मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ 8 जनवरी 2020 को किसानों मजदूरों की देशव्यापी हड़ताल

Update: 2020-01-07 16:07 GMT

मोदी शाह की जोड़ी ने सीएए, एनआरसी, एनपीआर का भय दिखाकर कंपनियों द्वारा पहचानहीन मजदूरों के शोषण का रास्ता और ज्यादा साफ कर दिया है। सच कहा जाए तो सीएए, एनआरसी, एनपीआर इन्ही पलायित लोगों पर लागू होती है...

किसान नेता शिवाजी राय की टिप्पणी

खिल भारतीय किसान संघर्ष समन्यवय समिति द्वारा 8 जनवरी 2020 को ग्रामीण भारत हड़ताल की घोषणा की गई है। ये हड़ताल मोदी सरकार की किसान विरोधी, देशी-विदेशी कॉरपोरेट पक्षधर नीतियों, जल जंगल, जमीन व खनिज संसाधनों की लूट, मेहनतकश जनता की जीविका के साधनों पर कॉरपोरेट के कब्जे के खिलाफ तथा न्यूनतम मजदूरी, राशन, मनरेगा, स्वास्थ्य एवं शिक्षा के अधिकार से वंचित रखने के खिलाफ व दो विधेयकों किसानों के कर्जमुक्ति कानून 2018 तथा किसानों कृषि उत्पाद के आश्वासित मूल्य का अधिकार कानून 2018 को पारित कराने के लिए की गई है।

साथ ही देश किसानों की भूमि जबरजस्ती छीनने और पूर्व में सरकारों द्वारा उत्तर प्रदेश में सरकारी चीनी मीलों को कौड़ियों के भाव बेचने के खिलाफ व बन्द मीलों को चलाने के लिए तथा पूर्व में स्थापित मिलों की जमीन, जो किसानों से पट्टे पर ली गयी थी पर अब गलत तरीके से उनके मालिकाना हक़ खत्म कर दिया गया है तथा बेईमान पूजीपतियों को नीलाम कर दिया गया है, उन जमीनों को किसानों को वापस कराने के लिए देशव्यापी हड़ताल की घोषणा की गई है।

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ज्ञातव्य हो कि उत्तर प्रदेश या देश के अन्य भागों में उपरोक्त मुद्दों पर किसान तथा इस कारोबार से जुड़े हुए मजदूर वर्षो से हड़ताल पर बैठे हुए हैं। कुशीनगर जनपद में मैत्रेय परियोजना के नाम पर मैत्री ट्रस्ट को 2001 में लगभग 800 एकड़ जमीन अधिग्रहण करके दी गयी थी जिसके खिलाफ लगातार आंदोलन जारी हैं। चीनी मिलो की बिक्री निजी हाथों में होती रही लेकिन किसानों के गन्ने का बकाया मूल्य भुगतान व मजदूरों की करोड़ो रूपये मजदूरी बाकी है जिसके लिए वहां के किसान व मिल मजदूर वर्षो से आंदोलनरत हैं।

न्यायालय के आदेश भी हैं फिर भी सुनवाई नहीं हो रही है। डायनामिक शुगर वर्क्स बैतालपुर देवरिया को बिक्री के समय साथ ही साथ चलाने की शर्त के बावजूद भी चालू नहीं किया गया जिसके लिए वर्षो से किसान व मजदूर धरना प्रदर्शन एवं तमाम माध्यमों से सरकार को विरोध जताते रहे हैं। शुगर मिल देवरिया जिसे कौड़ियों के भाव बेच दिया गया था, उस मिल का सारा सामान बेच लिया गया और उसे खंडहर छोड़ दिया गया। वही हालत भटनी शुगर मिल की हुई है जिसके लिए लगातार आंदोलन और विरोध प्रदर्शन हो रहे है।

क्रमशः हम आगे बढ़ते हैं तो शाहगंज, छठियांव, धुरियापार, सरदार नगर, खलीलाबाद, रामकोला समेत तमाम मिलों को बेच दिया गया या बंद कर दिया गया। उन तमाम जगहों पर गन्ना मूल्य बकाया और मजदूरों की मजदूरी भुगतान तथा मिलों को चलाये जाने को लेकर आंदोलन चल रहे हैं। बजाज ग्रुप की बस्ती शुगर मिल जो शाजिश के तहत विगत 5 वर्षों से बंद की गयी है वहां 5 वर्षों से किसान मजदूर धरनारत थे। विरोध को दबाने के लिए पुलिस ने लाठियां बरसाकर धरनारत लोगों को मिल परिसर से भगा दिया। अब किसानों मजदूरों का विरोध अन्यान्य किस्म से जारी है। यही हालत बिहार के पश्चिमी इलाकों के शुगर मिल की हुई है।

भी लोग जानते हैं कि जहां-जहां शुगर मिले थीं वहाँ गन्ने की पैदावार नकदी फसल के रूप में की जाती रही है। इसमें अधिकांश मिले आज़ादी के पहले ही से स्थापित रही हैं जिसके कारण गन्ने से जुड़े किसानों मजदूरों को इसमें कुशलता हासिल थी। यदि हम उत्तर प्रदेश को देखते है तो अड़तीस जिले गन्ना बहुल इलाका था जिसके कारण चीनी मिले और संबंधित उधयोग रोजगार के प्रमुख साधन थे।

