ग्राउंड रिपोर्ट : उत्तराखंड के जैकुनी गांव में सड़क-बिजली, स्कूल-अस्पताल कुछ भी नहीं

Update: 2019-10-29 07:12 GMT

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सड़क-बिजली, स्कूल-अस्पताल से वंचित उत्तराखण्ड के जैकुनी गांव के लोगों ने अपनी उपेक्षा से तंग आकर किया था लोकसभा चुनावों का बॉयकॉट, पर शासन-प्रशासन के कान में नहीं रेंगी जूं...

उत्तराखण्ड के सुदूरवर्ती गांव जैकुनी के युवा सरकार की उपेक्षा के कारण होंगे पलायन को मजबूर

मूलभूत सुविधाओं से अछूते बागेश्वर के सुदूर गांव जैकुनी से लौटकर विनीता यशस्वी की रिपोर्ट

जनज्वार। बागेश्वर का एक छोटा सा गांव है जैकुनी, आज भी सड़क—बिजली, स्कूल, अस्पताल जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित। जैकुनी पहुंचने के लिये बागेश्वर से कुछ दूरी तक तो सड़क ठीक ही है, पर भराड़ी कस्बे के बाद सड़क की हालत बहुत बुरी हो गयी। गाड़ी इसमें झटके खाते हुए ही चलती है, हालांकि सड़क में डामरीकरण का काम चल रहा है। इसलिए कुछ देर यहां रुकना पड़ा। उस दौरान यहां काम करने वाले कामगारों से बात की।

ड़क पर काम कर रहे ज्यादातर मजदूर उत्तर प्रदेश के बरेली, मेरठ और रामपुर शहरों से आये हैं। सड़क का काम करके ये लोग अपने गांव वापस चले जायेंगे और फिर वहां जो थोड़ी खेती-बाड़ी है, उसे संभालेंगे। इन कामगारों के साथ छोटे-छोटे बच्चे भी हैं जिनको इस उम्र में पढ़ाई-लिखाई की जगह ये काम करना पड़ रहा है, क्योंकि घर संभालने की जिम्मेदारी इन बच्चों के कंधे में आ गयी है।

देखते ही देखते चारों ओर सारे कामगार इकट्ठा हो गये और अपनी-अपनी परेशानियां बताने लग गये। खेती से गुजर-बसर नहीं हो पाती, इसलिये इनको मजदूरी करने दूरदराज जहां काम मिलता है वहां जाना पड़ता है ताकि दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो सके।

कुछ देर में सड़क खुल गयी तो गाड़ी आगे बढ़ी। आगे कुर्मि गांव आया, जहां चाय पीने के लिये रुके। यहां फसलों पर जाल डाले गये हैं। पूछने पर महेन्द्र सिंह कुर्मियाल ने बताया, 'लंगूर-बंदरों और ओलों से फसल बचाने के लिये जाल डाला है। जंगली जानवरों से फसलों को बहुत नुकसान होता है और अगर उनसे फसल बच गयी तो ओले फसल खराब कर देते हैं, इसलिये फसल को जाल से ढका है ताकि मौसम और जानवर दोनों से ही फसल बच सके।'

कुर्मि के बाद फिर काफी लम्बा रास्ता तय किया, जिसमें ज्यादातर सड़क बिल्कुल कच्ची है। कुछ देर में खरकिया पहुंचे। गाड़ी का रास्ता खरकिया तक ही है। उसके बाद जैकुनी पहुंचने के लिए खड़ंजे वाला रास्ता आ गया, जिसमें इंसान ही नहीं बल्कि खच्चर भी अपने गले की घंटियां बजाते हुए चलते हैं। खच्चर इन जगहों के लिये बहुत ही काम का पशु है। इनके बगैर तो इन इलाकों में जिन्दगी के बारे में सोचना भी मुश्किल है। इन्हें खाने के लिये भरपूर चारा कुदरत से ही मिल जाता है और बदले में ये कितना भी काम कर सकते हैं।

