दिल्ली दंगों में पुलिस की भूमिका उठा देगी कानून से जनता का भरोसा
अब आंदोलित किसानों को गुमराह से राष्ट्रद्रोही तक बताया जा रहा है, तब आंदोलित मुसलमानों को संबोधित करने के लिए भी ऐसे ही विशेषण इस्तेमाल होते थे। यानी, क्या पुलिस एक बार फिर राजनीति और कानून के दोराहे पर नजर आएगी....
पूर्व आईपीएस वीएन राय की टिप्पणी
समाज में यह आशंका आये दिन साक्षात दिख जायेगी कि पुलिस द्वारा कानून का तिरस्कार कहीं नागरिकों द्वारा पुलिस के तिरस्कार में न बदल जाए। लोकतांत्रिक आंदोलन से एक विभाजक शासन का आमना-सामना होने पर पुलिस के लिए इस कसौटी पर खरा उतरने की चुनौती और भी बढ़ जाती है। उसे अपने पेशेवर आचरण के मीन-मेख के साथ-साथ सत्ता पक्ष के राजनीतिक दबाव की छानबीन से भी गुजरना होता है। मसलन, तमाम जानकार हलकों में दिल्ली दंगे के पुलिस निष्कर्षों को कानून को सिर के बल खड़ा करने जैसा बताया जा रहा है। राजनीतिक पुलिसिंग का ऐसा बेशर्म आयाम बेशक इस व्यापक पैमाने पर रोज न भी दिखे, लेकिन इसमें नया कुछ नहीं।
आम नागरिक प्रायः कानून का पालन करना चाहेगा। इसके लिए कानूनों का सहज और स्पष्ट होना सभी के लिए फायदेमंद है। पुलिसवालों ने, जिनके कंधों पर कानून-व्यवस्था को लागू कराने का भार होता है, कानून पढ़ा होता है, आम नागरिक ने नहीं। इसलिए, पुलिस पर आयद है कि कानून पालना की कवायद को यथासंभव एक सार और सुगम रखा जाए, जिससे लोगों के मन में किसी भ्रान्ति की गुंजाइश न रहे। यह समीकरण वैसे ही है जैसे किसी चौक पर यदि लालबत्ती के जलने-बुझने के सामान्य क्रम में गड़बड़ी आ जाए तो वहां यातायात में अफरा-तफरी मच जाना स्वाभाविक है।
वड़ोदरा, गुजरात में 29 वर्षीय ड्राइवर शैलेश वनकर 15 सितंबर रात काम के बाद हर रोज की तरह मोटर साइकिल से वापस अपने गाँव जा रहे थे। अँधेरे में उनकी मोटर साइकिल सड़क के बीच सो रही गाय से टकरा गयी और इस दुर्घटना में आयी गंभीर चोटों से उनकी अस्पताल में मृत्यु हो गयी। वह चार भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। लेकिन अगले दिन पुलिस ने उन्हीं के खिलाफ लापरवाही से ड्राइविंग का मुक़दमा दर्ज कर दिया, जबकि गुजरात पुलिस एक्ट की धारा 90 ए के मुताबिक पशु को इस तरह सड़क पर छोड़ना अपराध है। वड़ोदरा म्युनिसिपल कारपोरेशन के स्वास्थ्य अधिकारी आवारा छोड़े गए पशु मालिकों के विरुद्ध मुकदमे दर्ज भी कराते आये हैं। तब फिर पुलिस ने शैलेश के मामले में उलटी गंगा क्यों बहायी? क्या इससे कानून की पालना को लेकर नागरिकों के मन में असमंजस की स्थिति नहीं बनेगी?
