मोदी के नजर में भले ही यूपी सर्वोच्च प्रदेश, लेकिन योगी राज में उच्च शिक्षा विभाग से नहीं मांग सकते जनसूचना
पीएम मोदी ने कहा कि माफिया राज और आतंकवाद जो बेकाबू हो रहा था, अब उनपर कानून का शिकंजा है। यूपी में अब कानून का राज है। आज अपराधियों को पता है वो कानून से बच नहीं पाएंगे....
जितेंद्र उपाध्याय की रिपोर्ट
जनज्वार। भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना व जनता के अधिकारों की सुरक्षा के लिहाज से सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 को कारगर हथियार माना गया। हालाकि कानून लागू होने के बाद से लगातार विभिन्न सरकारों ने कानून को कमजोर करने की भरपूर कोशिश की। ऐसा ही उदाहरण है रामराज की स्थापना की बात करने वाले योगीराज सरकार की।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के कार्यों की सराहना करते भले ही न थकते हों पर योगी के कार्यकाल में सूचना अधिकार अधिनियम की खूब धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। उत्तर प्रदेश शासन के 72 विभागों में से उच्च शिक्षा विभाग में न कोई जन सूचना अधिकारी ही है और न ही कोई अपीलीय अधिकारी। ऐसे में कहा जा सकता है कि उच्च शिक्षा विभाग से जनसूचना मांगने पर अघोषित रूप से सरकार के तरफ से ही रोक लगा दी गई है।
इस पर विस्तार से चर्चा करने के पूर्व जरूरी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश सरकार के प्रति क्या नजरिया रखते हैं। 5 दिन पूर्व अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी में आयोजित कार्यक्रम में हिस्सा लेते हुए अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि 2017 से पहले भी दिल्ली से यूपी के लिए पैसा भेजा जाता था, लेकिन तब लखनऊ में उनमें रोड़ा लग जाता था। आज योगी जी कड़ी मेहनत कर रहे हैं, खुद सीएम योगी यहां पर आकर विकास कार्यों को देखते हैं। सीएम योगी हर जिले में जाते हैं और अलग-अलग काम पर नज़र रखते हैं, इसी वजह से यूपी में बदलाव हो रहा है।
पीएम मोदी ने कहा कि माफिया राज और आतंकवाद जो बेकाबू हो रहा था, अब उनपर कानून का शिकंजा है। यूपी में अब कानून का राज है। आज अपराधियों को पता है वो कानून से बच नहीं पाएंगे। यूपी की सरकार आज भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद से मुक्त है, यूपी की सरकार विकासवाद से चल रही है। यूपी में जनता की योजनाओं का लाभ सीधा जनता को मिल रहा है।
अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना की दूसरी लहर के दौरान उत्तर प्रदेश के प्रबंधन की तारीफ की। पीएम मोदी ने कहा कि यूपी की जनसंख्या कई देशों से भी ज्यादा है, फिर भी यहां की सरकार, लोगों ने कोरोना की दूसरी लहर को संभाल लिया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश सरकार की उपलब्धियों का बखान करते हुए योगी आदित्यनाथ की खुब सराहना की। यानि की मुख्यमंत्री के प्रयास से देश में यूपी सर्वोच्च प्रदेश बन गया है अर्थात उन्होंने टॉपर मार्क्स दिया। हालाकि अगले 6 माह बाद यूपी में विधानसभा चुनाव होना है। जिसमें जनता योगी आदित्यनाथ को एक बार फिर टॉपर घोषित करती है या ग्रेस मार्क्स से पास करती है या फेल कर देती है, यह आने वाला समय बताएगा।
फिलहाल राज्य सरकार की छोटी सी कारगुजारियोंं की यहां चर्चा करते हैं। सरकार ने अपने समस्त 72 विभागों में से 71 विभागों के लिए जन सूचना अधिनियम 2005 के तहत जन सूचना अधिकारी व प्रथम अपीलीय अधिकारी की तैनाती कर रखी है। लेकिन खास बात यह है कि उच्च शिक्षा विभाग जैसे महत्वपूर्ण कार्यालयों के लिए इनके द्वारा अब तक कोई जन सूचना अधिकारी या प्रथम अपीलीय अधिकारी की तैनाती करना जरुरी नहीं समझा गया। वह भी उस समय जब लगातार योगीराज में विभिन्न विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के कार्य प्रणाली पर सवाल उठते रहे हैं।
असिस्टेंट प्रोफेसर समेत अन्य पदों पर भर्ती में पिछले साढ़े चार साल में भ्रष्टाचार के मामले उजागर होते रहे हैं। इसके बाद भी उच्च शिक्षा विभाग के लिए जन सूचना अधिकारी या प्रथम अपीलीय अधिकारी की तैनाती न करना सरकार की मंशा को दर्शाता है।
आरटीआई एक्टिविस्ट दीपक कुमार दीक्षित कहते हैं कि योगी सरकार आने के बाद जब सूचना अधिकार अधिनियम को कमजोर करने की लगातार कोशिश की गई। राज्य सूचना आयोग में पूर्वांचल के जिलो की सुनवाई सैय्यद हैदर अब्बास रिजवी के यहां होती थी। उनके यहां अपील करने पर दूसरे पक्षकार को 30 दिन के अंदर उपस्थित होने की नोटिस देते थे। इसका उल्लंघन करने पर अर्थ दंड समेत अन्य नियमानुसार कार्रवाई अभी होती थी। अब इनके स्थान पर चंद्रकांत पांडे की तैनाती की गई है। जिनके द्वारा आवेदन पर छह माह से अधिक का सुनवाई की तारीख दी जाती है। मेरे द्वारा ही अब तक मांगी गई विभिन्न सूचना से संबंधित आवेदन राज्य सूचना आयोग के यहां 100 से अधिक की संख्या में लंबित है।
