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विमर्श

क्या अमेरिका से अपने सबसे ताकतवर मिलिट्री जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या का बदला लेगा ईरान ?

Nirmal kant
4 Jan 2020 5:13 PM IST
क्या अमेरिका से अपने सबसे ताकतवर मिलिट्री जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या का बदला लेगा ईरान ?
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ईरान के साथ गैस पाइपलाइन का मसौदा हो, कच्चे तेल का सौदा हो या चाबहार पोर्ट को विकसित करने की बात हो, हर जगह ईरान और भारत के हित जुड़े हुए हैं। यदि ईरान से हमारा हित इतना न भी जुड़ा हुआ हो तब भी ईरान का अस्थिर होना भारत के लिए घाटे का सौदा है...

अबरार खान की टिप्पणी

रान के रिवॉल्यूशनरी गार्ड की यूनिट क़ुद्स को कमांड करने वाले जनरल कासिम सुलेमानी की बगदाद में घात लगाए बैठी अमेरिकी एयर फोर्स ने हत्या कर दी। जनरल कासिम की इस हत्या से भारत के एक बड़े तबके में खुशी का माहौल बन गया है। जनरल कासिम की हत्या पर खुश होने वाले कौन हैं, उनकी ख़ुशी का क्या कारण है, अमेरिका-ईरान की इस ताजा रस्साकसी के क्या परिणाम होंगे, भारत पर इसके क्या असर होंगे, इसपर बात करने से पहले हम जान लेते हैं कि ईरान रिवॉल्युशनरी गार्ड है क्या ?

जिस तरह हर देश की अपनी पेशेवर आर्मी होती है उसी तरह ईरान की भी अपनी आर्मी है लेकिन उसके समानांतर ही ईरान का एक और सैन्य संगठन है जिसे रिवॉल्यूशनरी गार्ड कहते हैं। ईरान की रिवॉल्यूशनरी गार्ड हमारी सीआरपीएफ, बीएसफ या एनएसजी जैसी बिलकुल नहीं है बल्कि यह ईरान के भीतर बहुत बड़ी शक्ति है और इसकी जिम्मेदारियां भी बहुत बड़ी हैं। ईरान की इस फोर्स के सदस्य हर लिहाज से परफेक्ट और फिट होते हैं और उसी लिहाज से ट्रेंड होते हैं। ईरान की आम सेना से परे रिवॉल्यूशनरी गार्ड की अहमियत का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि इस फोर्स की अपनी अलग नेवी, अलग ऐयर फोर्स और अपना-अलग इंटेलीजेंस है।

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रिवॉल्यूशनरी गॉर्ड की अपनी भी ग्राउंड फोर्स, जॉइन्ट स्टॉफ, एयर फोर्स, नेवी, क़ुद्स फोर्स, बासिद मोब्लाइजेशन फोर्स जैसी कई शाखाएं हैं। कासिम सुलेमानी क़ुद्स फोर्स को लीड करते थे, कुद्स फोर्स विदेश मामलों जिसमें सीआईए, मोसाद के हमलों, उनकी चालों और संगठनों को नाकाम करना, रशिया, टर्की, सीरिया, चीन के साथ समन्वय बनाकर नए मोर्चे खोलना या हिज्बुल्ला, हमास जैसे संगठनों के जरिए अपने हित साधना आदि मुख्य कार्य थे। कासिम सुलेमानी भले ही रिवॉल्युशनरी गार्ड के अंतर्गत आने वाली क़ुद्स फोर्स के मुखिया थे पर उनका व्यक्तित्व इतना बड़ा था कि वे रिवॉल्युशनरी गार्ड के चीफ हुसैन सलामी को रिपोर्ट न करके सीधे अयातुल्लाह खुमैनी को रिपोर्ट करते थे। यूं भी कह सकते हैं कि कासिम का कद रिवॉल्यूशनरी गार्ड से भी बड़ा था वे अयातुल्ला खुमैनी के बाद दूसरे नंबर पर थे।

मेरिका तथा सीआईए ने 1953-54 में तब के प्रधानमंत्री मोहम्मद मुसद्दिक का तख्तापलट करवा दिया था। उसके बाद अमेरिका परस्त एक कठपुतली सत्ता ईरान में कार्य कर रही थी। इसके सालों बाद 1979 में रिवॉल्यूशन हुआ और अमेरिकी कठपुतली रज़ा पहलवी को सत्ता छोड़नी पड़ी। तत्पश्चात अयातुल्लाह खुमैनी सत्ता में आए। उसी के बाद बाहरी सुरक्षा के लिये रिवॉल्यूशनरी गार्ड का गठन हुआ। अगर कासिम सुलेमानी सिर्फ सेना के जनरल भर होते या क़ुद्स के मुखिया भर होते तब इतनी बाड़ी बात नहीं थी, क्योंकि कासिम न सिर्फ क़ुद्स के चीफ थे बल्कि अपने आप में पूरा विदेश मंत्रालय भी थे। यह एक तरफ जहां कुद्स के जरिय एक्शन प्लान करते थे वहीं दूसरी तरफ एक बेहतरीन राजनेता एवं राजदूत की तरह अन्य देशों के साथ रिश्ते बनाने एवं सुधारने का भी कार्य करते थे।