जाहिर है, उपरोक्त वड़ोदरा प्रसंग में स्थानीय पुलिस किसी न किसी तरह के दबाव में काम कर रही होगी। लेकिन कानून लागू करने वाली एजेंसी के लिए यह आदर्श स्थिति नहीं कही जायेगी। ऐसे ही रोजमर्रा के उदाहरणों से बाद में पुलिस के नागरिकों से टकराव के रास्ते निकलते हैं न कि उनसे सहयोग मिल पाने के। पुलिस के लिए कानून का मखौल उड़ाना अंततः स्वयं अपना मखौल उड़ाना ही बन जाता है।
क्या आज किसान आंदोलनकर्ताओं के ख़िलाफ़ भी शासन की ओर से वैसे ही तिरस्कारयुक्त तर्क नहीं दिए जा रहे हैं जैसे गुजरी सर्दियों में नागरिकता संशोधन कानून आंदोलन में शामिल लोगों के ख़िलाफ़ हुआ करते थे? अब आंदोलित किसानों को गुमराह से राष्ट्रद्रोही तक बताया जा रहा है, तब आंदोलित मुसलमानों को संबोधित करने के लिए भी ऐसे ही विशेषण इस्तेमाल होते थे। यानी, क्या पुलिस एक बार फिर राजनीति और कानून के दोराहे पर नजर आएगी?
फ़िलहाल चल रहे किसान आंदोलन में सड़कें भी रोकी गयी हैं और छिटपुट हिंसा भी हुई है। इस पहलू पर मोदी राज के पक्ष में सर्वाधिक वोकल रही फिल्म स्टार कंगना राणावत का बयान दिल्ली पुलिस को नंगा करने जैसा ही समझिए। जिस कदर सतही और लोकतंत्र विरोधी कंगना का बयान है, उसी टक्कर का राजनैतिक धक्केशाही वाला आचरण दिल्ली दंगों के दौरान और संबंधित केसों के इन्वेस्टीगेशन में दिल्ली पुलिस का भी रहा है।
कंगना के मुताबिक़ जो भी मोदी सरकार द्वारा पारित 3 किसान ऐक्ट का मुखर विरोध कर रहा है, वह आतंकवादी हुआ और उसका UAPA में चालान किया जाना चाहिए। यानी, कहीं यदि आंदोलन में कोई हिंसा हो जाए तो राजनीतिक विरोधियों को भी षड्यंत्रकारी बनाकर बाँध दो! दिल्ली पुलिस ने भी फ़रवरी दंगों के मामलों में यही तो किया जब हिंसक दंगाइयों पर कार्रवाई से इतर उसने सीएए-एनआरसी का मुखर विरोध करते आ रहे तमाम ऐक्टिविस्ट को भी षड्यंत्र की झूठी कहानी गढ़ कर दंगों से नत्थी कर दिया।
ऐसा भी नहीं है कि कंगना राणावत के कहे ने किसी बहुत बड़े रहस्य से पर्दा उठाया हो। अमित शाह निर्देशित पुलिस के राजनीतिक इस्तेमाल का यह शैतानी आयाम जाहिर तो था ही और इसे लेकर तमाम जागरूक नागरिकों, समाजकर्मियों, कानूनविदों ही नहीं स्वयं वरिष्ठ पुलिसकर्मियों के बीच भी दिल्ली पुलिस की कड़ी आलोचना चलती रही है। लेकिन बिहार चुनाव के सुशांत सिंह राजपूत अध्याय में भाजपा रणनीति का मुखौटा बनकर उभरी कंगना राणावत के वोकल होने ने पुलिस के राजनीतिक इस्तेमाल के उसके मंसूबे चौड़े में जगजाहिर कर दिए।
मोदी सरकार ने लोकसभा में माना है कि लॉकडाउन में मार्च से जून के बीच एक करोड़ से ऊपर श्रमिक अपने घरों को लौटे। इसके चलते 80 हज़ार से ऊपर दुर्घटना हुईं, जिनमें 29 हज़ार से अधिक लोगों ने जान गँवायी। वस्तुतः यह ऐतिहासिक त्रासदी लॉकडाउन और सरकारी हठधर्मिता की विफलता का ही ढिंढोरा थी। यानी, कानून को सिर के बल खड़ा करने से उस दौर में भी कुछ हासिल नहीं हुआ था।
भाजपा की संकीर्ण राजनीति को पोसने में पुलिस को झोंकने की महँगी कीमत पूरे देश को चुकानी पड़ेगी। फ़रवरी के दिल्ली दंगों ने एक अल्पसंख्यक लोकतांत्रिक आंदोलन के राजनीतिक दमन के दूरगामी परिणामों की ओर चेताया था, अब किसान और श्रमिक वर्गों के आंदोलित होने की बारी है। देर-सवेर इनके निहितार्थ भी हमारे सामने आएँगे।