प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के पास नहीं है वायु प्रदूषण के निवारण की कोई योजना
धूल से होने वाले इस प्रदूषण के लिए केन्द्रीय बोर्ड के पास कोई योजना नहीं है, जबकि यह प्रदूषण केवल सड़कों पर ही नहीं बल्कि आसपास के घरों के अन्दर भी फ़ैल जाता है...
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। देश के प्रदूषण नियंत्रण से सम्बंधित सबसे बड़े संस्थान केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास प्रदूषण निवारण की कोई योजना ही नहीं है और इसके नियंत्रण के जितने भी कदम यह बोर्ड उठाता है, सारे के सारे विभिन्न न्यायालयों के निर्देशों के कारण हैं। इसका सीधा—सा मतलब है कि इस संस्थान के पास अपनी कोई योजना ही नहीं है और इसीलिए प्रदूषण को कम करने का सवाल ही नहीं उठता। यह देश का अकेला ऐसा संस्थान है, जिसकी कोई भी जिम्मेदारी नहीं है।
दूसरी तरफ प्रदूषण के स्त्रोतों की पड़ताल करते हैं। हरेक जगह सड़क पर झाडू लगते देखा जा सकता है। झाडू से हरेक कदम पर धुल का गुबार उठता है। पूरी दिल्ली में यह धूल उड़ती है और चारों तरफ फैलती है। सुबह स्कूल जाने वाले बच्चे और ऑफिस जाने वाले लोग इस धूल को रोज बर्दाश्त करते हैं। धूल से होने वाले इस प्रदूषण के लिए केन्द्रीय बोर्ड के पास कोई योजना नहीं है, जबकि यह प्रदूषण केवल सड़कों पर ही नहीं बल्कि आसपास के घरों के अन्दर भी फ़ैल जाता है।
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दिल्ली में रोजगार करने वाले और इसकी तलाश करने वाले बड़ी संख्या में सड़कों के किनारे रहते हैं। सर्दियों में ठंडक से बचने के लिए ऐसे लोग अपने आसपास का सभी कूड़ा इकठ्ठा करके उसमें आग लगा कर सेंकते हैं। यह गतिविधि पूरी दिल्ली में की जाती है और इससे प्रदूषण भी चारों तरफ फैलता है। केन्द्रीय बोर्ड ने तो कभी इस प्रदूषण का आकलन भी नहीं किया है। जाहिर है प्रदूषण के स्त्रोतों में यह गतिविधि शामिल भी नहीं है। प्रभावों के अनुसार यह प्रदूषण बहुत खतरनाक कोटा है क्योंकि इसमें प्लास्टिक, रबर और दूसरे ऐसे पदार्थों को भी व्यापक तरीके से जलाया जाता है।
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दिल्ली का बुराड़ी क्षेत्र पिछले कुछ वर्षों के दौरान अत्यधिक प्रदूषित क्षेत्र बन गया है। केन्द्रीय बोर्ड यह तो बताता है कि यह क्षेत्र अत्यधिक प्रदूषित है, पर कारण कभी नहीं बताता। पहले यह पूरा क्षेत्र दलदली भूमि से ढका था।
दलदल के ऊपर जल में उगने वाले वनस्पतियों से यह क्षेत्र पूरा ढका था, पर धीरे-धीरे इस पूरे क्षेत्र में अनेक बड़ी निर्माण परियोजनाएं भी स्वीकृत की जाने लगीं। पर्यावरणविदों के भारी विरोध के बाद भी यहाँ निर्माण परियोजनाएं, दिल्ली मेट्रो के डिपो और मलजल उपचार संयंत्र स्थापित कर दिए गए। सारी दलदली भूमि एक सपाट और सूखी जमीन में तब्दील कर दी गयी, जिस पर घास भी नहीं उगती. जिस दलदली भूमि पर दूर से आती धूल भी अवशोषित हो जाती थी, अब वही क्षेत्र दिल्ली में धूल का सबसे बड़ा स्त्रोत बन गया है।
पूरी दिल्ली में निर्माण और इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं फैलीं हैं। इनमें लाखों श्रमिक काम करते हैं और इनके परिवार किसी एलपीजी गैस पर खाना नहीं बनाते, बल्कि लकडियाँ इकठ्ठी कर उससे चूल्हा जलाकर फिर खाना बनाते हैं। शाम के समय दिल्ली के किसी भी क्षेत्र से आप गुजरेंगे तो सर पर लकड़ी का गठ्ठर लिए महिलायें और पुरुष जरूर दिखेंगे। ये श्रमिक किसी बंद जगह में नहीं रहते बल्कि खुली जगह में रहते हैं, इसलिए शाम को चूल्हा जलने के समय चारों तरफ धुंआ फ़ैल जाता है।
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दिल्ली में यमुना नदी के डूब क्षेत्र में व्यापक पैमाने पर खेती की जाती है। इस क्षेत्र में भी कृषि अपशिष्ट को जलाने और लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनाने की परंपरा है। सूर्यास्त के समय यमुना पर बने किसी भी पुल से यमुना के आसपास उठता धुंए का गुबार देखा जा सकता है।
इसी तरह के बहुत सारे स्त्रोत हैं, जो दिल्ली में वायु प्रदूषण के लिए जिम्मेदार है, पर इनकी जानकारी केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास नहीं है। उद्योगों से उत्पन्न प्रदूषण तो सीधे इसके अंतर्गत आता है, फिर भी दिल्ली के बीचों-बीच स्थापित अनेक औद्योगिक क्षेत्रों से उत्पन्न तेल और ग्रीज़ युक्त कचरा एक जगह इकठ्ठा कर किसी सार्वजनिक स्थान पर जला दिया जाता है। ऐसा अधिकार रेलवे लाइनों के किनारे किया जाता है।