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जनज्वार विशेष

दिल्ली में एयर पॉल्यूशन पर नियंत्रण प्रदूषण बोर्डों नहीं 'हवा' की जिम्मेदारी!

Prema Negi
19 Nov 2019 7:43 AM GMT
दिल्ली में एयर पॉल्यूशन पर नियंत्रण प्रदूषण बोर्डों नहीं हवा की जिम्मेदारी!
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वायु प्रदूषण से भले ही लोग मरते और बीमार पड़ते हों, पर इसके नियंत्रण की जिम्मेदारी किसी की नहीं है। यदि जिम्मेदारी ही नहीं है, तो फिर केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और हरेक राज्य में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड जैसे संस्थान खड़े ही क्यों किया गए हैं...

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

दिल्ली दुनिया में अकेला ऐसा शहर है जहां वायु प्रदूषण के लिए हवा की गति को जिम्मेदार ठहराया जाता है। इसके लिए कोई संस्थान या फिर सरकार कभी जिम्मेदार नहीं होती। अभी हाल में ही ओड-इवन की समयावधि ख़त्म होने के बाद जब मुख्यमंत्री केजरीवाल वक्तव्य दे रहे थे तब उन्होंने कहा था, अगले कुछ दिनों में हवा के कुछ तेज चलने का अनुमान है तब प्रदूषण कम रहेगा।

केंद्र सरकार का मौसम विभाग भी समय-समय पर ऐसा ही बताता है कि हवा धीमे है इसलिए प्रदूषण का स्तर अधिक है। इस तरह के वक्तव्य केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की तरफ से आते हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि दिल्ली में वायु प्रदूषण के नियंत्रण की जिम्मेदारी केवल हवा की है। संभव है आने वाले वर्षों में किसी न्यायालय में हवा के विरुद्ध किसी पीआईएल की सुनवाई चल रही हो।

कुछ समय पहले सर्वोच्च न्यायालय में दिल्ली के वायु प्रदूषण से सम्बंधित मुकदमे की सुनवाई के दौरान किसी न्यायाधीश ने कहा था, अब इस मामले में जिम्मेदारी तय करने का समय आ गया है। इसका सीधा सा मतलब है कि वायु प्रदूषण से भले ही लोग मरते और बीमार पड़ते हों, पर इसके नियंत्रण की जिम्मेदारी किसी की नहीं है।

दि जिम्मेदारी ही नहीं है, तो फिर केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और हरेक राज्य में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड जैसे संस्थान खड़े ही क्यों किया गए हैं। बिना किसी जिम्मेदारी वाले ऐसे संस्थान क्या जनता की खून—पसीने मेहनत की कमाई पर डाका नहीं है? जाहिर है जब तक किसी संस्थान की जिम्मेदारी इस मामले में तय नहीं की जाती, दिल्ली वाले साल-दर-साल ऐसे ही प्रदूषण से जूझते रहेंगे।

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र्ष 1981 में वायु अधिनियम के कुछ वर्ष बाद ही दिल्ली को एयर पोल्यूशन कण्ट्रोल एरिया घोषित कर दिया गया था, पर कोई योजना नहीं बनाई गई। इसके बाद देश भर में कुछ क्षेत्र या शहर को गंभीर तौर पर प्रदूषित क्षेत्र घोषित किया गया। इसमें भी दिल्ली का नजफगढ़ ड्रेन बेसिन क्षेत्र सम्मिलित था। नजफगढ़ ड्रेन बेसिन क्षेत्र दिल्ली के लगभग 60 प्रतिशत क्षेत्र में फैला है, जिसमें लगभग पूरा का पूरा दक्षिण दिल्ली और पश्चिम दिल्ली का क्षेत्र आता है।

बसे बड़ा रहस्य तो यही है कि ऐसे क्षेत्र का निर्धारण करने के समय किसे दिल्ली का नजफगढ़ ड्रेन बेसिन क्षेत्र के बाद का हिस्सा गंभीर तौर पर प्रदूषित नहीं लगा होगा। यदि पूरी दिल्ली बेहद प्रदूषित होने के बाद भी इस सूची में नहीं थी, तब भी नजफगढ़ ड्रेन बेसिन क्षेत्र कौन सा प्रदूषण से मुक्त हो गया?

संवेदनहीनता का सिलसिला यहीं नहीं थमा, कुछ वर्ष पहले केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने औद्योगिक प्रदूषण के आधार पर फिर से गंभीर तौर पर प्रदूषित क्षेत्रों और शहरों की सूची जारी की, इसमें पहले की सूची के सभी क्षेत्र मौजूद थे। इसका सीधा सा मतलब यह है कि केन्द्रीय बोर्ड केवल यह आकलन कर पाता है कि कहाँ प्रदूषण अधिक है, पर कहीं के प्रदूषण को नियंत्रित कर पाना इसके बस में नहीं है, कोई प्रभावी योजना भी इस सन्दर्भ में नहीं है।

समें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि केन्द्रीय बोर्ड और पर्यावरण मंत्रालय निहायत ही बेशर्मी से अपना काम करते हैं, और देश में प्रदूषण लगातार बढ़ता जा रहा है। इन संस्थानों के रहते देश में प्रदूषण कम करने की बात भी बेमानी है।

केन्द्रीय बोर्ड और पर्यावरण मंत्रालय की संवेदनहीनता का कोई अंत ही नहीं है और दुखद तथ्य यह है कि देश के अधिकतर न्यायालय भी इन्ही संस्थानों का साथ देते हैं। जब औद्योगिक प्रदूषण के आधार पर फिर से गंभीर तौर पर प्रदूषित क्षेत्रों की सूची प्रकाशित की गई तब पर्यावरण मंत्रालय ने एक निर्देश भी जारी किया। इसके अनुसार इन क्षेत्रों में किसी भी परियोजना को पर्यावरण स्वीकृति नहीं दी जा सकती थी। दिल्ली को छोड़कर देश के सभी प्रदूषित क्षेत्रों में इस निर्देश का पालन किया गया।

दिल्ली के पड़ोसी शहरों, गाजियाबाद और नोएडा में भी इसका पालन किया गया, पर दिल्ली के निर्माण परियोजनाओं को लगातार पर्यावरण स्वीकृति मिलती रही। दिल्ली के एरोसिटी (इंदिरा गांधी अंतरर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के पास) में जितने भवन आज हैं, सबको पर्यावरण स्वीकृति उसी दौरान दी गयी थी। यह पूरा क्षेत्र नजफगढ़ ड्रेन बेसिन क्षेत्र में स्थित है।

स सम्बन्ध में जब इस रिपोर्ट के लेखक ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की, तब पर्यावरण मंत्रालय के अधिकारियों ने न्यायालय में बताया कि यह पाबंदी निर्माण कार्यों पर नहीं लगी है। अधिकारियों का काम झूठ बोलना था, सो उन्होंने किया, पर न्यायाधीश महोदय ने भी एक बार भी उस निर्देश को पढ़ने की जहमत नहीं उठायी जिसमें स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि ऐसे क्षेत्रों में किसी भी परियोजना को पर्यावरण स्वीकृति नहीं दी जा सकती है। जाहिर है इसमें निर्माण परियोजनाएं सम्मिलित थीं।

झूठ और लापरवाही से लबरेज ऐसे संस्थान कैसे प्रदूषण से निजात दिला पायेंगे, यह समझाना कठिन नहीं है। एक कहावत है, 'जोकरों का झुण्ड', पर अफ़सोस यह है कि इन संस्थानों को जोकरों का झुण्ड भी नहीं कह सकते क्योंकि जोकर भी अपना काम लगन से करते हैं।

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