पाकिस्तान में औरतों को न ज़िंदा रहते चैन मिलता है न मरने के बाद सुकून
चाहे कब्रगाह हो या जीवित दुनिया, पाकिस्तान की औरतों को सम्मानजनक और समानतापूर्ण जीवन जीने से उन लोगों द्वारा महरूम रखा जाता है जो ख़ुदा की मर्ज़ी को जानने का दंभ भरते हैं....
हिंदुस्तान और पाकिस्तान में अगर कहीं कोई मजबूत एकता है तो वह है जाहिलपने और अंधविश्वास की...औरतों के उत्पीड़न और अल्पसंख्यकों से बगैरत व्यवहार की....पढ़िये डॉन के कॉलमनिस्ट परवेज़ हूदभॉय का यह धारदार लेख
मेरे पड़ोस की मस्जिद में लगे लाउडीस्पीकर्स ने अभी-अभी एक मौत की घोषणा की है। मर गए व्यक्ति के परिचय के शब्द कभी नहीं बदलते : "हज़रात एक ज़रूरी एलान सुनिए। " मुझे 'हज़रात (महोदय)" शब्द कभी भी आश्चर्य में नहीं डालता, क्योंकि मैंने ज़िंदगी भर ऐसी ही घोषणाएं सुनी हैं। कोई भी महत्वपूर्ण घटना की जानकारी पुरुषों को ही (केवल पुरुषों को ही) दी जाती है। महिलाओं को इसलिए नहीं सम्बोधित किया जाता है कि ऐसा करने से उनकी शराफत पर आंच ना आ जाये। बाकी सबकुछ पिटी-पिटाई लीक पर ही चलता है।
अगर मरने वाला पुरुष होता तो मुझे उसका नाम ज़रूर पता लग गया होता, लेकिन मृतक एक महिला थी और हया का तकाज़ा था कि उसका नाम नहीं लिया जाये, हालाँकि उद्घोषणा के अंत में ये ज़रूर कहा गया कि मृतक किसी की पत्नी है। अगर वो विवाहित नहीं होती तो भी कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता। तब उसे किसी की बेटी या बहन बताया गया होता। माँ और बहनों का हमारे यहां कोई वजूद ही नहीं है।
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सामाजिक प्रतिष्ठा के क्रम में महिलाओं के स्थान को अगर देखना है तो मेरा सुझाव है कि आप किसी भी कब्रिस्तान में घूम आएं। आप ऐसी सैकड़ों क्या हज़ारों कब्रों से होते हुए गुज़रेंगे जो कोई ना कोई कहानी कहती हैं, ऐसी कहानियां जिन्हें भुला दिया गया है। कब्रिस्तान के उदासीन से माहौल में कब्र पर लगाया गया हर एक यादगारी पत्थर किसी न किसी व्यक्ति की अंतिम आरामगाह को दर्शाता है। इन कब्रों की शिलालेखों पर ऐसे लोगों का ज़िंदगीनामा लिखा हुआ है, जो अब दोबारा हरकत में नहीं आएंगे।
हालाँकि वे ज़मीन में 6 फुट नीचे दफ़ना दिए गए होते हैं, फिर भी मर्द मरने के बाद भी उसी नाम से पहचाने जाते हैं, जिस नाम से वे ज़िंदा रहते पुकारे जाते थे। देखा जाये तो सही मायनों में मर्द की पहचान पत्थर में जड़ दी जाती है, एक ऐसे पत्थर में जिसकी वहां बने रहने की उम्मीद की जाती है। कभी-कभी मरने वाले के नाम के साथ उसके वालिद का नाम ज़रूर लिख दिया जाता है, लेकिन माँ का नाम कभी नहीं लिखा जाता।
तो फिर मरने के बाद औरतों से कैसा सलूक़ किया जाता है? कब्र के कुछ पत्थरों में ज़रूर उनका नाम लिखा दिया जाता है, लेकिन ज़्यादातर में नहीं लिखा होता है। यह औरत के हाथ में नहीं होता है कि उसकी ज़िंदगी के सफ़र का अंत दर्ज़ किया जाये या नहीं। यह तय करने का अधिकार भी किसी मर्द या मर्दों के हाथ में है। ख़ुदा-ना-खास्ता अगर उसका नाम कब्र की शिलालेख पर अंकित हो भी जाता है तो भी उसे किसी की बीवी या अपने वालिद की बेटी के रूप में ही पहचान मिलती है।
सभी औरतें ना तो खुद को हाशिये पर ढकेल दिए जाने का मातम मनाती हैं और ना ही अपने शरीर पर खुद का नियंत्रण रहने के अधिकार को खो देने का विरोध करती हैं। इसके विपरीत, बहुत सी औरतें तो खुशी-खुशी इसे स्वीकार कर लेती हैं। लेकिन इनमें से लाल मस्जिद की हया ब्रिगेड की लड़ाकू औरतें तो समाज में अपने कमतर स्टेटस का जश्न मनाती हैं।