शिक्षकों के संगठन एआईएफयूसीटीओ के यूपी व उत्तराखण्ड के जोनल सेक्रेटरी डॉ राजेश चन्द्र मिश्र ने कहा कि जन सूचना को लेकर उच्च शिक्षा विभाग में अधिकारी को नामित न करना यह दुःखद एवं शर्मनाक है। समाज के सबसे प्रबुद्ध वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली उच्च शिक्षा के प्रति उत्तर प्रदेश शासन की उदासीनता का परिचायक है। जबकि प्रदेश के बेसिक शिक्षा मंत्री और उच्च शिक्षा मंत्री दोनो उच्च शिक्षा के ही शिक्षक है और प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी जी महाराज के संरक्षण वाली महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद के अधीन दर्जनों उच्च शिक्षा के संस्थान संचालित होते है।
लंबी लड़ाई के बाद बना सूचना का अधिकार अधिनियम
सूचना के अधिकार के प्रति कुछ सजगता वर्ष 1975 के शुरूआत में "उत्तर प्रदेश सरकार बनाम राज नारायण" से हुई। मामले की सुनवाई उच्चतम न्यायालय में हुई, जिसमें न्यायालय ने अपने आदेश में लोक प्राधिकारियों द्वारा सार्वजनिक कार्यो का व्यौरा जनता को प्रदान करने का व्यवस्था किया। इस निर्णय ने नागरिकों को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दायरा बढ़ाकर सूचना के अधिकार को शामिल कर दिया।
वर्ष 1982 में द्वितीय प्रेस आयोग ने शासकीय गोपनीयता अधिनियम 1923 की विवादस्पद धारा 5 को निरस्त करने की सिफारिश की थी, क्योंकि इसमें कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया था कि 'गुप्त' क्या है और 'शासकीय गुप्त बात' क्या है ? इसलिए परिभाषा के अभाव में यह सरकार के निर्णय पर निर्भर था, कि कौन सी बात को गोपनीय माना जाए और किस बात को सार्वजनिक किया जाए। बाद के वर्षो में साल 2006 में 'विरप्पा मोइली' की अध्यक्षता में गठित 'द्वितीय प्रशासनिक आयोग' ने इस कानून को निरस्त करने का सिफारिश किया।
सूचना के अधिकार की मांग राजस्थान से प्रारम्भ हुई। राज्य में सूचना के अधिकार के लिए 1990 के दशक में जनान्दोलन की शुरूआत हुई, जिसमें मजदूर किसान शक्ति संगठन(एम.के.एस.एस.) द्वारा अरूणा राय की अगुवाई में भ्रष्टाचार के भांडाफोड़ के लिए जनसुनवाई कार्यक्रम के रूप में हुई।
1989 में कांग्रेस की सरकार गिरने के बाद बीपी सिंह की सरकार सत्ता में आई, जिसने सूचना का अधिकार कानून बनाने का वायदा किया। 3 दिसम्बर 1989 को अपने पहले संदेश में तत्कालीन प्रधानमंत्री बीपी सिंह ने संविधान में संशोधन करके सूचना का अधिकार कानून बनाने तथा शासकीय गोपनीयता अधिनियम में संशोधन करने की घोषणा की। इसके बाद भी बीपी सिंह की सरकार तमाम कोशिसे करने के बावजूद भी इसे लागू नहीं कर सकी और यह सरकार भी ज्यादा दिन तक न टिक सकी।
वर्ष 1997 में केन्द्र सरकार ने एच.डी शौरी की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित करके मई 1997 में सूचना की स्वतंत्रता का प्रारूप प्रस्तुत किया, किन्तु शौरी कमेटी के इस प्रारूप को संयुक्त मोर्चे की दो सरकारों ने दबाए रखा। वर्ष 2002 में संसद ने 'सूचना की स्वतंत्रता विधेयक(फ्रिडम आॅफ इन्फाॅरमेशन बिल) पारित किया। इसे जनवरी 2003 में राष्ट्रपति की मंजूरी मिली, लेकिन इसकी नियमावली बनाने के नाम पर इसे लागू नहीं किया गया।
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन(यू.पी.ए.) की सरकार ने न्युनतम साझा कार्यक्रम में किए गए अपने वायदो में पारदर्शिता युक्त शासन व्यवस्था एवं भ्रष्टाचार मुक्त समाज बनाने के लिए 12 मई 2005 में सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 संसद में पारित किया, जिसे 15 जून 2005 को राष्ट्रपति की अनुमति मिली और अन्ततः 12 अक्टूबर 2005 को यह कानून जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में लागू किया गया। इसी के साथ सूचना की स्वतंत्रता विधेयक 2002 को निरस्त कर दिया गया।
इस कानून के राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने से पूर्व नौ राज्यों ने पहले से लागू कर रखा था, जिनमें तमिलनाडु और गोवा ने 1997, कर्नाटक ने 2000, दिल्ली 2001, असम, मध्य प्रदेश, राजस्थान एवं महाराष्ट्र ने 2002, तथा जम्मू-कश्मीर ने 2004 में लागू कर चुके थे।