दुनियाभर में लॉकडाउन के बीच न्याय और अधिकार के लिए महिलाएं उतरीं सड़कों पर

पुलिस या सरकारें महिला आन्दोलनों का दमन केवल महिलाओं के कारण नहीं करतीं बल्कि महिलाओं के आन्दोलन के नए तरीके और अहिंसा से वे भी अचंभित रहते हैं...

Update: 2020-10-21 11:32 GMT

विमेंस मार्च नामक की एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर रचेल कारमोना, कहा ट्रम्प की चुनावों में हार महिलाओं के कारण ही होगी

महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

इन दिनों कोविड 19 के खतरों के बीच भी महिलायें दुनिया के बहुत सारे देशों में सरकारों के विरुद्ध आन्दोलनों में अग्रणी भूमिका में हैं। 17 अक्टूबर को अमेरिका के सभी बड़े शहरों में महिलाओं ने राष्ट्रपति ट्रम्प और उनकी रिपब्लिकन पार्टी के विरुद्ध रैलियों का आयोजन किया। इसका आयोजन विमेंस मार्च नामक संस्था ने किया था और इसकी एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर रचेल कारमोना के अनुसार ट्रम्प की चुनावों में हार महिलाओं के कारण ही होगी।

उन्होंने आगे कहा कि ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद विरोध में पहली रैली महिलाओं ने की थी, और अब इसका अंत भी महिलाओं के वोट से ही होगा। रैली में अनेक महिलाओं के हाथों में तख्तियां थी, जिनपर लिखा था "अपनी बच्चियों के सुनहरे भविष्य के लिए रिपब्लिकन उम्मीदवारों को वोट ना दें।"

अमेरिका में ही इस वर्ष के लगभग आरम्भ से चल रहे ब्लैक लाइव्स मैटर आन्दोलन में भी महिलायें और बालिकाएं बड़ी संख्या में हिस्सा ले रही हैं। अमेरिकी शहर पोर्टलैंड में, लगातार चल रहे आन्दोलनों के दौरान जब ट्रम्प से फ़ेडरल पुलिस को मिलिट्री की वर्दी में आन्दोलनकारियों का दमन करने के लिए भेजा, तब आन्दोलनकारियों के बचाने के लिए बुजुर्ग महिलाओं ने सबसे आगे खड़े रहकर एक मानव श्रृंखला बनाई थी, जिसे "वाल ऑन मॉम्स" का नाम दिया गया था। इस महिला मानव श्रृंखला के कारण पुलिस प्रदर्शनकारियों तक पहुँच ही नहीं पाती थी, और अंत में ट्रम्प को फ़ेडरल पुलिस बहाल करने का आदेश वापस लेना पड़ा।

अमेरिका से दूर यूरोप के बेलारूस में कुछ महिलाओं ने मिलकर राष्ट्रपति एलेग्जेंडर ल्युकाशेन्को के विरुद्ध ऐसा अभूतपूर्व आन्दोलन शुरू किया, जिससे आने वाले वर्षों में दुनिया भर में जनआन्दोलनों की दिशा बदल सकती है। अगस्त में राष्ट्रपति चुनावों के पहले से चल रहे ये आन्दोलन आज तक चल रहे हैं, जिसे वहां की सेना भी नियंत्रित नहीं कर सकी है और हालात यहाँ तक अनियंत्रित है कि राष्ट्रपति बार-बार रूस के राष्ट्रपति पुतिन से सहायता की गुहार लगा रहे हैं।

इतने बड़े जन-आन्दोलन बेलारूस के इतिहास में कभी नहीं किये गए। राष्ट्रपति एलेग्जेंडर ल्युकाशेन्को को यूरोप का अकेला तानाशाह कहा जाता है, जो हरेक चुनाव के पहले सभी विरोधियों को जेल में बंद कर देते हैं, नजरबन्द कर देते हैं या फिर चुनावों के लिए योग्य करार देते हैं।

जाहिर है, उनके विरुद्ध चुनावों में कोई खड़ा नहीं होना चाहता, ऐसे में अगस्त के चुनावों में एक महिला, स्वेतलाना सिखानौस्कोया ने उनके विरुद्ध चुनाव लड़ने की हिम्मत दिखाई थी। चुनावों में धांधली के कारण चुनावों में उसकी हार हुए, पर उसने आन्दोलनों की एक ऐसी मशाल जलाई, जिसमें राष्ट्रपति आज तक झुलस रहे हैं।

स्वेतलाना सिखानौस्कोया को बाद में अपनी जान बचाने के लिए देश छोड़ना पड़ा, पर उनकी सहयोगी मारिया कोलेस्निकोवा को जब देश छोड़ने को कहा गया, तब उन्होंने अधिकारियों के सामने ही अपना पासपोर्ट फाड़ डाला। इसके बाद उन्हें राजधानी मिन्स्क में ही नजरबन्द कर दिया गया. पर, तबतक जन-आन्दोलन इतना विशालकाय हो चुका था कि उसे किसी नेता की जरूरत नहीं रह गई थी।