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हालिया 'औरत मार्च' के दौरान इस्लामाबाद प्रेस क्लब की उल्टी तरफ खड़े होकर मैंने ध्यान से उनकी तक़रीरों को सुना। उनकी नज़र में औरतों और मर्दों की भूमिकाएं अलग-अलग हैं, जो एक-दूसरे के अधिकार क्षेत्र में दखल नहीं देती हैं। जीवन के हर क्षेत्र में उन्होंने स्वेच्छा से खुद के लिए मर्दों से नीचे का दर्ज़ा स्वीकार किया है, फिर चाहे वो घूमने-फिरने की आज़ादी हो, मन पसंद पोशाक पहनने की आज़ादी हो, मिलने-जुलने की आज़ादी या फिर रोज़गार ढूंढ़ने की आज़ादी हो।
आज़ादी से फैसले लेने की ये कमी समाज के सभी तबकों में दिखाई देती है, लेकिन ग़रीब तबके में कुछ ज़्यादा ही है। पाकिस्तान की युवतियों में ज़्यादातर अपनी पसंद का जीवनसाथी नहीं चुन सकती हैं और अपने माता-पिता द्वारा किसी को भी ब्याह दी जाती हैं। तलाक़ और संतान की कस्टडी के मामलों में अक्सर न्यायालय मर्दों का ही पक्ष लेते हैं। यहाँ तक कि वैवाहिक बलात्कार की एक अपराध के रूप में मान्यता भी नहीं है। विरासत सम्बन्धी क़ानून और नौकरियों के अवसर औरतों के खिलाफ ही काम करते हैं। फिर भी हया ब्रिगेड और उनकी समर्थकों की नज़र में औरत की आज़ादी पर अंकुश लगाना स्वाभाविक भी है और ईश्वर प्रदत्त भी, इसीलिये स्वागत योग्य भी है।
जिन्हें आज़ादी का मोल पता है वे हया ब्रिगेड के नज़रिये को स्वीकार नहीं करते हैं, लेकिन दरअसल देखें तो ये काफी तार्किक है। ऐसे अनगिनत उदहारण हैं जहां लोगों ने अपनी सुरक्षा की खातिर अपनी आज़ादी से समझौता कर लिया। ख़ासकर ऐसे कई उदाहरण हैं जहां जेल से छूटे क़ैदियों ने वापस जेल में ही रखे जाने का अनुरोध किया है।
दूसरा उदाहरण अमेरिका के उन अश्वेत ग़ुलामों का है, जिन्होंने अमेरिका में दास-प्रथा ग़ैर-क़ानूनी घोषित किये जाने के बाद अपने श्वेत मालिकों से गुहार लगाई थी कि वे उन्हें अपने बाग़ानों में पहले की तरह काम करते रहने दें। अगर जेलखाने के दरोगा और ग़ुलामों के मालिक उन्हें भटकाव की जगह ज़्यादा सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं तो इसमें बुराई ही क्या है? अब मुख्य मुद्दे पर लौट कर ये कहा जा सकता कि जब कभी भी खुद के लिए कम आज़ादी के बदले कोई भी औरत पितृसत्ता स्वीकार कर रही होती है तो वो बदले में ख़ुद के लिए और अपने बच्चों के लिए सुरक्षा खरीद रही होती है।
जानकार इज़रायली इतिहासकार प्रोफ़ेसर युवाल नोह् हरारी ने अपने चर्चित उपन्यास 'सेपियन्स' में सवाल उठाया है कि क्यों केवल पितृसत्ता ही राजनीतिक उठा-पटक, सामाजिक क्रांतियों और आर्थिक परिवर्तनों का सामना मजबूती से कर सकी है। हज़ारों साल से भी ज़्यादा समय तक क्यों क्लिओपेट्रा, इंदिरा गांधी या गोल्डा मायर जैसी शक्तिशाली महिलाएं इतनी कम हुईं है? क्या इसके पीछे का कारण कम मांसपेशी होना है, पुरुष जैसे आक्रामक जीन की कमी होना है या फिर सामाजिक नेटवर्किंग क्षमता कम होना है ? एक लम्बी चर्चा के बाद प्रोफ़ेसर हरारी इस नतीजे पर पहुंचे कि इस बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है।
लेकिन ज़रा ठहरिये! कुछ तो बहुत महत्वपूर्ण है जिसके बारे में हम जानते हैं- आधुनिकता पितृसत्ता पर चोट कर रही है; पुराने ज़माने के क़ानून अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। उदहारण के तौर पर ईसाइयों की धार्मिक पुस्तक ईसाइ सैनिकों को आदेश देती है कि अगर युद्ध के बंदियों में कोई खूबसूरत महिला भी पकड़ी गयी है और आप उसे भोगना चाहते हैं तो ऐसा कर सकते हैं।
