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तमाम दिखावों के बावजूद 4 दशकों से लगातार बढ़ता दिल्ली का वायु प्रदूषण और राजनेताओं की निर्लज्ज बयानबाजी
लगातार चार दशकों तक तमाम दिखावे के प्रयास के बावजूद लगातार बढ़ रहा दिल्ली का वायु प्रदूषण और हमारे संस्थान और सरकारें निर्लज्जों जैसे बयान देकर कर रहीं इसे रोकने का दिखावा...
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। दिल्ली के वायु प्रदूषण पर इन दिनों खूब चर्चा हो रही है। सभी राजनीतिक दल इस पर किसी गंभीर बहस में नहीं, बल्कि एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप में व्यस्त हैं। मीडिया भी तमाम आंकड़े प्रकाशित कर रहा है या फिर इसे दिखा रहा है, बड़े लोग वक्तव्य दे रहे हैं, कोई दिल्ली के प्रदूषण पर वाइट पेपर प्रकाशित कर रहा है, सर्वोच्च न्यायालय भी सरकारों को धमका रहा है और इन सबके बीच जनता अपनी साँसें समेट रही है। होली आते आते तक वायु प्रदूषण किसी के लिए कोई मुद्दा नहीं रहेगा। इस सबके बीच, हम आकलन करते हैं कि क्या कभी हम इस प्रदूषण की मार से बच पायेंगे?
देश में वायु अधिनियम वर्ष 1981 में लागू हुआ। 1980 के दशक में दिल्ली पार्टिकुलेट मैटर के सन्दर्भ में दुनिया का तीसरा सबसे प्रदूषित शहर था और उस समय की सभी रिपोर्ट इस प्रदूषण के लिए राजस्थान से आई धूल/रेत, वाहनों के उत्सर्जन और शहर में स्थापित उद्योग और ताप बिजली घर के उत्सर्जन को जिम्मेदार मानते थे।
उस दौर में वायु प्रदूषण रोकने की पूरी जिम्मेदारी पर्यावरण मंत्रालय और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के कन्धों पर थी। 1980 के दशक में पीएम 10 या फिर पीएम 2.5 का परिमापन नहीं किया जाता था, बल्कि एसपीएम (सस्पेंडेड पार्टिकुलेट मैटर) का परिमापन किया जाता था। एसपीएम का औसत मान 400 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर के लगभग रहता था।
इस सन्दर्भ में देखें तो पीएम 10 के मान लगभग 160 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर और पीएम 2.5 का मान लगभग 65 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर रहता होगा।
उस दौर में न्यायालय भी इस मामले पर सक्रिय नहीं थे और हरित न्यायालय की कोई चर्चा भी नहीं थी। बड़े से बड़े निर्माण परियोजना और इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजना के लिए किसी पर्यावरण स्वीकृति और प्रदूषण बोर्ड से सहमति की आवश्यकता नहीं थी, सड़कों पर डीजल की बसें चला करती थी और किसी वाहन के लिए पोल्यूशन अंडर कण्ट्रोल के किसी सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं थी।
उद्योगों को प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से सहमति लेने की प्रक्रिया उसी समय शुरू की गयी थी। दिल्ली के पड़ोसी राज्यों में खेती का क्षेत्र अपेक्षाकृत अधिक था और कृषि अपशिष्ट भी खुले में जलाया जाता था। तब यमुना नदी पर इतने पुल नहीं थे, सड़कों पर इतने फ्लाईओवर नहीं थे, एलेवेटेड रोड का नाम भी किसी ने नहीं सुना था। दिल्ली मेट्रो का इस तरह जाल नहीं था और सैटेलाईट टाउन (नॉएडा, ग्रेटर नॉएडा, गुरुग्राम, फरीदाबाद और सोनीपत) खस्ताहाल थे।
