कोरोना वैक्सीन बेअसर होने पर पीड़ित को मुआवजा नहीं, पूंजीपतियों के मालामाल होने की पूरी गारंटी

कोविड 19 के वैक्सीन के परीक्षण पर बहुत चर्चाएँ की गईं, अनेक लोग बीमार पड़े और कुछ की मौत भी हो गई, पर भारत बायोटेक, सीरम इंस्टीट्यूट या फिर ड्रग कंट्रोलर ऑफ़ इंडिया ने न तो इनकी कुल संख्या बताई और न ही मुआवजे की राशि का उल्लेख किया...

Update: 2021-01-12 11:06 GMT

(एशियाई इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक से सबसे अधिक कर्ज लेने वाला देश है भारत)

वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

मीडिया से लेकर सरकार यह प्रचारित करने में लगी है कि अब कोविड 19 का अंत नजदीक है, इसकी वैक्सीन का दौर 16 जनवरी से शुरू किया जाएगा। इससे पहले टीकाकरण के पूर्वाभ्यास की खबरें समाचार चैनलों पर दिनभर दिखाई जा रही हैं। इस टीकाकरण कार्यक्रम को दुनिया के किसी भी देश से बड़ा करार दिया गया है, हालांकि अभी कुल तीन करोड़ फ्रंटलाइन वर्कर्स और स्वास्थ्यकर्मियों पर प्रथम चरण में इसे लगाए जाने का कार्यक्रम बनाया गया है।

प्रवासी भारतीय सम्मलेन में प्रधानमंत्री मोदी दुनिया को बता गए कि भारत ने दो पूर्ण स्वदेशी वैक्सीन के देश में उपयोग की मंजूरी दी है और यह वैक्सीन भारत दुनिया तक पहुंचाएगा। सुनाने में तो अच्छा लगता है पर एक स्वीकृत वैक्सीन, कोविडशील्ड, जिसका अनुसंधान और विकास इंग्लैंड के ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी और ऐस्त्राजेनिका नामक कंपनी ने सम्मिलित तौर पर किया है और केवल उत्पादन का काम सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया कर रहा है, को किसी भी सूरत में पूर्णतया स्वदेशी कहा जा सकता है?

दूसरी तरफ, भारत बायोटेक की वैक्सीन कोवैक्सीन के शोध के बारे में किसी ने कभी सुना, चर्चा बस उत्पादन की की जा रही है और बिना पूरे परीक्षण के ही इसके उपयोग की तैयारी की जा रही है।

कुछ महीने कोविड 19 के प्रसार के डर से पूरा देश बंद रहा, पर अब सबकुछ लगभग सामान्य है फिर भी कोविड 19 के संक्रमण की दर पहले से बहुत कम हो चुकी है।

यदि शुरू से अबतक के आंकड़ों को देखें तब भी देश की कुल 130 करोड़ जनसंख्या में से महज 1 करोड़ से कुछ अधिक लोग संक्रमित हुए हैं और इनमें से लगभग 1.5 लाख लोगों की मौत हो गई। अधिकतर वैज्ञानिक मानते यही हैं कि कोविड 19 लगातार दुनिया में अन्य रोगों की तरह से बना रहेगा, जाहिर हे यह विलुप्त होने वाला रोग नहीं है। फिर, कुल 50 से 70 प्रतिशत प्रभाव वाली वैक्सीन का हम इस तरह स्वागत ही क्यों कर रहे हैं और एक राष्ट्रीय उन्माद पैदा कर रहे हैं? अभी तो 26 जनवरी के भाषण में प्रधानमंत्री जी इसे सबसे बड़ी उपलब्धि करार देंगे और इसे ऐसे प्रस्तुत करेंगें जिससे चुनावों में फायदा पहुंचे।

इन वैक्सीन के परीक्षण को लेकर आज तक सवाल उठ रहे हैं। कोविड शील्ड का अपने देश में व्यापक परीक्षण किया ही नहीं गया है, हालांकि इसका व्यापक परीक्षण ऑक्सफ़ोर्ड ने अमेरिका, इंग्लैंड और दक्षिण अफ्रीका में किया है। इसके अपने देश में लचर परीक्षण की खबर देश में तब सुनाई पड़ी जब परीक्षण दौर में चेन्नई के व्यापारी की तबीयत वैक्सीन के बाद लगातार बिगड़ती चली गई और उसने सीरम इंस्टीट्यूट पर 5 करोड़ रुपये के हर्जाने का मुक़दमा कर दिया।