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मिलों के बिकने और बंद होने के साथ ही बड़े पैमाने पर लोग बेरोजगार हो गए जिससे उनकी आय न्यूनतम स्तर पर पहुंच गयी और उनकी संताने अशिक्षित, बेहाल, बेरोजगार, बहुत ही कम उम्र में इलाक़ा छोड़ने को मजबूर हुई। पिछले 25-30 वर्षों से मामूली मजदूरी के लिए देश के कोने-कोने से लेकर अरब अमीरात तक पलायित होकर खाना बदोश की जिंदगी जीने को मजबूर हैं। उनकी अपनी पहचान खत्म हो चुकी है। उन्हें उन राज्यों कि अनुकम्पा पर जीना पड़ता है जिन राज्यों में मजदूरी करने के लिए विवश है। सबसे बड़ा संकट उन महिलाओं के लिए है जो बड़े शहरों में जाकर अकुशल मजदूर के रूप में कार्य करती हैं।

जिनकी कोई मांग नहीं है। वे घरो में बर्तन धोने व झाड़ू लगाने को विवश हैं। साथ ही वे बड़े पैमाने पर यौन हिंसा की शिकार हैं। न उनके लिए कोई सामाजिक सुरक्षा का प्रावधान है न ही कोई हिंसा से बचाव का उपाय है। जिस देश मे किसान को अन्नदाता कहा जाता है उनकी और उनकी संतानो की वर्तमान हालात में पहचान एक खानाबदोश मजदूर की है जिसे समय समय पर सरकारें वोट के लिए बहुरूपिये बन कर ठग लेती हैं और आज तो मोदी जी किसान को 500 रुपये महीने देने की घोषणा कर बड़े बड़े मंचों से इस भीख का बखान करते नही थकते हैं जबकि उद्योगपतियों के लाखो करोड़ के कर्जे माफ करने की चर्चा तक नहीं करते।

ज पूरब से पश्चिम पलायित लोगो की दशा ये है कि कभी मराठा स्वाभिमान के नाम पर ये बम्बई से भगाये जाते है तो कभी सूरत में एक बच्ची के साथ बलात्कार की घटना होने पर इन पलायित लोगो को ट्रेनों में घुस घुस कर मारा जाता है और गुजरात से भगाया जाता है। उसी तरह बारी-बारी पंजाब हरियाण दिल्ली से प्रताड़ित किया जाता रहा है। इनकी अपनी कोई पहचान नहीं है ये अपनी पहचान के लिए तरस जाते है और इनकी पहचान भूखे नंगे के रूप में है ये सारे हालात ऐसे ही नहीं है। इसके पीछे एक बड़ी साजिश है।

क तरफ कंपनियों द्वारा इनके श्रम की लूट है तो दूसरी तरफ गावों से आये ये लोग शहरी लोगों की विलासिता के लिए बहुत सस्ता पहचानहीन घर से बाहर तक चौबीसों घंटे काम करने के लिये फ्री का मजदूर मिल जाता है और इनके रहने की जगह शहर की गंदी बस्ती और बजबजाते नालों के किनारे होते हैं।

देखा जाए तो देश मे बहुत बड़ी संख्या में जो लाखो में हो सकती है किसानों ने आत्महत्याएं की हैं लेकिन सरकारें कोई न कोई बहाना बनाकर इसे खारिज करने की कोशिश करती हैं और इन आकड़ों को दबाने के लिए कोई न कोई बहाना बना कर रोक लगा दिया जाता है लेकिन इसका निदान नही ढूढा जाता। बल्कि सरकारी तंत्र और कॉरपोरेट मीडिया (जिसमे इलेक्ट्रॉनिक चैनल एवं प्रिंट मीडिया) इन मुद्दों को दबाने के लिए दिनों रात जाती- धर्म, मंदिर- मस्जिद, भारत-पाकिस्तान के मुद्दो को उछाल कर अपने मन मुताबिक तथा कंपनियों की हितैसी सरकार बनवाने के लिए इनके वोट की लूट का हर किस्म से प्रयोजन करती रहती हैं।

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ब तो मोदी शाह की जोड़ी ने सीएए, एनआरसी, एनपीआर का भय दिखाकर कंपनियों द्वारा इन पहचानहीन मजदूरों के शोषण का रास्ता और ज्यादा साफ कर दिया है। सच कहा जाए तो सीएए, एनआरसी, एनपीआर इन्ही पलायित लोगों पर लागू होती है। पचासों वर्षों से कभी पश्चिम से पूरब तो कभी पूरब से पश्चिम की तरफ अपने देश में पलायित पहचानहीन लोग इसके शिकार होंगे। असल मे इन पूजीपतियों द्वारा बनाई गई सरकार उन पूजीपतियों की नज़र से देख रही है जिसमें उपरोक्त प्रक्रिया द्वारा एन आर सी से बाहर किये गए लोगो से कंपनियों द्वारा मनचाहा काम कराया जा सकता है जिससे मुनाफाखोरी की भूखी कंपनियों को ज्यादा से ज्यादा मुनाफा मिल सके।

बीते समय में किसान अपनी मांगों को लेकर अलग अलग खेमो में विभिन्न तरीकों से विरोध जाहिर करता रहा है लेकिन उसकी हालत बद से बदतर होती चली गयी है इसलिए देश स्तर पर 250 से अधिक संगठनों का एका इस बात का संकेत है कि किसान एक होकर अपने हक़ और हक़ूक़ कि लड़ाई लड़ेगा और इसी के मद्दे नज़र 8 जनवरी को ग्रामीण भारत बंद एक ऐतिहासिक दिन होगा और यह दिन इसलिए भी ऐतिहासिक कि उसी दिन देश के मजदूरों ने भी हड़ताल की घोषणा कर दी है और यह किसानों के एका के साथ साथ मजदूर किसान एका का भी संदेश है अब सरकारें किसान मजदूर को अलग अलग बाट कर इनके श्रम और माल की पूजीपतियों द्वारा लूट नही करा सकतीं।

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