जैखुनी का एक ग्रामीण अपने दुखों को साझा करता

रीब 2-3 घंटे पैदल चल लेने के बाद जैकुनी गांव आ गया। बाहर निकलते ही एक बच्चा मिल गया और बच्चे से थोड़ा बात हुई तो उसके साथ दोस्ती भी हो गयी। ये है भूपिंदर। 7वीं कक्षा में पढ़ता है। भूपिंदर की मां का अभी 3-4 महीने पहले ही देहांत हुआ है। उन्हें सांप ने डंक मार दिया था और समय से सही उपचार न मिलने के कारण उनकी मृत्यु हो गयी। इन गांवों में अस्पताल का न होना एक बहुत बड़ी समस्या है। छोटी-छोटी बीमारियों से लेकर सांप के काटने जैसी गंभीर समस्यायें सब भगवान भरोसे ही है।

भूपिंदर के साथ जैसे ही आगे बढ़ी उसका एक दोस्त भी मिल गया और अब ये दोनों मेरे गाइड थे। भूपिंदर के दोस्त का नाम भी भूपिंदर है और वो भी कक्षा 7 में ही पढ़ता है और उसके भी पिता का देहांत अभी कुछ महीने पहले ही हुआ है। दूसरा वाला भूपिंदर बताता है - मेरे पिता को बहुत तेज बुखार आया और वो कांपने लगे थे और फिर वो कुछ भी नहीं बोले। मेरे पड़ोसियों ने मुझे बताया कि मेरे पिता मर गये हैं। उसके चेहरे के भाव देखकर कलेजा मुंह को आ गया।

न दोनों के स्कूल के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया, हमारा स्कूल यहाँ से 2 किमी. दूर है और हम लोग पैदल ही जाते हैं। हमारे स्कूल में अंग्रेजी भी पढ़ाते हैं। दोनों ही आपस में सहमति जताते हुए कहते हैं - अब तो अंग्रेजी का ही जमाना है। हिन्दी में पढ़ के कोई फायदा नहीं है। दोनों चाहते हैं कि मैं वहाँ आके रहने लगूँ और उन्हें अंग्रेजी पढ़ाऊँ। हालांकि दोनों ही अपने शिक्षक से बेहद खुश हैं और कहते हैं - हमारे सर बहुत अच्छे से हमें पढ़ाते हैं और हम उनके घर भी जाते हैं पढ़ने के लिये। वो हमें फ्री में ही पढ़ा देते हैं। दोनों ने ही अपने शिक्षक की बेहद तारीफ की इसलिये अच्छा लगा कि कम से कम कोई तो ऐसा शिक्षक अभी भी बचा है, जो बच्चों के लिये इतना समर्पित है।

जैकुनी गांव के दो बच्चे

गली सुबह पास में ही बनी रसोई में गाँव के लोगों की भीड़ इकट्ठा होने लगी है। इन लोगों की सभी सरकारों से कई शिकायतें हैं। पहली तो सड़क की है ही, पर इसके अलावा यहाँ स्कूल और अस्पताल भी नहीं हैं। बिजली नहीं है। कोई रोजगार के साधन नहीं हैं।

क ग्रामीण कहते हैं - यहाँ इतना फल-फूल होता है, पर सारा बेकार चला जाता है क्योंकि बाजार पहुंचाना महंगा पड़ता है और गांव में ऐसा कोई कुटीर उद्योग नहीं है जिसमें ये चीजें इस्तेमाल की जा सकें।'

गाँव के लोगों का मुख्य रोजगार मकान बनाने के लिये इस्तेमाल होने वाले पत्थरों की तुड़ाई करना है या फिर खच्चर से ढुलाई का काम। दोनों ही बहुत मेहनत के काम हैं और कमाई कम होती है। ट्रेकिंग के क्षेत्र में भी यहाँ लोगों को ज्यादा रोजगार नहीं मिल रहा है। हालांकि अब नये युवा थोड़ा बहुत काम करने लगे हैं, मगर उन्हें सरकार से कोई मदद नहीं मिलती है।

