आदिवासियों के जीवन, कला, लूट और प्राकृतिक सम्पदा के दोहन पर चर्चित कवियों की महत्वपूर्ण कवितायें
आदिवासियों के जीवन, कला, लूट पर और उनकी प्राकृतिक सम्पदा के दोहन पर बहुत सारी कवितायें लिखी गईं हैं, आदिवासी कवियों ने तो लिखा ही है, महानगरों में बसने वाले पर अपनी मानवीय संवेदना बचाए रखने वाले अनेक प्रतिष्ठित कवियों ने भी आदिवासी जीवन और संघर्ष पर कवितायें लिखी हैं....
आदिवासियों पर लिखी गयी कविताओं पर महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। केवल हमारे देश में ही नहीं, बल्कि दुनियाभर के आदिवासी जहां भी रह रहे हैं, वे वहां के मूल निवासी हैं, और अब आधुनिकता की अन्धी और नंगी दौड़ में वे अपने ही मूल स्थान से उजाड़े जा रहे हैं। आदिवासी एक समाज के भीतर का स्वतंत्र और पूरी तरह से आत्मनिर्भर समाज है। हमारे तथाकथित आधुनिक विकास ने उनकी जगह, संस्कृति और सम्पदा को लूटा है, उन्हें विस्थापित किया है और बदले में अपने आधुनिक समाज की सभी कुरीतियों का उनमें समावेश किया है।
आदिवासियों के जीवन पर, उनकी कला पर, उनकी लूट पर और उनकी प्राकृतिक सम्पदा के दोहन पर बहुत सारी कवितायें लिखी गईं हैं। आदिवासी कवियों ने तो लिखा ही है, महानगरों में बसने वाले पर अपनी मानवीय संवेदना बचाए रखने वाले अनेक प्रतिष्ठित कवियों ने भी आदिवासी जीवन और संघर्ष पर कवितायें लिखी हैं। आज आदिवासी विचारधारा से सम्बंधित तीन कवितायें प्रस्तुत हैं।
पहली कविता सुप्रसिद्ध कवि मंगलेश डबराल की जोकि आदिवासी जीवन पर आधारित है—
आदिवासी
इंद्रावती गोदावरी शबरी स्वर्णरेखा तीस्ता बराक कोयल
सिर्फ़ नदियां नहीं उनके वाद्ययंत्र हैं
मुरिया बैगा संथाल मुंडा उरांव डोंगरिया कोंध पहाड़िया
महज़ नाम नहीं वे राग हैं जिन्हें वह प्राचीन समय से गाता आया है
और यह गहरा अरण्य उसका अध्यात्म नहीं उसका घर है
कुछ समय पहले तक वह अपनी तस्वीरों में
एक चौड़ी और उन्मुक्त हंसी हंसता था
उसकी देह नृत्य की भंगिमाओं के सहारे टिकी रहती थी
एक युवक एक युवती एक दूसरे की ओर इस तरह देखते थे
जैसे वे जीवन भर इसी तरह एक दूसरे की ओर देखते रहेंगे
युवती बालों में एक फूल खोंसे हुए
युवक के सर पर बंधी हुई एक बांसुरी जो अपने आप बजती हुई लगती थी
अब क्षितिज पर बार-बार उसकी काली देह उभरती है
वह कभी उदास और कभी डरा हुआ दिखता है
उसके आसपास पेड़ बिना पत्तों के हैं और मिट्टी बिना घास की
यह साफ़ है कि उससे कुछ छीन लिया गया है
उसे अपने अरण्य से दूर ले जाया जा रहा है अपने लोहे कोयले और अभ्रक से दूर
घास की ढलानों से तपती हुई चट्टानों की ओर
सात सौ साल पुराने हरसूद से एक नये और बियाबान हरसूद की ओर
पानी से भरी हुई टिहरी से नयी टिहरी की ओर जहां पानी खत्म हो चुका है
वह कैमरे की तरफ ग़ुस्से से देखता है
और अपने अमर्ष का एक आदिम गीत गाता है
उसने किसी तरह एक बांसुरी और एक तुरही बचा ली है
एक फूल एक मांदर एक धनुष बचा लिया है
अख़बारी रिपोर्टें बताती हैं कि जो लोग उस पर शासन करते हैं
देश के 626 में से 230 जिलों में
उनका उससे मनुष्यों जैसा कोई सरोकार नहीं रह गया है
उन्हें सिर्फ़ उसके पैरों तले की ज़मीन में दबी हुई
सोने की एक नयी चिड़िया दिखाई देती है
एक दिन वह अपने वाद्ययंत्रों को पुकारता है अपनी नदियों जगहों और नामों को
अपने लोहे कोयले और अभ्रक को बुला लाता है
