प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को आधुनिक भारत का निर्माता कहा गया, क्योंकि उन्होंने कई ऐसी संस्थाओं और नीतियों की शुरुआत की, जिसकी बदौलत देश आज दुनिया की पांच बड़ी आर्थिक शक्ति में गिना जा रहा है, लेकिन आज नरेंद्र मोदी सरकार इन्हें को हरसंभव नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर रही है...
पत्रकार एस. राजू की टिप्पणी
पंडित नेहरू ने वर्ष 1950 में योजना आयोग की स्थापना की थी, जिसे देश ही नहीं, बल्कि प्रदेशों के विकास में भी अहम भूमिका निभाई। प्रधानमंत्री के रूप में पंडित नेहरू की अध्यक्षता वाले इस आयोग को देश में उपलब्ध संसाधनों के आधार पर विकास के लिए एक प्रभावी योजना बनाने का काम सौंपा गया। जिसे अंतिम मंजूरी राष्ट्रीय विकास परिषद देती थी, परिषद के अध्यक्ष भी प्रधानमंत्री ही थे। राज्यों के मुख्यमंत्री इसमें पदेन सदस्य थे। नेहरू तत्कालीन सोवियत संघ की चार वर्षीय योजना और इसकी सफलता से प्रभावित थे, इसलिए उन्होंने इसी तर्ज पर एक अप्रैल 1951 से देश में पंचवर्षीय योजना की शुरूआत की। यह पंचवर्षीय योजना तैयार करने का काम योजना आयोग को सौंपा गया।
नेहरू की सोच का साकार करने के लिए पहली पंचवर्षीय योजना में कृषि क्षेत्र को प्राथमिकता दी गई थी। उस समय नेहरू ने कहा था कि खेत और किसान लंबे समय से किसी योजना का इंतजार नहीं कर सकते, इसलिए सबसे पहले उनके लिए काम करना होगा। यही वजह रही कि पहली पंचवर्षीय योजना में विकास का लक्ष्य 2.1 फीसदी रखा गया था, लेकिन इस योजना के दौरान विकास दर 3.6 फीसदी हासिल की गई। दूसरी पंचवर्षीय (1956-61) योजना में औद्योगिक क्षेत्रों को वरीयता दी गई। इन पांच वर्षों में दुर्गापुर (पश्चिम बंगाल), भिलाई (छत्तीसगढ़) और राउरकेला (ओडिशा) में इस्पात संयंत्र की स्थापना की गई।
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नेहरू ने स्टील और पावर को आधुनिक भारत का मंदिर कहा था और बिजली का लक्ष्य हासिल करने के लिए भाखड़ा नांगल बांध के अलावा हीराकुंड और नागार्जुन सागर बांध का निर्माण कराया। जो बिजली के साथ-साथ खेतों की सिंचाई के भी काम आए। साथ ही, देश के विकास के लिए बढ़ती तेल की जरूरतों को समझते हुए उन्होंने 1956 में ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉरपोरेशन लिमिटेड (ओएनजीसी) की शुरुआत की। इसके बाद दूसरी तेल कंपनियों की शुरुआत हुई।
नेहरू समझते थे कि देश तब ही तरक्की कर सकता है, जब प्राथिमक शिक्षा के साथ-साथ उच्च व विश्वस्तरीय तकनीकी शिक्षा की दिशा में संस्थाओं की शुरुआत की जाएगी। उनके प्रयासों से 1950 में आईआईटी, 1961 में आईआईएम और 1956 में एम्स की शुरुआत की गयी। नेहरु ने 1961 में ही नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ डिजाईन की स्थापना की थी।
वह जानते थे कि केवल पंचवर्षीय योजनाएं बनाने से कुछ नहीं होगा, इन योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए धन की जरूरत पड़ेगी। इस काम में बड़े उद्योगपतियों का तो सहयोग लिया ही गया, लेकिन देश के विकास में आम लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए नेहरू ने राष्ट्रीय बचत आंदोलन की शुरुआत की और 1948 में राष्ट्रीय बचत संगठन (एनएसओ) का उद्घाटन् किया। उनकी सोच का अंदाजा उनके भाषण की इन पंक्तियों से लगाया जा सकता है, जिसमें
