्टेशन में हाज़िरी देने को मजबूर किया जा रहा है तथा इसका और कोई स्पष्ट कारण भी नहीं दिखता सिवाय उन्हें प्रताड़ित और अपमानित करने के।
ठाकुर के पिता ग़ुलाम अहमद बताते हैं कि उनके बेटे को 24 अगस्त की रात पुलिस और केंद्रीय आरक्षी पुलिस बल के जवानों की सयुंक्त टीम ने छापेमारी में गिरफ्तार किया था।
उन्होंने बताया, "वे लोग दो बजे रात में आये और दरवाज़ा तोड़ डाला। मेरा बेटा केवल एक इनर और पजामा पहने हुए था। उसे बिस्तर से घसीटते हुए ले जाया गया। उसे चप्पल तक नहीं पहनने दी गयी।"
पुलिस ने कोई कारण नहीं बताया कि उसे क्यों ले जाया जा रहा है और यह भी नहीं बताया गया कि उसे तीन दिन बाद क्यों बिना कोई मामला दर्ज किये छोड़ दिया गया।
गुलाम अहमद ने कहा, "वह बच्चा है। उसे थोड़ी दाढ़ी आ गयी है इसलिए बड़ा दिखता है। वह उसे ऐसे ले गए जैसे वह कोई बड़ा अपराधी हो और उसे गिरफ्तारी के समय डंडों से पीटा।"
जम्मू एवं कश्मीर पुलिस के प्रवक्ता मनोज शीरी ने इस घटना पर प्रतिक्रिया देने से इंकार कर दिया। प्रवक्ता होने के बावजूद उन्होंने कहा, "मुझे मीडिया से बात करने का अधिकार नहीं है। किसी उच्चधिकारी से बात कीजिये। मैं कोई टिप्पणी नहीं कर सकता।"
23 दिनों की हिरासत
9 अगस्त को अंचर में एक 15-वर्षीय किशोर को पुलिस ने उठाया और 23 दिनों तक सफ़ा कदल पुलिस स्टेशन में रखा बिना कोई आधिकारिक सफाई दिए, बिना गिरफ्तारी के और बाद में रिहाई की किसी कागज़ी कार्रवाई के। 'हफ़पोस्ट इंडिया' ने उसके स्कूली दस्तावेज़ देखे, जो उसकी जन्म की तारीख 25 जनवरी 2004 बताते हैं।
बच्चे के अभिभावकों ने बताया कि वह अपने नाना-नानी से मिलने जा रहा था जब इलाके में एक सरकार विरोधी प्रदर्शन में फंस गया और गिरफ्तार हो गया। चूंकि कश्मीर में सभी संचार संपर्क टूटे हुए हैं, परिवार को पता नहीं था कि उनका बच्चा कहाँ है।
बच्चे की माँ ने बताया, "चूंकि वह अपनी नानी के यहाँ गया था, हमने सोचा वह वहीं होगा। वहां उन लोगों ने सोचा कि बवाल के कारण वह घर लौट गया होगा। हमें तीन दिन तक उसके बारे में पता ही नहीं चला।"
परिजनों को आखिर पड़ोसियों से, जिनके भी रिश्तेदार पकड़े गए थे, पता चला। उसकी माँ ने कहा, "उन्होंने हमारे बेटे को पुलिस स्टेशन में देखा था और हमें बताया कि उसे हिरासत में लिया गया है।"
परिजनों ने पुलिस के डर से नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताया कि किशोर को तीन अन्य वयस्कों के साथ गिरफ्तार किया गया था। अभिभावकों ने बताया कि वयस्कों पर तो आरोप लगाए गए पर उनके बच्चे का नाम किसी मामले में नहीं आया।
'हफपोस्ट' पहली बार किशोर के परिवार से 29 अगस्त को मिला। उस समय उसकी घबराई माँ ने कहा, "पुलिस कहती है कि वह मेरे बेटे को तभी छोड़ेंगे जब अन्य तीन की अदालत से ज़मानत हो जाए।"
