इस देश में है 'Rat Children' की कुप्रथा, बचपन में ही ऐसे दिया जाता है इंसानी बच्चे को चूहे का रूप, फिर कराया जाता है ये घिनौना काम

Rat Children : रैट चाइल्ड के रूप में कहे जाने वाले इन बच्चों में असामान्य रूप से छोटा सिर, गोल जबड़े और विकृत माथा होता है। पाकिस्तान के इस्लामिक गणराज्य के गुजरात शहर में ये बच्चे शाहदौला की दरगाह में शरण पाते हैं।

Update: 2021-11-01 08:28 GMT

(चूहे जैसे दिखने वाले इंसानी बच्चे को सड़क के किनारे या किसी धार्मिक स्थल के आसपास खड़ा कर दिया जाता है फिर उस पर होती है पैसों की बारिश।)

मोना सिंह की रिपोर्ट

Rat Children। पाकिस्तान (Pakistan) धार्मिक रूढ़ियों और क्रूरता से जकड़ा हुआ देश है जहां पर ज्यादातर लोग धर्म के नाम पर कुछ भी करने के लिए तैयार होते हैं। वैसे तो भारत में भी कई रूढ़िवादी मान्यताएं हैं लेकिन पाकिस्तान की इस कुप्रथा को जानेंगे तो दंग रह जाएंगे। क्योंकि ये मान्यता ना सिर्फ एक बच्चे की मासूमियत छिनती है बल्कि इसे लगातार बढ़ाया भी जा रहा है।

ये कुप्रथा है रैट चिल्ड्रेन (Rat Children) यानी चूहे के बच्चे की। लेकिन यहां किसी असली चूहे नहीं बल्कि इंसान के बच्चे को चूहे का रूप दिया जाता है। फिर चूहे जैसे दिखने वाले इंसानी बच्चे को सड़क के किनारे या किसी धार्मिक स्थल (Religious Place) के आसपास खड़ा कर दिया जाता है फिर उस पर होती है पैसों की बारिश। क्योंकि ये मान्यता है कि रैट चिल्ड्रेन को बिना कुछ दिए आगे बढ़ गए तो फिर वो सबसे बड़ा अपशकुन है और तरक्की भी रूक जाती है।

क्या है ये प्रथा?

छोटी सी झुकी हुई खोपड़ी, विकृत माथा और चूहे जैसी शक्ल और हरी पोशाक। ये एक पहचान है रैट चिल्ड्रेन की। ऐसे काफी संख्या में बच्चे या वयस्क पाकिस्तान की सड़कों या किसी धार्मिक स्थल पर आमतौर पर देखे जा सकते हैं। इन्हें चूहे के बच्चे या चूहास या फिर रैट चिल्ड्रेन के नाम से भी जाना जाता है।

इन्हें लेकर ये अंधविश्वास है कि अगर उन्हें पैसे देने से कोई मना करेगा, तो उस पर दुर्भाग्य का बोझ पड़ेगा, या उसके खुद के परिवार में बच्चे उन्हीं विकृतियों के साथ जन्म लेंगे। इन्हें शाहदौला के चूहे का भी नाम दिया गया है।


कैसे बनते हैं शाहदौला के रैट चाइल्ड?

यह बच्चे माइक्रोसेफली एक दुर्लभ तंत्रिका संबंधी विकार या बीमारी से पीड़ित होते हैं। रैट चाइल्ड के रूप में कहे जाने वाले इन बच्चों में असामान्य रूप से छोटा सिर, गोल जबड़े और विकृत माथा होता है। पाकिस्तान के इस्लामिक गणराज्य के गुजरात शहर में ये बच्चे शाहदौला की दरगाह में शरण पाते हैं। कथित तौर पर देश भर से ऐसे लोग, जो संतान सुख से वंचित होते हैं, या बांझपन के शिकार होते हैं, वो बच्चा होने की उम्मीद में शाहदौला की दरगाह पर दुआ मांगने आते हैं। यहां दूर-दूर से लोग बीमार बच्चों को लेकर उनके स्वास्थ्य की दुआ मांगने भी आते हैं। शाह दौला की दरगाह को बांझपन दूर करने का अचूक उपाय माना जाता है।