उन्होंने कहा था, “मैं राष्ट्रीय बचत के आंदोलन को बहुत महत्व देता हूं। यह न केवल इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि हम चाहते हैं कि लोग बचत करें और इन बचत को हमारी विकास योजनाओं को लागू करने में सहायक बनें, बल्कि इसलिए भी कि यह योजनाएं बड़ी संख्या में लोगों तक पहुंचे। प्रत्येक व्यक्ति जो इस अभियान में भाग लेता है और बचत में शामिल होता है, न केवल हमारी दूसरी पंचवर्षीय योजना को पूरा करने में मदद करता है, बल्कि एक अर्थ में इसमें हिस्सेदार भी बन जाता है।"
लेकिन 2014 में बनी नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पूरे कार्यकाल के दौरान नेहरू की इन संस्थाओं को नुकसान पहुंचाया, जिसका क्रम अब तक जारी रहा। मोदी ने शुरुआत योजना आयोग से की और इसे भंग करके नीति आयोग का गठन किया। योजना आयोग के पास जहां मंत्रालयों और राज्यों को धन आवंटन का अधिकार था, वहीं मोदी सरकार ने नीति आयोग को केवल एक सलाह देने वाली एजेंसी बनाकर रख दिया।
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लेकिन नेहरू की संस्थाओं को कमजोर करने का काम भी नीति आयोग को ही सौंप दिया गया। नीति आयोग ने 2 अगस्त 2016 को एक रिपोर्ट जारी की और 27 अक्टूबर 2016 को कैबिनेट कमेटी ने नीति आयोग के प्रस्ताव को सैद्धांतिक रूप से मंजूरी दे दी। जिसमें कई केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के विनिवेश की सलाह दी। इनमें से स्टील सेक्टर प्रमुख है। सरकार स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया के तीन प्लांट, जो मुनाफे में चल रहे हैं के विनिवेश की प्रक्रिया शुरू कर चुकी है।
इनमें पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर स्थित एलॉय स्टील्स प्लांट के अलावा तमिलनाडु स्थित सलेम स्टील प्लांट और कर्नाटक के भद्रावती स्थित विश्वेवराया ऑयरन एंड स्टील प्लांट शामिल हैं। ये तीनों स्पेशल प्लांट हैं और इनमें सरकार की हिस्सेदारी खत्म कर निजी हाथों में सौंपा जा रहा है।
इसी तरह मोदी सरकार की नजर पेट्रोलियम सेक्टर पर है। नेहरू काल में शुरू हुई ओएनजीसी तो जैसे मोदी सरकार की आंखों में खटक रही है। ओएनजीसी कुछ समय पहले तक लगातार मुनाफा कमा रही लोन मुक्त कंपनी थी और नगदी के मामले में भी कंपनी का उदाहरण दिया जाता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। पिछले कुछ सालों से ऑयल एंड नेचुरल गैस कार्पोरेशन (ओएनजीसी) को दूसरी कंपनियों में निवेश के लिए दबाव डाला जा रहा है। इसके लिए ओएनजीसी को लोन तक लेना पड़ा। इसी दबाव के चलते ओएनजीसी ने गुजरात स्टेट पेट्रोलियम कार्पोरेशन का अधिग्रहण किया और जनवरी 2018 में हिन्दुस्तान पेट्रोलियम कार्पोरेशन लिमिटेड (एचपीसीएल) में 51.11% इक्विटी हिस्सेदारी खरीदी। इससे ओएनजीसी की हालत बिगड़ती चली गई।