ब उनसे पूछा कि 'कमरों में तो बिजली की फीटिंग है और स्विच भी लगे हैं। ऐसा क्यों?' एक युवक कहता है, 'हम लोगों ने बिजली की फीटिंग ये सोच के करवाई थी कि शायद जल्दी ही गांव में बिजली आ जायेगी, पर अभी तक भी बिजली का कोई नामोनिशान नहीं है। बिजली वाले मुद्दे में इस बार हमने लोकसभा चुनावों का बहिष्कार भी किया था। हमारे गांव से किसी ने भी लोकसभा चुनाव में हिस्सा नहीं लिया।'

ताशा से उदासी भरी आवाज में वो फिर कहता है, 'बिजली तो नहीं है पर सड़क भी नहीं है हमारे गांव में। हमें हमेशा अपने पैरों पर ही भरोसा करना होता है और अगर कोई बीमार हो गया तब तो कहना ही क्या। न तो यहां सड़क है और न ही यहां अस्पताल है, इसलिये जिसकी किस्मत में बचना लिखा होता है वही बचता है वरना तो लोग बिन इलाज के मर ही जाते हैं।'

क अन्य युवा कहता है, 'जैखुनीवासी अपनी किस्मत से ही बचते हैं साहब, वरना बिना इलाज के तो हम सदियों से मरने को अभिशप्त हैं।'

जैकुनी गांव में खेती तो अच्छी हो जाती है, पर बाजार में बेचने की सुविधा नहीं है इसलिये यहां के ग्रामीण ज्यादातर फसलें अपने खाने लायक ही उगाते हैं। पास ही बैठे दूसरे युवा ने बताया, 'हमारे गांव से कोई भी सरकारी नौकरी में नहीं है, क्योंकि गांव में स्कूल नहीं होने के कारण कोई भी पढ़ा-लिखा नहीं है। अब तो फिर भी कुछ प्राइवेट स्कूल खुल गये हैं, मगर सरकारी स्कूलों का तो हाल बुरा है। प्राइवेट स्कूलों में जाना हर बच्चे के लिये तो संभव नहीं हो पाता है।'

जैकुनी गांव में कुल 25-30 परिवार हैं और राहत की बात यह है कि फिलहाल तो गांव से पलायन नहीं हुआ है मगर ग्रामीण कहते हैं, 'अगर हालात ऐसे ही रहे तो मजबूरन हम लोगों को अपने गांव को छोड़ कर दूसरी जगहों में जाना पड़ेगा।'

जैकुनी गांव में खेती तो अच्छी हो जाती है, पर बाजार में बेचने की सुविधा नहीं है इसलिये यहां के ग्रामीण ज्यादातर फसलें अपने खाने लायक ही उगाते हैं

कीड़ाजड़ी लेने भी जाते हो क्या? पूछने पर ग्रामीण युवा कहते है।, 'हाँ! उसके लिये भी जाते हैं। वो तो कमाई का जरिया है। हालांकि उसे ढूँढ़ना बहुत कठिन होता है पर फिर भी उससे अच्छी कमाई हो जाती है।' इस साल कितना कमाया? 'अरे कहाँ... इस साल तो अभी तक कुछ भी नहीं कमाया। बर्फ बहुत देर तक रही इस बार। अब तक तो कीड़ा खराब भी होने लगा होगा। पिछले सालों तक तो इस समय बर्फ पिघलने लगती थी और हम लोग कीड़ा लेने के लिये जाने लगते थे, पर इस बार अभी तक बर्फ ही पड़ रही है। मुझे नहीं लगता है कि इस बार कीड़ाजड़ी खोदने में कुछ खास ज्यादा फायदा होगा।'

न लोगों की निराशा को महसूसते हुए कुछ आगे नहीं पूछ पाती। एक तरफ सरकारें पलायन रोकने के तमाम दावे—वादे करती हैं, मगर जिन गांवों में लोग रहना चाहते हैं उनके लिए मूलभूत सुविधायें तक मुहैया नहीं करायी गयी हैं। पलायन का दंश झेलते उत्तराखण्ड के ऐसे गांवों को अगर सरकार द्वारा प्रोत्साहन दिया जाता तो ये न सिर्फ स्थानीय रोजगार को आगे बढ़ाते, बल्कि स्वरोजगार को भी खासा प्रोत्साहन मिलता।

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