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इस मंजूरी के बावजूद, कट्टर से कट्टर यहूदी और ईसाई भी आज किसी को यौन-ग़ुलाम बनाने का विचार आते ही डर से कांपने लगते हैं। आज पश्चिम में लैंगिक समानता की बात की जाती है। यहां तक कि बड़ी-बड़ी कंपनियों के सीईओज़ और प्रेसिडेंट्स भी लैंगिक भेदभाव का आरोप लगने से डरते हैं।
मुस्लिम देशों में भी इस आधुनिकता को अपनाने की होड़ लगी है। भले ही कुछ लोग लैंगिक समानता को पश्चिमी देशों द्वारा थोपा गया विचार बता इसकी आलोचना करते हों, हक़ीक़त तो ये है कि बहुत कम औरतें ही घर की चारदीवारी के भीतर क़ैद रहना चाहती हैं।
तालिबान सरीखी ताक़तों द्वारा हिंसक विरोध करने के बावजूद अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में लड़कियों के लिये शिक्षा के अवसर बढ़ रहे हैं। हालाँकि पाकिस्तान की सरकार ने धार्मिक मूल्यों की रक्षा करने की कसम खाई है फिर भी ये ऐसी किसी भी बुर्क़ा पहनी औरत को पासपोर्ट जारी करने से मना कर देती है जो अपने चेहरे की तस्वीर नहीं खिंचवाती है। इतनी ही महत्वपूर्ण यह सच्चाई भी है कि हालाँकि औरतों को कब्रिस्तान जाने की मनाही है, लेकिन आज ज़्यादा से ज़्यादा औरतें अपने अजीज़ की कब्र पर आंसू बहाते देखी जा सकती हैं।
पितृसत्ता के महारथी आज एक फ़ौजी बन्दूक से युद्ध में इस्तेमाल होने वाले टैंक को रोकने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। इसलिए वे गुस्साए हैं और नथुने फुला रहे हैं। लेकिन टेक्नोलॉजी की तेज़ गति भी उन्हे बदलने को मजबूर कर रही है। याद कीजिये बीस साल पहले का वो समय जब ज्ञानी स्कॉलर्स फतवा जारी कर मनुष्यों के चेहरों की फोटो खींचने या पूरी फोटो के कहीं पर भी इस्तेमाल पर पाबंदी लगा देते थे। वे ही लोग आज टीवी डिबेट में भाग लेने के लिए लालायित रहते हैं और अपने स्मार्ट फोनों से अपनी मुस्कुराते हुए सेल्फी लेते दिखाई देते हैं।
जैसे-जैसे पुरानी व्यवस्था विलुप्त होती चली जाती है और पारंपरिक दलील अतार्किक होती दिखाई देने लगती है वैसे-वैसे स्त्री जाति से द्वेष रखने वाला व्यक्ति गाली-गलौज और तिरस्कार करने पर उतर आता है। ज़रा याद कीजिये साहसी पाकिस्तानी पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता मारवी सिरमेद को, जिनके ख़िलाफ़ स्वपीड़न कामुकता के पक्षधर नाटककार खलीलुर रहमान क़मर ने क्या-क्या अपशब्द नहीं कहे। और ज़रा याद कीजिये 'मेरा जिस्म मेरी मर्ज़ी' नारे के खिलाफ उठाये गए शोर को। इस नारे को यह कहकर बदनाम किया गया कि औरतें कमाई करने और मौज-मस्ती करने के लिए अपने शरीर को बेचने की इजाज़त मांग रही हैं।
चाहे कब्रगाह हो या जीवित दुनिया, पकिस्तान की औरतों को सम्मानजनक और समानतापूर्ण जीवन जीने से उन लोगों द्वारा महरूम रखा जाता है जो ख़ुदा की मर्ज़ी को जानने का दम्भ भरते हैं। न्याय के लिए संघर्ष करते हुए पाकिस्तान की औरतों को एक लंबा रास्ता तय करना बाकी है। दूसरे देशों की तुलना में ये रास्ता बहुत ज़्यादा लंबा है, लेकिन समय औरतों के साथ है। हम मर्दों को ही उनके साथ कंधे से कंधा मिला चलना होगा।
(लेखक लाहौर और इस्लामाबाद में भौतिक शास्त्र पढ़ाते हैं, पाकिस्तानी अखबार डॉन में प्रकाशित उनके लेख का हिंदी अनुवाद पीयूष पंत ने किया है।)