9 सितम्बर को माँ ने पुष्टि की की उनके बेटे को 2 सितम्बर को छोड़ दिया गया था। उन्होंने 'हफ़पोस्ट' से कहा, "मैं तो बस इसी के लिए शुक्रगुजार हूँ कि वह घर लौट आया। अब मैं उसे एक सेकेंड के लिए भी घर से बाहर कदम नहीं रखने दूँगी।"
कोई जवाबदेही नहीं
'द इंडियन एक्सप्रेस' को 9 सितम्बर को दिए एक इंटरव्यू में कश्मीर के वरिष्ठतम पुलिस अधिकारी, महानिदेशक दिलबाग सिंह ने पुलिस की तरफ से स्थापित प्रक्रियाओं की अव्ह्लेना को एक मानवीय रंग देने की कोशिश की।
सिंह ने कहा, "कुछ मामलों में हिंसा या एफ़आईआर नहीं है। आक्रोश व्यक्त करने की बात है, यह संज्ञेय अपराध नहीं है। इसे दर्ज कर बच्चे का करियर क्यों ख़राब किया जाए? जब वे हद पार करते हैं, हिंसा होती है, पथराव या कोई घायल होता है तो रिपोर्ट होती है।"
इसी इंटरव्यू में सिंह ने दावा किया कि ऐसे मामलों में जिन्हें हिरासत में लिया जाता है, उन्हें उसी दिन छोड़ दिया जाता है। ऑफ रिकॉर्ड वरिष्ठ पुलिस अधिकारी बताते हैं कि हिरासत में लिए गए लोगों का रिकॉर्ड न रखने से पुलिस को जिम्मेदारी से बचने में मदद मिलती है।
पुलिस विभाग में एक स्रोत ने कहा, "पुलिस रिकॉर्ड में केवल उन्हीं गिरफ्तारियों को गिना जाता है जिनमें उचित कागज़ी कार्रवाई की गयी हो। केंद्रीकृत आंकड़े घाटी के सभी पुलिस थानों से हिरासतों और गिरफ्तारियों के बारे में प्राप्त जानकारी पर आधारित होते हैं। इस तरह आप कह सकते हैं कि यदि किसी हिरासत के बाद समुचित कागज़ी कार्रवाई नहीं की गयी और मामला दर्ज नहीं किया गया तो इसका मतलब है कि हिरासत हुई ही नहीं।"
कश्मीर के कड़े आतंक-विरोधी क़ानून पुलिस को नागरिकों छह महीनों तक बिना मुक़दमे के हिरासत में रखने की अनुमति देते हैं, उसके बाद पुलिस आरोपी पर फिर नया मामला लगा सकती है अगले और छह महीने हिरासत में रखने के लिए। इसका अर्थ यह भी है कि अधिकांश परिवारों को समाधान के लिए अदालतों में जाने के बजाय पुलिस से अनौपचारिक रूप से बात करनी होती है।
एक मानवाधिकार समूह के लिए काम करने वाले वकील ने बताया, "यदि एक परिवार अदालत जाता है तो इसका मतलब है कि पुलिस को हिरासत में लिए गए व्यक्ति पर औपचारिक रूप से मामला दर्ज करना होगा और उन्हें अदालत में यह मुक़दमे लड़ने होंगे। कोई परिवार यह नहीं चाहता।"
वकील ने बताया, "अधिकांश मामलों में परिवार स्थानीय पुलिस थाना प्रभारी से नाबालिगों समेत अपने रिश्तेदारों को छुड़ाने के लिए याचना करते हैं। ऐसी गैरकानूनी हिरासतों के लिए किसी की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।"
"उनका कसूर क्या था?"