अपने मांदर तुरही और बांसुरी को ज़ोरों से बजाने लगता है
तब जो लोग उस पर शासन करते हैं
वे तुरंत अपनी बंदूक निकाल कर ले आते हैं।
दूसरी कविता 'नदी पहाड़ और बाजार' आदिवासी कवि जसिंता केरकेट्टा ने लिखी है और इसमें आधुनिक पूंजीवाद और बाजारवाद, जो आदिवासी क्षेत्रों में पहुँच चुका है, उसका चित्रण है। जसिंता केरकेट्टा को 2014 में आदिवासियों के स्थानीय संघर्ष पर उनकी एक रिपोर्ट पर बतौर आदिवासी महिला पत्रकार उन्हें इंडिजिनस वॉयस ऑफ़ एशिया का रिकगनिशन अवार्ड, एशिया इंडिजिनस पीपुल्स पैक्ट, थाईलैंड की ओर से दिया गया। वर्ष 2014 में विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर झारखण्ड इंडिजिनस पीपुल्स फोरम की ओर से कविताओं के लिए सम्मानित किया गया।
2014 में ही उन्हें बतौर स्वतंत्र पत्रकार प्रतिष्ठित यूएनडीपी फेलोशिप प्राप्त हुई। 2014 में छोटानागपुर सांस्कृतिक संघ की ओर युवा कवि के रूप में 'प्रेरणा सम्मान' से सम्मानित किया गया, 2015 में उन्हें रविशंकर उपाध्याय स्मृति युवा कविता-पुरस्कार प्राप्त हुआ और 2017 में प्रभात खबर द्वारा अपराजिता सम्मान से सम्मानित किया गया।
नदी, पहाड़ और बाजार
गाँव में वो दिन था, एतवार।
मैं नन्ही पीढ़ी का हाथ थाम
निकल गई बाज़ार।
सूखे दरख़्तों के बीच देख
एक पतली पगडंडी
मैंने नन्ही पीढ़ी से कहा,
देखो, यही थी कभी गाँव की नदी।
आगे देख ज़मीन पर बड़ी-सी दरार
मैंने कहा, इसी में समा गए सारे पहाड़।
अचानक वह सहम के लिपट गई मुझसे
सामने दूर तक फैला था भयावह क़ब्रिस्तान।
मैंने कहा, देख रही हो इसे?
यहीं थे कभी तुम्हारे पूर्वजों के खलिहान।
नन्ही पीढ़ी दौड़ी : हम आ गए बाज़ार!
क्या-क्या लेना है? पूछने लगा दुकानदार।
भैया! थोड़ी बारिश, थोड़ी गीली मिट्टी,
एक बोतल नदी, वो डिब्बाबंद पहाड़
उधर दीवार पर टंगी एक प्रकृति भी दे दो,
और ये बारिश इतनी महँगी क्यों?
दुकानदार बोला : यह नमी यहाँ की नहीं!
दूसरे ग्रह से आई है,
मंदी है, छटाँक भर मँगाई है।
पैसे निकालने साड़ी की कोर टटोली
चौंकी! देखा आँचल की गाँठ में
रुपयों की जगह
पूरा वजूद मुड़ा पड़ा था...
तीसरी कविता 'बहुत कम बच रहा है ऑक्सीजन' आदिवासी युवा कवि अनुज लुगुन ने लिखी है। लुगुन मुंडा समुदाय से आते हैं। 2007 में रांची विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद वे बीएचयू चले गए। वहीं से उन्होंने हिंदी में एमए किया और वहीं से मुंडारी आदिवासी गीतों में आदिम आकांक्षाएं और जीवन-राग विषय पर शोध किया। इनकी कविताओं में आदिवासी जीवनदर्शन के साथ ही आधुनिकता भी है।
बहुत कम बच रहा है ऑक्सीजन
नाक में मास्क लगाकर तो रोज़ जिया नहीं जा सकता
और न ही इसके लिए घर में दुबक कर बैठा जा सकता है
साँस लेने के लिए खुली जगह की ज़रूरत होती है
हम बंद हो रहे हैं सब ओर से
इतिहास में एक तारीख़ दर्ज है हिटलर के नाम
गैस चैंबर में दम घुट कर मर गए लोगों को
सबसे ज़्यादा ऑक्सीजन की ही ज़रूरत थी
इतिहास की वह एक घटना थी जो राजनीतिक थी
इतिहास से हम सीख ले सकते हैं कि
राजनीतिक घटनाएँ भी ऑक्सीजन के लिए ज़िम्मेदार होती हैं
बहुत कम बच रहा है ऑक्सीजन
इसका मतलब सिर्फ़ यह नहीं कि जंगल कट रहे हैं
या ग्रीन हाउस का उत्सर्जन बढ़ गया है
इसे इस तरह भी समझा जाना चाहिए कि
किसी एक आदमी या किसी एक रंग की
जातीयता और राष्ट्रीयता की बात
अचानक लाखों लोगों को मौत की नींद सुला सकती है।