दरअसल, मोदी सरकार की तैयारी पूरे पेट्रोलियम सेक्टर को निजी हाथों में सौंपने की है। इसकी शुरुआत भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (बीपीसीएल) से की जा रही है। इसमें सरकार के पास 53.29% फीसदी हिस्सा है। आरोप है कि सरकार इसे अदानी समूह को बेचने जा रही है। दिलचस्प बात यह है कि सरकार ने 1976 में एक निजी कंपनी बर्मा शेल का अधिग्रहण कर बीपीसीएल का गठन किया था और उस समय यह प्रावधान किया गया था कि इसमें सरकार की हिस्सेदारी बेचने का निर्णय संसद लेगी, लेकिन 2016 में मोदी सरकार ने 187 कानूनों को यह कहते हुए रद्द कर दिया था, जिसमें कहा गया था कि ये कानून निरर्थक हो चुके हैं, इनमें ही यह राष्ट्रीयकरण कानून भी था, जिसके चलते अब सरकार को बीपीसीएल जैसी कंपनियों को बेचने के लिए संसद की मंजूरी लेनी जरूरी नहीं है।
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अब बात करते हैं, उच्च एवं तकनीकी शिक्षा की। नेहरू की सोच की ही बदौलत देश में आईआईटी और आईआईएम ने दुनिया भर में नाम कमाया है, लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार की नजर इन संस्थानों पर भी टिकी है। इन संस्थाओं को मिलने वाली बजटीय सपोर्ट घटा दिया गया है। आईआईटी के लिए 2018-19 में 236 करोड़ रुपये का बजटीय सपोर्ट का प्रावधान किया गया था, लेकिन 2019-20 में इसे घटाकर 208.16 करोड़ रुपए कर दिया गया।
आईआईएम के लिए 2018-19 में 828 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था और 2019-20 में इसे 445.53 करोड़ रुपये कर दिया गया। दरअसल, सरकार की मंशा आईआईटी और आईआईएम, जो अब तक सस्ती और विश्वस्तरीय तकनीकी शिक्षा प्रदान कर रही थी को पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल के तहत चलाना चाहती है। यानी कि, प्राइवेट हाथों में सौंपना चाहती है, जिससे गरीब बच्चे तकनीकी शिक्षा से दूर हो सकते हैं।
नेहरू की ही सोच थी कि लोगों ने अपने खून पसीने की कमाई देश के स्मॉल सेविंग्स स्कीम में जमा कराना शुरू किया, जिससे उन्हें एक तय समय पर ब्याज के साथ सुरक्षित पैसा वापस मिल जाए और इस पैसे का इस्तेमाल देश के विकास में हुआ, लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार के लिए यह योजनाएं भी आंख की किरकिरी साबित हो रही हैं। नरेंद्र मोदी सरकार लगभग सभी स्मॉल सेविंग्स स्कीम्स की ब्याज दर घटाकर लोगों को मजबूर कर रही है कि वे अनसिक्योर्ड (असुरक्षित) निवेश की ओर बढ़ें। इनमें शेयर बाजार प्रमुख है।
साल 2014 तक स्मॉल सेविंग्स पर 8.2 से 8.3 फीसदी ब्याज दिया जाता था, जबकि नरेंद्र मोदी कार्यकाल में लोगों को 6.6 से 6.9 फीसदी ब्याज दिया जा रहा है। वहीं, इन स्मॉल सेविंग्स स्कीम में जमा पैसे को सरकार ऐसे संस्थानों में निवेश कर रही है, जहां से पैसा वापस लौटना लगभग नामुमकिन है। पिछले दो-तीन साल के दौरान नेशनल स्मॉल सेविंग्स फंड का पैसा भारतीय खाद्य निगम की फूड सब्सिडी देने पर खर्च किया जा रहा है।
इस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार यह दावा कर रहे हैं कि पंडित नेहरू की नीतियां देश की समस्या की जड़ थी और इसे साबित करने के लिए मोदी जिस तरह नेहरू की नीतियों और योजनाओं को नुकसान पहुंचा रहे हैं, उसी का नतीजा है कि देश अभूतपूर्व मंदी के दौर से गुजर रहा है।