महिलाओं द्वारा शुरू किये गए आन्दोलनों में प्रायः अधिक संख्या में लोग शामिल होते हैं, ऐसे आन्दोलन अहिंसक रहते हैं और अधिकतर मामलों में सफल भी रहते हैं महिलाओं द्वारा आन्दोलनों की शुरुआत का इतिहास पुराना है, और ऐसा लगातार होता रहा है हाल के वर्षों में अल्जीरिया, लेबनान, सूडान, अमेरिका, भारत, ब्राज़ील और इरान में ऐसे आन्दोलन किये जा चुके हैं।

हमारे देश में नागरिकता क़ानून के विरुद्ध दिल्ली के शाहीन बाग़ के आन्दोलन की चर्चा पूरी दुनिया में की गई, और प्रतिष्ठित पत्रिका टाइम ने वर्ष 2020 के दुनिया के सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों की सूची में बिलकिस दादी को भी शामिल कर इस आन्दोलन को अंतर्राष्ट्रीय सम्मान दिया। इस आन्दोलन का आरम्भ 15 दिसम्बर की ठिठुरती रात में लगभग 50 महिलाओं ने किया था।

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की प्रोफ़ेसर एरिका चेनोवेथ और जोए मार्क्स ने 2010 से 2014 के बीच दुनियाभर में किये गए बड़े आन्दोलनों का विस्तृत अध्ययन किया है। इनके अनुसार 70 प्रतिशत से अधिक अहिंसक आन्दोलनों की अगुवाई महिलाओं ने की है। इनके अनुसार महिलाओं की अगुवाई वाले आन्दोलन अपेक्षाकृत अधिक बड़े और अधिकतर मामलों में सफल रहे हैं। महिलाओं के आन्दोलन अधिक सार्थक और समाज के हरेक तबके को जोड़ने वाले रहते हैं, इनकी मांगें भी स्पष्ट होती हैं। महिलायें आन्दोलनों के नए तरीके अपनाने से भी नहीं हिचकतीं।


शाहीन बाग का उदाहरण भी लें तो वहां कभी भी आन्दोलन तय दायरे के बाहर नहीं गया, महिलायें शान्ति से बिना नारेबाजी के बैठती थीं, संविधान की प्रस्तावना पढ़ती थीं, राजनैतिक दलों से दूर थीं. ऐसा आन्दोलन देश के इतिहास में दूसरा नहीं है। इसी तरह बेलारुस में आन्दोलनकारी महिलायें एक रंग के कपडे पहनकर रैलियों में निकलती हैं, पुलिसवालों को फूल देतीं हैं, और यदि पुलिस पर आन्दोलनकारी हावी होते हैं तो पुलिसवालों को बचाती भी हैं। इनके नए तरीकों के आगे पुलिस भी अहिंसक हो जाती है।

थाईलैंड में राजशाही के विरुद्ध और प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग को लेकर लगातार प्रदर्शन किये जा रहे हैं। थाईलैंड के राजा, राजशाही की संपत्ति जो अब तक चैरिटी के नाम है, अपने नाम करना चाहते हैं, और फ़ौज पर पूरा नियंत्रण चाहते हैं। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री एक निरंकुश शासक हैं। सेना और पुलिस के बार-बार चेतावनी के बाद भी ये आन्दोलन थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। इन आन्दोलनों में भी महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से अधिक है।

मेक्सिको की महिलायें अगस्त 2019 से लगातार आन्दोलन कर रही हैं। यह आन्दोलन महिलाओं की हत्या, बलात्कार या फिर महिलाओं को गायब किये जाने के विरुद्ध है। अगस्त 2019 में एक पुलिस ऑफिसर ने एक महिला से बलात्कार किया था, और सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया। इसके बाद से लगातार आन्दोलन किये जा रहे हैं। मार्च 2020 में महिलाओं ने देशव्यापी हड़ताल किया था, इसमें नौकरीपेशा महिलाओं ने भी हिस्सा लिया था।

इस वर्ष 15 सितम्बर को, मेक्सिको के स्वतंत्रता दिवस के दिन, महिलाओं ने सेंट्रल ह्यूमन राइट्स कमीशन के कार्यालय को अपने अधिकार में लिए था, जिसे पीड़ित महिलाओं के आश्रय स्थल में बदल दिया।

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की प्रोफ़ेसर एरिका चेनोवेथ और जोए मार्क्स के अनुसार पुलिस या सरकारें महिला आन्दोलनों का दमन केवल महिलाओं के कारण नहीं करतीं बल्कि महिलाओं के आन्दोलन के नए तरीके और अहिंसा से वे भी अचंभित रहते हैं...

आन्दोलनों के इतिहास में 1980 के दशक तक हिंसक आन्दोलनों का जोर रहा, पर इसके बाद एकाएक आन्दोलनों में महात्मा गांधी के अहिंसक, सविनय अवज्ञा और असहयोग आन्दोलनों के तरीके शामिल हो गए। ऐसा दुनिया भर में किया जा रहा है, और भारत में भले ही महात्मा गांधी को भुला दिया गया हो पर वैश्विक स्तर पर आज के आन्दोलन उन्हीं की राह पर किये जा रहे हैं।

अहिंसा का समावेश होते ही महिलाओं की संख्या आन्दोलनों में बढ़ने लगी और अब तो वे दुनिया भर में आन्दोलनों का नेतृत्व कर रही हैं

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