जादुई फर्टिलिटी और बाल शोषण

शाहदौला की दरगाह 1800 के दशक में बनी थी। शाहदौला, भारतीय उपमहाद्वीप के औरंगजेब काल के एक सूफी संत थे। उन्हें बच्चों से विशेष लगाव था। खासकर उन बच्चों से जो शारीरिक और मानसिक असमानताओं से जूझ रहे थे, और समाज ने भी उन्हें दरकिनार कर दिया था। ऐसे बच्चों को माता-पिता ने भी छोड़ दिया था। सूफी संत शाहदौला ऐसे बच्चों की देखभाल किया करते थे।

मानसिक रूप से कमजोर बच्चों को विशेष और खास पहचान देने के लिए वो उन्हें सजावटी मुकुट जैसा हेलमेट पहनाते थे। संत इन बच्चों को विशेष क्षमता वाला इंसान मानते थे। इसलिए वे ऐसा कदम उठाते थे। ये बच्चे अपना गुजारा करने के लिए भीख मांगा करते थे।

लेकिन, इसमें बड़ा परिवर्तन और विसंगतियां तब सामने आईं जब उस संत की मौत हो गई है। उनकी मौत के बाद इस प्रथा को सही ठहराने और अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए लोग मनगढंत कहानियां कहने लगे। इन्हें दिव्य प्राणियों के रूप में पूजा जाने लगा और इनका शोषण भी किया जाने लगा। ऐसा कहा जाता है कि संत शाहदौला निसंतान दंपतियों को संतान होने का आशीर्वाद देते थे, लेकिन एक शर्त के साथ। वो शर्त ये होती थी कि दंपति अपनी पहली संतान उनकी सेवा में दान कर देंगे।

हताश और निराश निसंतान दंपति संतान के लिए ऐसी शर्त स्वीकार कर लेते थे। और अपनी पहली संतान दरगाह पर दान कर देते थे। संत शाह दौला की मृत्यु के सैकड़ों वर्ष बाद आज भी निसंतान दंपति दरगाह पर आते हैं, और संतान के लिए दुआ करते हैं ।

यह प्रथा अभी भी चल रही है। लोग अभी भी अपने पहले बच्चे को दरगाह पर छोड़ जाते हैं चाहे वो माइक्रोसेफली बीमारी से पीड़ित हो या ना हो। लोगों का मानना है कि ऐसा नहीं करने से बाद में पैदा होने वाले बच्चे विकृतियों के साथ पैदा होंगे। हालांकि, दरगाह पर छोड़े गए सभी बच्चे मानसिक और शारीरिक असामान्यताओं के साथ बड़े होते हैं। उनकी विकृति के बारे में अभी भी विवाद है

क्या होती है नॉर्मल माइक्रोसेफली

कुछ लोगों का कहना है कि यह आनुवांशिकी बीमारी है। ये भी कहा जाता है कि मुस्लिम गणराज्य में प्रचलित इनब्रीडिंग (ममेरे, चचेरे, मौसेरे, भाई बहन के आपसी विवाह संबंध ) की वजह से भी ऐसा हो सकता है। इसके अलावा, माइक्रोसेफली का एक और कारण जीका वायरस है। गर्भावस्था के समय जीका वायरस के संक्रमण से भी माइक्रो सेफेलिक बच्चे पैदा होते हैं।



आर्टिफिशियल माइक्रोसेफली

ये भी मानना है कि दरगाह प्रशासन इन छोड़े गए बच्चों के सिर पर लोहे की भारी टोपी ( चेहरे को ढकने वाला मास्क) लगा देते हैं। जो उनकी खोपड़ी और मस्तिष्क के विकास को रोक देती है। नतीजतन, ये बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग हो जाते हैं, और इनका सिर और चेहरा चूहे जैसा दिखने लगता है। इसलिए इन्हें रैट चाइल्ड कहते हैं। जब ये बच्चे चूहे जैसा दिखने लगते हैं तो इन्हें भीख मांगने के लिए देश के सभी हिस्सों में भेज दिया जाता है। इनको अनदेखा करने का मतलब ये माना जाता है कि उसने कयामत को बुलावा भेजा है। इसलिए इन्हें अच्छी खासी भीख मिलती है।

अब भिखारी माफिया चला रहे रैट चिल्ड्रेन रैकेट

अब पाकिस्तान में भिखारी माफिया रैट चिल्ड्रेन का रैकेट चला रहे हैं। भिखारी माफिया इन्हें मासिक अनुबंध के आधार पर भी काम पर रखते हैं। और अनुबंध समाप्त होने पर वापस इन्हें धार्मिक स्थल के प्रशासन को सौंप देता है। ऐसे बच्चे और युवा भीख मांग कर अपना जीवन व्यतीत करते हैं। ये अपने माता-पिता से कभी नहीं मिलते, इनका अपना कोई परिवार नहीं होता। मानसिक कमजोरी की वजह से यह दूसरों पर निर्भर होने के लिए बाध्य हैं।

