राजस्थान में दलित सरपंच को मारकर किया अधमरा

Update: 2018-03-21 16:42 GMT

एक तरफ न्यायपालिका दलित अत्याचार निवारण कानून की धारा को कथित दुरुपयोग रोकने के नाम पर कमजोर करने में व्यस्त है, वहीं ग्रामीण भारत में दलित हर क्षण उत्पीड़न सहन करने के लिए विवश हैं....

भंवर मेघवंशी

अनुसूचित जाति जनजाति वर्ग के आम लोग हो अथवा जनप्रतिनिधि या सरकारी अधिकारी कर्मचारी, कोई भी इस जंगलराज में सुरक्षित नहीं है। हर दिन दलित आदिवासियों पर हमले हो रहे है।

अन्याय जारी है, अत्याचार बढ़ रहे हैं, उत्पीड़नों की बाढ़ आई हुई है। ऐसा ही एक मामला चित्तौड़गढ़ जिले के गंगरार थाना क्षेत्र के तुम्बड़िया ग्राम में 17 मार्च 2018 को घटित हुआ है, जहां पर एक दलित युवा सरपंच के साथ गैर दलितों ने निर्मम मारपीट की तथा उसे मरा समझ कर छोड़ भागे।

दरअसल ये धर्म की आड़ में भूमाफिया लोगों की घृणित करतूत है, जिसके तहत हँसगिरी उर्फ हिम्मत सिंह और उसके चेले—चपाटे सांवर मल शर्मा तथा विनय पौद्दार ने दलित सरपंच राजमल सालवी को फोन करके बुलाया और नर्सरी पर कब्ज़ा करवाने हेतु दबाव बनाया। जब सरपंच ने इसके लिए मना कर दिया, तो सरपंच को जातिगत गालियां दीं और कहा, बलाईटे, नीच जात, तुझे हम सरपंचाई करना सीखा देंगे।

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इसके बाद हँसगिरी और उसके दोनों साथियों ने गिरी हुई कायराना हरकत की। चिमटे से हमला बोल दिया, लात—घूंसों और चिमटे के वार से दलित सरपंच राजमल बुरी तरह घायल हो कर बेहोश हो वहीं गिर पड़ा। मरा हुआ मान कर ये जुल्मी उसे छोड़कर भाग गए।

थाना गंगरार में 20 मार्च को मुकदमा क्रमांक 86/2018 भादस 323 एवं अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण कानून 3(1)(s), 3(1)(द) के तहत दर्ज करवाया।

इसके अलावा हाल ही में एसएमएस मेडिकल कॉलेज में चार दलित मेडिकल स्टूडेंट्स पर सुनियोजित आक्रमण किया गया और दिनभर के प्रयास के बावजूद एफआईआर तक दर्ज नहीं हो सकी,अंततः मामले में पीड़ित मेडिकल छात्रों को समझौता करना पड़ा।

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ऐसे उदाहरण हर थाना क्षेत्र के हैं। दुरुपयोग तो बहुत दूर की बात है, दलित अत्याचार निवारण अधिनियम का उपयोग तक करने की स्थिति में यह वर्ग नहीं है। पहली बात तो मुकदमे ही दर्ज नहीं हो पाते हैं, होते भी हैं तो राजीनामे का इतना दबाव रहता है कि आधे मामले वहीं दम तोड़ देते हैं।

फिर जांच के नाम पर उत्पीड़न का नया दौर शुरू हो जाता है। सवर्ण गवाह का एक गैरकानूनी पाखण्ड जारी है, जिसकी कोई आवश्यकता नहीं है। बावजूद इसके भी गैर अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग के लोगों की गवाही मांगी जाती है। इतना ही नहीं बल्कि पूरी जांच के दौरान जांच अधिकारी पूरे समय पीड़ित पक्ष को हतोत्साहित करते हैं, डराते धमकाते हैं और समझौता कर लेने की बिन मांगी सलाह देते रहते हैं।

इसका नतीजा यह होता है कि 70 फीसदी मामले अदालत की चौखट तक पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देते हैं। अगर कुछ मामले कोर्ट तक चले भी जाते हैं तो सुनवाई, गवाही, तारीख पर तारीख के चलते महज़ 3 से 4 प्रतिशत मामलों में सज़ा हो पाती है!

ऐसे में अजाजजा अत्याचार निवारण संशोधन अधिनियम 2016 के दुरुपयोग की बात करना बेहद दुखद और अन्यायकारी बात है, यह संविधान प्रदत्त सामाजिक न्याय और गरिमापूर्ण जीवन के वायदे की हत्या है।

सवाल यह है कि इस देश में किस जगह दलित आदिवासी वंचित समुदाय सुरक्षित है। कौन सुरक्षित है? आम दलित तो बिल्कुल भी नहीं, लेकिन दलित व्यापारी, अफसर और जनप्रतिनिधि...कोई भी सुरक्षित नहीं है।

कभी डांगावास होता है तो कभी डेल्टा मारी जाती है, कभी गेनाराम जैसों को सपरिवार आत्महत्या करनी पड़ती है तो कभी करेड़ा जैसा अन्याय बरसों तक चुपचाप सहना पड़ता है, तो कभी विधायक चंद्रकांता मेघवाल और कभी सरपंच राजमल सालवी तक को हमलों का शिकार बनाया जाता है। फिर भी अनुसूचित जातियों/जनजातियों के खून में उबाल नहीं आता। सोचते हैं कि उन पर हुआ है, हम क्यों बोलें? लेकिन सवाल यह है कि कल जब आप पर हमला होगा, आपका घर जलेगा, आप अन्याय का शिकार होंगे तब कौन बोलेगा?

मैं पीड़ित सरपंच से मिलने जा रहा हूँ, न्याय की इस लड़ाई में मैं पीड़ित पक्ष के साथ खड़ा हूँ, इंसाफ की इस लड़ाई में आप भी शामिल होना मत भूलिए।

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दलित अत्याचार निवारण कानून में क्या हुआ है बदलाव
सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया है कि अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून के दुरुपयोग की शिकायतों के मद्देनजर अब दलित उत्पीड़न की किसी भी तरह की घटना में गिरफ्तारी करने से पहले उसकी जांच—पड़ताल जरूरी होगी और आरोपी को अग्रिम जमानत भी दी जा सकती है। मामला दर्ज करने से पहले उसके सही होने के आधार के बारे में डीएसपी स्तर का पुलिस अधिकारी प्रारंभिक जांच करेगा। यही नहीं, अगर आरोपी सरकारी अफसर है तो उसकी गिरफ्तारी से पहले उसके उच्च अधिकारी से अनुमति जरूरी होगी।

(भंवर मेघवंशी सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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