यह पहली बार नहीं है कि भारतीय सुरक्षा बल बच्चों को गिरफ्तार कर रहे हैं। 2016 में जब कश्मीर भारत विरोधी प्रदर्शनों से खौल रहा था - शोपियां के तुर्कवांगम गाँव के अब्दुल ने बताया कि उनके बड़े बेटे, जो 15 वर्ष का था, को भारतीय सुरक्षा बलों ने उठाया था और हिरासत में उसे यातनाएं दी थीं।
दिहाड़ी मजदूर अब्दुल ने अपना पूरा नाम देने से मना करते हुए बताया, "उसे इस कदर टॉर्चर किया गया कि डॉक्टरों ने उसके दोनों हाथों पर प्लास्टर चढ़ाया। उन्हें उसका उपचार करने के लिए उसके हाथों में सुइयां लगानी पड़ीं। जब सेना हमारे बेटे को ले गयी तब मेरी पत्नी को ऐसा सदमा लगा कि वह फिर कभी ठीक नहीं हो पायी और आखिर उसकी मौत हो गयी।"
अब्दुल ने बताया कि अब तीन साल बाद सुरक्षा बलों ने उनके बड़े बेटे को, जो अब 18 साल का हो चुका है, दोबारा गिरफ्तार किया है और उसके साथ उनके 16-वर्षीय छोटे बेटे को भी गिरफ्तार किया गया है। उनकी गिरफ़्तारी के दिन, 22 अगस्त को भारतीय सेना संदिग्ध उग्रवादियों के एक गिरोह की तलाश में तुर्कवांगम में थी। अब्दुल ने कहा, "मेरे बेटों का उग्रवादियों से क्या सम्बन्ध? उनका कसूर क्या है? और कईयों की तरह वे भी उस समय सड़क पर थे (जब सेना आई)। सेना ने मेरे दोनों बेटों को ले जाने से पूर्व मेरी नज़रों के सामने टॉर्चर किया।"
भारतीय सरकार ने 5 अगस्त से इतने नागरिकों को गिरफ्तार किया है कि कश्मीर की जेलों में जगह नहीं बची। नतीजतन हिरासत में लिए गए कई लोगों को देश भर की अन्य जेलों में भेजा गया है, जिससे उन्हें ढूंढना उनके रिश्तेदारों के लिए असंभव सा हो गया है।
अब्दुल कहते हैं, "मैं गरीब आदमी हूँ। क्या करूंगा अगर उन्होंने उसे किसी मामले में आरोप लगाकर प्रदेश से बाहर की किसी जेल में भेज दिया? मैं तो तबाह हो जाऊँगा।"
एक झंडे और एक प्रार्थना पर
कश्मीर में गिरफ्तारियां इस कदर अंधाधुंध हैं कि नागरिकों को तुच्छ कारणों से भी गिरफ्तार किया गया है। 14 अगस्त को पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस पर मध्य कश्मीर के गांदरबल जिले के कंचन गाँव में एक पेड़ से लटका एक पाकिस्तानी झंडा मिला।
पांच दिन बाद गाँव में कश्मीर में घेराबंदी के खिलाफ प्रदर्शन हुआ, स्थानीय पुलिस और अर्धसैनिक केंद्रीय आरक्षी पुलिस बल ने एक 15-वर्षीय लड़के के साथ उसके चाचा (जो खुद पुलिसकर्मी हैं) और झंडा सीने के आरोप में एक स्थानीय दर्जी समेत पांच लोगों को गिरफ्तार किया।
हिरासत में लिए गए अंशकालीन दर्जी शफी ने बताया, "जब वह ज़ब्त झंडा मेरे सामने पुलिस थाने में ले आये, पता चला वह हाथ से सिया हुआ था, जिसका मतलब है कि किसी ने भी वह झंडा बनाया हो सकता है। यदि वह मशीन से सिया हुआ होता तो वे मुझ पर मामला दर्ज सकते थे।"
शफी 17 दिनों तक हिरासत में थे। अवयस्क लड़का जो गांदरबल के एक सरकारी स्कूल में 8वीं कक्षा का छात्र है, उसे 13 दिनों की हिरासत के बाद छोड़ा गया। उसके चाचा, जो कार्यरत पुलिसकर्मी हैं, को 4 दिन बाद छोड़ा गया।
बच्चे के रिश्तेदारों ने 'हफ़पोस्ट इंडिया' को बताया कि हिरासत के बाद बच्चा अलग-थलग महसूस कर रहा है और बाहर जाने से कतरा रहा है।
एक रिश्तेदार ने कहा, "हमने उसे कुछ दिनों के लिए उसके ननिहाल भेजने की भी कोशिश की पर वह वहां नहीं रहा और उसने हमसे घर वापस ले जाने को कहा। उसे लगता है कि उसके सीने में एक भारीपन है।"
(24 सितम्बर 2019 की 'हफ़पोस्ट इंडिया' के लिए सफ़वत ज़रगर की इस रिपोर्ट का अनुवाद कश्मीर खबर ने किया है।)
मूल रिपोर्ट: J&K Police Has Been Quietly Arresting Children Without A Paper Trail