दरगाह प्रशासन इन बच्चों का कभी इलाज नहीं कराता है। इसलिए चिकित्सा की कमी, विकलांग बच्चों की देखभाल करने वाली संस्थाओं की कमी ने ऐसे बच्चों को शाह दौला की दरगाह के दुख के जीवन में फंसा दिया है। हालांकि, शाहदौला के वंशज कहते हैं कि वे पिछले 5-6 दशक से भी ज्यादा वक्त से दरगाह से नहीं जुड़े हैं। वहां बच्चों के साथ अमानवीय घटना के लिए मना किया गया है। लेकिन कुछ लोग मिलकर अभी ऐसा कर रहे हैं जिससे उनका कोई लेना-देना नहीं है।

पाकिस्तानी और अंतरराष्ट्रीय कानून पाकिस्तानी

पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र का एक सदस्य राष्ट्र है और बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन 1990 (यूएनसीआरसी) की धारा 23 और 37 के तहत परंपरा की आड़ में बाल शोषण रोक सकता है। परंतु इस दिशा में कोई प्रयास नहीं किया गया है। शाह दौला की दरगाह पर बच्चे के जन्म के पहले या दूसरे दिन उसे छोड़ दिया जाता है। कृत्रिम माइक्रोसेफली का व्यवसाय आज बांझ महिलाओं को बच्चे का जन्म कराने के बहाने बेरोकटोक चल रहा है। मानव अधिकारों का दुरुपयोग, सरकारी निकायों की मिलीभगत, इस्लामिक विचारधारा के बारे में जनता में जागरूकता की कमी इन विशेष जरूरतों वाले बच्चों को नारकीय जीवन जीने को मजबूर करते हैं। इन बच्चों का मानसिक और शारीरिक शोषण किया जाता है।


यहां दरगाह में दिए गए दान से 700 अमेरिकी डॉलर की वार्षिक आय होती है। इसे सरकार के विशेष विभाग द्वारा, जो की दरगाह की देखरेख करता है, एकत्र किया जाता है। यह विभाग सुनिश्चित करता है कि इन रैट चाइल्ड के साथ कोई दुर्व्यवहार ना हो। शाहदौला के वर्तमान वंशज पीर सैयद नासिर महमूद गिलानी के अनुसार कुछ लोग संत के नाम पर इन विकलांग युवाओं का इस्तेमाल पैसे मांगने के लिए कर रहे हैं। दरगाह में बच्चा छोड़ने की प्रथा लगभग 50 से 60 वर्ष पहले ही बंद हो गई है। अब दरगाह प्रशासन लोगों को बच्चा छोड़ने के लिए मना करता है।

परंतु कुछ विशेष गिरोह इस दिशा में अभी भी सक्रिय हैं और जब उन्हें पता चलता है कि किसी परिवार में ऐसे बच्चे का जन्म हुआ है, तो ये गिरोह उन्हें यह कहते हुए ले लेता है कि ये बच्चा दरगाह का है। इस तरह से ये बच्चे इस दुष्चक्र में फंस जाते हैं और उनका जीवन दुखमय बन जाता है।

पाकिस्तान में विशेष जरूरतों वाले बच्चों की देखभाल बहुत दयनीय है, नृशंस है। इन्हें एक बोझ के रूप में देखा जाता है। परिवार भी इन्हें बोझ के रूप में देखता है और इनसे छुटकारा पाना चाहता है। एनजीओ क्षेत्र अभी भी विकास की प्रक्रिया में है। देश सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों से अभी भी जूझ रहा है। ये विशेष जरूरतों वाले बच्चे भी सम्मान और प्यार भरा जीवन जीने के हकदार हैं। समाज को इन्हें अपनाने के जागरूक होना होगा। सम्मान से जीवन जीने के लिए इन्हें काम सिखाए जाने की जरूरत है। इस दिशा में समाज, सरकार और एनजीओ सभी को मिलकर काम करने की आवश्यक्ता है तभी ये बच्चे शाहदौला के चूहे यानी रैट चिल्ड्रेन कहलाने के बजाय अपना जीवन सम्मान से जी सकेंगे।

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