इसके बाद के दशकों में दिल्ली में वायु प्रदूषण का मसला भारत सरकार के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के साथ साथ दिल्ली सरकार का पर्यावरण विभाग, दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण कमेटी और एनवायर्नमेंटल पोल्यूशन कण्ट्रोल अथॉरिटी भी देखने लगे।
देश के सर्वोच्च न्यायालय और दिल्ली उच्च न्यायालय भी बहुत सक्रिय हो गए और बहुत सारे निर्देश सरकार को दिए। राष्ट्रीय हरित न्यायालय की स्थापना की गयी और इसने भी सरकारों के लिए अनेक निर्देश जारी किये। पहले की एक एमसीडी तीन हिस्सों में बट गयी और स्वच्छता की जिम्मेदारी निभाने लगी।
देश एकाएक स्वच्छ भारत में तब्दील हो गया। डीडीए ने अपने भवन निर्माण बाईलाज में प्रदूषण कम करने के लिए अनेक शर्तें लागू कर दीं। अब तो समय-समय पर प्रधानमंत्री कार्यालय भी वायु प्रदूषण के मामले में हस्तक्षेप करने लगा है।
इन सबके बाद दिल्ली दुनिया में सबसे प्रदूषित शहर हो गया। वायु प्रदूषण के परिमापन में एसपीएम् को हटा कर पीएम 10 और पीएम 2.5 को मापा जाने लगा। 1980 के दशक में जहां दिल्ली में चार-पांच जगह वायु प्रदूषण की जांच की जाती थी, वह बढ़कर 40 के लगभग पहुँच गयी। परिमापन की मनुएल विधि को बदलकर स्वचालित उपकरण स्थापित कर दिए गए। अब दिन के किसी भी समय प्रदूषण के स्तर की जानकारी ली जा सकती है। पर, दिल्ली में प्रदूषण बढ़ता ही गया। अब तो पीएम 10 का मान 400 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर से भी अधिक हो जाना और पीएम 2.5का मान 200 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर से अधिक हो जाना सामान्य बात है।
दिल्ली मेट्रो का दिल्ली और पड़ोसी शहरों में जाल बिछ गया। नयी सड़कें बन गयीं, सडकों पर असंख्य फ्लाईओवर बन गए, यमुना पर नए पुल बन गए, एलेवेटेड रोड बन गयी। तामझाम के साथ पेरिफेरल रोड भी चालू हो गए। तमाम नयी बसें सड़कों पर दिखने लगीं। दिल्ली से अधिकतर उद्योगों को बाहर स्थापित कर दिया गया। डीजल की बसें बंद हो गयीं, सीएनजी के वाहन चलने लगे। पहले से अधिक परिष्कृत डीजल और पेट्रोल उपलब्ध हो गया। पहले की तुलना में एलपीजी का घरों में उपयोग कई गुणा बढ़ गया।
अब हरेक गाड़ी के लिए एक पोल्यूशन अंडर कण्ट्रोल सर्टिफिकेट हो गया। पुराने वाहन सड़कों से हटा दिए गए। सारे सैटेलाईट टाउन अपने आप में ही महानगर के तौर पर विकसित हो गए। अब वायु गुणवत्ता को एयर क्वालिटी इंडेक्स के तौर पर जगह जगह होर्डिंग के तौर पर प्रचारित किया जाता है। दिल्ली एनसीआर में वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए ग्रेडेड रिस्पॉन्स् एक्शन प्लान लागू किया गया है और एक क्लीन सिटीज एयर प्रोग्राम भी चलाया गया है।
इन सबके बीच दिल्ली में वायु प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है, यह अंतरराष्ट्रीय खबर भी बन जाता है। विदेशी सैलानी यहां आने से कतराते हैं और विदेशी राजनयिक यहां आने को एक सजा समझाते हैं। यहाँ फिल्मों की शूटिंग रोकनी पड़ती है और खिलाड़ी दिल्ली में खेलना नहीं चाहते।
आश्चर्य यह है कि लगातार चार दशकों तक तमाम दिखावे के प्रयास के बाद भी वायु प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है और हमारे संस्थान और सरकारें निर्लज्जों जैसे बयान देकर इसे रोकने का दिखावा कर रही हैं।