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स तरह देखा जाए तो अमेरिका ने ईरान पर बहुत बड़ा हमला किया है। बहुत बड़ा नुकसान पहुंचाया है इसीलिए दुनिया डरी हुई है कि ईरान इसका बदला जरूर लेगा। ईरान का ये बदला दुनिया को तीसरे विश्व युद्ध में धकेल देगा। जब ईरान रिवॉल्यूशन में अमेरिका को मुंह की खानी पड़ी। उसके कठपुतली रजा पहलवी को सत्ता गवानी पड़ी, तब ईरान से निपटने के लिए अमेरिका ने ईराक में सद्दाम की सुन्नी-सेक्युलर सत्ता को शह दी। फिर जब सद्दाम ताकतवर होने लगे आसपास के देशों को इजराइल और अमेरिकी चौधराहट के खिलाफ कंसोलिडेट करने लगे तब सद्दाम से निपटने के लिए अमेरिका ने लिए शिया नेता मुक्तदा अल सद्र को पनाह दी।

मुक्तदा अल सद्र सीधे तौर पर रिवॉल्यूशनरी गार्ड और कासिम सुलेमानी से निर्देश लेते थे। जब सद्दाम का काम तमाम हो गया और ईराक में शिया ग्रुप तथा ईरान रिवॉल्यूशनरी गार्ड का दखल बढ़ने लगा उससे निपटने के लिए अमेरिका ने आईसिस (ISIS) को खड़ा किया। जब आईसिस का प्रकोप सीरिया तक फैला तो उसके सफाये के लिए रूस मैदान में आया और जब लगने लगा कि आईसिस का खात्मा तय है तब अमेरिका ने ईराक में सक्रिय इन्हीं कासिम सुलेमानी के साथ अघोषित समझौता किया था जिसे अब ठिकाने लगा दिया है। विश्व राजनीति उतनी आसान नहीं है जितनी आसान हमें मीडिया एंकर बताते हैं कि फलां आतंकी ग्रुप पर अमेरिका ने हमला किया वगैरा-वगैरा। अमेरिका और नाटो जब चाहें एक आतंकवादी गुट खड़ा करते हैं और जब चाहे उस पर हमला करके अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं।

ईरान रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स को अमेरिका ने 'आतंकी सूची' में डाला था..

कासिम सुलेमानी पर हमला बिना सोचे समझे अचानक नहीं हो गया है। लगभग साल भर पहले अमेरिका ने रिवॉल्यूशनरी गार्ड को आतंकवादी संगठनों की सूची में डाल दिया था। विश्व इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ जब किसी देश ने किसी दूसरे देश की किसी सरकारी तथा सैन्य संस्था को आतंकवाद की सूची में डाला था। अमेरिका की नीतियों के अनुसार किसी देश पर हमला करने के लिए सीनेट की मंजूरी लेना जरूरी होता है, मगर किसी आतंकवादी व्यक्ति या संगठन पर हमला करने के लिए संसद की मंजूरी जरूरी नहीं होती। इसी का फायदा ट्रंप प्रशासन ने उठाया और उसने सीधे कासिम सुलेमानी को मार गिराया। क्योंकि अमेरिका के मुताबिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड और कासिम सुलेमानी आतंकवादी थे। जहां अमेरिका के मुताबिक कासिम सुलेमानी एक आतंकवादी थे वहीं ईरान और ईरान की जनता के लिए कासिम सुलेमानी उनके हीरो थे।