सीरम इंस्टीट्यूट ने न ही हर्जाना दिया और ना ही मामले की कोई मेडिकल जांच कराई, उल्टा चेन्नई के व्यापारी पर मानहानि से सम्बंधित 10 करोड़ का मुक़दमा दायर कर दिया। सरकार भी सीरम इंस्टीट्यूट का ही पक्ष ले रही है। कुछ समय पहले ही हरियाणा के एक मंत्री भी, जो वैक्सीन परीक्षण में शामिल थे, उन्हें वैक्सीन लेने के बाद कोविड 19 हो गया, पर कंपनी की तरफ से कोई सफाई या स्पष्टीकरण नहीं आया।

देश के अलग-अलग जगहों पर इन वैक्सीन के परीक्षण से सम्बंधित खबरें लगातार आ रही हैं। वैक्सीन देने के बाद किसी की सुध नहीं ली गई और ना ही इसके प्रभावों के बारे में कंपनी या फिर सम्बंधित अस्पताल पता कर रहा है। हालात यहाँ तक पहुँच गए हैं कि भोपाल में वैक्सीन के बाद एक व्यक्ति की मौत हो गई, और सम्बंधित अस्पताल ने उस व्यक्ति के बारे में कुछ भी पता नहीं किया।

लापरवाही का आलम यह है कि मरने के कुछ दिनों बाद उस व्यक्ति के घर फ़ोन कर बताया गया कि मृत व्यक्ति को वैक्सीन की अगले चरण के परीक्षण के दिन भेज दिया जाए। भोपाल में निम्न आय वर्ग के बड़े तबके पर परीक्षण किये गए, और उन्हें इस बारे में कभी बताया नहीं गया।

हमारा देश वर्ष 2004 के बाद से नई दवाओं और वैक्सीन परीक्षणों का एक गढ़ बन गया है, पर कोई स्पष्ट नीति नहीं है। सभी अंतरराष्ट्रीय दवा निर्माता अपनी दवाओं का परीक्षण भारत में कर रहे हैं क्योंकि यहाँ की जनता गरीब और अनपढ़ है – जनता दुनिया में सबसे कम पैसों में परीक्षण के लिए राजी हो जाती है और अनपढ़ होने के कारण अधिक विस्तार से कुछ बताना नहीं पड़ता और परीक्षण के दौरान किसी स्वास्थ्य समस्या या फिर मृत्यु होने पर दवा कम्पनियां आराम से मुआवजा देने से बच जाती हैं।

सरकार और जनता के इसी रवैये के कारण दुनिया में बनने वाली कुल नई दवाओं और वैक्सीन में से 20 प्रतिशत से अधिक का परीक्षण भारत में किया जा रहा है और यह एक बड़ा धंधा बन गया है। कोविड 19 के वैक्सीन के परीक्षण का उदाहरण सबके सामने है, यह हालात तब हैं जब देश के प्रधानमंत्री इसकी निगरानी कर रहे हैं।

इन सबके बीच 4 दिसम्बर को ड्रग कंट्रोलर ऑफ़ इंडिया ने एक प्रेस कांफ्रेंस में बताया था कि पिछले तीन वर्षों के दौरान विभिन्न क्लिनिकल ट्रायल में शामिल होने वाले व्यक्तियों के गंभीर रूप से बीमार पड़ने या फिर मौत होने पर कुल 12 करोड़ रुपये का मुवावजा दिया गया है और लगभग 10 से 15 परीक्षणों को बीच में ही रोक दिया गया है।

आश्चर्य यह है कि भारत अकेला देश है, जहां हर्जाना सरकार देती है, दवा निर्माता कम्पनियां नहीं। कहा तो यह जाता है कि इससे जिन लोगों पर दवा के परीक्षण किये जाते हैं उनकी सुरक्षा और अधिकार सुरक्षित हो जाते हैं, पर वास्तविकता इसके ठीक उल्टी है। पूरा हर्जाना कभी भी स्वीकृत होकर लोगों के पास नहीं पहुंचता।