ब बात करते हैं कि वह कौन लोग हैं जो अमेरिका द्वारा की गई इस हत्या पर खुश हैं या उसका समर्थन करते हैं। पहले तो वह लोग हैं जो अरबी या उर्दू नामधारी किसी की भी मौत पर खुशी मनाना अपना धार्मिक कर्तव्य समझते हैं। दूसरे वह लोग हैं जो अपने आप को पक्का मुसलमान कहते हैं। जन्नत का हकदार कहते हैं। यानी कि कट्टरपंथी सुन्नी जिनकी नजर में कासिम सुलेमानी सिर्फ शिया थे, जो सुन्नी मुसलमान कासिम सुलेमानी की मौत पर खुश हैं। उनकी जानकारी के लिए बता दूं कि यह वही कासिम सुलेमानी है जिसने मरने के बाद भी मिडिल ईस्ट में अमेरिका के लिए जमीन नहीं छोड़ी है, अमेरिका वहां से आज निकले या दो चार साल बाद निकले, उसका जाना तय है और जो संघी सिर्फ उर्दू अरबी नाम के वजह से खुश हैं उन्हें बता दूँ कि हमारा हित जितना ईरान से जुड़ा है उतना अमेरिका से नहीं है। ईरान ने भारत के साथ जिस तरह दोस्ती निभाई है चाहे वह कश्मीर का मुद्दा हो या विश्व स्तर पर कहीं भी भारत का समर्थन हो, उतना किसी अन्य देश में नहीं किया है।

ईरान का अस्थिर होना भारत के लिए घाटे का सौदा

रान के साथ गैस पाइपलाइन का मसौदा हो। कच्चे तेल का सौदा हो या चाबहार पोर्ट को विकसित करने की बात हो। हर जगह ईरान और भारत के हित जुड़े हुए हैं। यदि ईरान से हमारा हित इतना न भी जुड़ा हुआ हो तब भी ईरान का अस्थिर होना भारत के लिए घाटे का सौदा है। हालांकि अमेरिकी दबाव में हम ईरान से बहुत दूर जा चुके हैं। हमारी इस दूरी का़ फायदा चीन ने भरपूर उठाया। अमेरिकी दबाव में हमने ईरान से तेल लेना बंद कर दिया तो चीन ने तेल का आयात बढ़ा दिया। चीन और ईरान के बीच अगले कुछ सालों में लगभग 24 बिलियन डॉलर के निवेश का करार हुआ है। ईरान या कासिम पर हुए हमले पर खुश होना मूर्खता के सिवाय कुछ नहीं है।

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स हमले के बाद जहां सारी दुनिया के सेंसेक्स में भारी गिरावट आई। तेल के दामों में उछाल आया। सोने के दाम आसमान छूने लगे। उससे इस बात का अंदाजा लगाना आसान है कि यह संकट कितना बड़ा है। हालांकि ईरान के साथ रूस और चीन के जिस तरह के संबंध है उनके जितने हित ईरान से जुड़े हुए हैं। उसे देखते हुए ईरान को किसी भी तरह जंग में जाने से रोकने की पूरी कोशिश करेंगे। मगर यह भी तय है कि जंग हो या ना हो लेकिन मिडिल ईस्ट का अस्त-व्यस्त होना, तेल की कीमतों का बढ़ना जारी रहेगा जिसका भारी खामियाजा भारत की डूबती अर्थव्यवस्था को चुकाना पड़ेगा।

अमेरिकी दबाव में ईरान के प्रति भारत का कमजोर रूख

रान के परिपेक्ष में भारत ने अमेरिकी दबाव में बेहद कमजोर रुख अख्तियार किया है। जहां अमेरिकी दबाव में हमने ईरान से कच्चे तेल की खरीद रोक दी वहीं दूसरी तरफ चाबहार इंटरनेशनल पोर्ट को विकसित करने के लिए किया गया हमारा अरबों रुपए का निवेश भी अधर में लटक जाने दिया। भारत की स्थिति का अंदाज़ा इसी बात से लगा लीजिए कि जब अमेरिका ने ईरान पर प्रतिबंध लगाया तो मौखिक रूप से भारत को आश्वसन दिया था कि वह चाबहार पोर्ट के लिए जरूरी उपकरणों की खरीद-फरोख्त कर सकता है।

चाबहार पोर्ट

बावजूद इसके भारत पोर्ट से जुड़ी सामाग्री की खरीद नहीं कर पाया, क्योंकि अमेरिका द्वारा दिए गए मौखिक आश्वासन को किसी देश ने स्वीकार नहीं किया और भारत को सामान नहीं दिया। अमेरिका से लिखित एनओसी लेने में भारत को दो साल लग गए। दो साल बाद राजनाथ सिंह जब अमेरिका से एनओसी लेकर आए तो फूले नहीं समा रहे थे। बहरहाल चाबहार पोर्ट प्रोजेक्ट अपने निर्धारित समय से दो साल पीछे चल रहा है, उम्मीद है इस एनओसी के बाद भारत चाबहार पोर्ट के लिए क्रेन आदि जैसे ज़रूरी उपकरणों की खरीद कर पायेगा।

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