क्लिनिकल ट्रायल से सम्बंधित क़ानून अप्रैल 2019 में ही लागू किये गए हैं। इसके अनुसार अमेरिका, इंग्लैंड समेत अनेक देशों में जिस दवा या वैक्सीन का परीक्षण कर लिया गया हो, उसे भारत के बाजार में बिना किसी परीक्षण के ही उतारा जा सकता है। आगे आने वाली कोविड 19 की वैक्सीन के बारे में भी यही किया जाने वाला है।

इस क़ानून के अनुसार परीक्षण के दौर में सभी मेडिकल सुविधाएं सम्बंधित कंपनियों को उठानी हैं, पर कोविड 19 के भी वैक्सीन के परीक्षण के दौरान बीमार लोगों को कोई भी सुविधा नहीं मिल रही है, और तमाम शिकायतों के बाद भी इस सम्बन्ध में सरकार पीड़ितों की कोई भी मदद नहीं कर रही है। इस क़ानून से पहले किसी अनहोनी होने पर दवा कम्पनियां पीड़ित को हर्जाने का 60 प्रतिशत तुरंत देती थीं, पर नए क़ानून में कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए इस व्यवस्था को बंद कर दिया गया।

वर्ष 2013 में भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया था कि जनवरी 2005 से जून 2012 के बीच देश में कुल 475 दवा और वैक्सीन के परीक्षण किये गए और इस पूरी प्रक्रिया में 2644 व्यक्तियों की मृत्यु हो गई। इन 475 दवाओं में से महज 17 को भारतीय बाजार में बिकने की इजाजत दी गई।

इसी अवधि के दौरान परीक्षणों में शरीक 11972 व्यक्ति बीमार पड़े, जिनमें से 506 व्यक्ति गंभीर बीमारियों से ग्रस्त थे। इन आंकड़ों से इतना तो स्पष्ट है कि दवाओं के परीक्षण में हिस्सा लेना एक जोखिम का काम है।

जाहिर है कि शिक्षित लोगों पर परीक्षण करना कठिन है, क्योंकि उनके बहुत सारे सवाल होंगें, हरेक शर्त लिखित में देनी पड़ेगी और पक्का इनफोर्मड कंसेंट की प्रति देनी होगी। कहीं कुछ अनहोनी होने पर शिक्षित व्यक्ति न्यायालय का दरवाजा भी खटखटा सकता है। इसलिए दवा और वैक्सीन के परीक्षण में अधिकतर व्यक्ति अनपढ़ मजदूर रहते हैं, जो बिना किसी जानकारी के और बिना सहमति के ही क्लिनिकल ट्रायल का हिस्सा बन जाते हैं, और फिर किसी अनहोनी होने पर दवा कम्पनियां बिना मुआवजा दिए ही आराम से निकल जातीं हैं। वर्ष 2013 से सितम्बर 2017 के बीच क्लिनिकल ट्रायल्स में शरीक व्यक्तियों की मृत्यु होने पर कुल 8.7 करोड़ रुपये का मुआवजा दिया गया और बीमार व्यक्तियों को सम्मिलित तौर पर 47 लाख रुपये का मुआवजा दिया गया।

आश्चर्य यह है कि कोविड 19 के वैक्सीन के परीक्षण पर बहुत चर्चाएँ की गईं, अनेक लोग बीमार पड़े और कुछ की मौत भी हो गई – पर भारत बायोटेक, सीरम इंस्टीट्यूट या फिर ड्रग कंट्रोलर ऑफ़ इंडिया ने न तो इनकी कुल संख्या बताई और न ही मुआवजे की राशि का उल्लेख किया।

जाहिर है, बड़े जोर शोर से बनाया गया ड्रग्स एंड क्लिनिकल ट्रायल रूल्स 2019 भी कृषि कानूनों जैसा ही है – जिसके बारे में सरकार दावा करती है कि इससे सम्बंधित लोगों को फायदा होगा, पर धरातल पर फायदा केवल पूंजीपतियों और कॉर्पोरेट सेक्टर को ही हो रहा है। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि अब जबकि वैक्सीन 16 जनवरी से लगने जा रही है, फ्रंटलाइन वर्कर्स को मुफ्त लगने जा रही है – ऐसे में वैक्सीन के बाद कोई गंभीर तौर पर बीमार पड़ता है, या फिर किसी की मृत्यु हो जाती है – तब मुआवजा कौन देगा?

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