'महामारी और जन-स्वास्थ्य', कोरोना के साथ-साथ सभी महामारियों और उनके कारणों से रू-ब-रू कराती महत्वपूर्ण पुस्तक
पुस्तक की खासियत इसमें नहीं है कि वो पाठक को कोविड काल में ले जाती है और उसे दूसरे तरीके से चिंतन का मौका देती है. पुस्तक की असली खूबी यह है कि यह अब तक की सभी महामारियों और उनके कारणों से पाठकों को रूबरू कराती है...
जनस्वास्थ्य चिकित्सक डॉ. एके अरुण की पुस्तक'महामारी और जन-स्वास्थ्य' के बारे में बता रहे हैं विजय शंकर पांडेय
आमतौर पर कोई पाठक किसी पुस्तक में क्या चाहता है? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि अगर लेखक यह सवाल खुद से न पूछे और लिखते समय उसके दिमाग में न रहे तो उस पुस्तक में लिखे विचार मृतप्राय हैं. कोई पुस्तक जीवंत तब होती है, जब पाठक उस पुस्तक में लिखे वाक्यों के वेग में बहे. कभी चढ़ाव पर पहुंचे तो कभी उतराव पर. इसके साथ ही पुस्तक से पाठक का ज्ञानवर्द्धन हो. पाठक को पुस्तक पढ़ने के बाद यह एहसास हो कि उसने जो घंटे पुस्तक पढ़ने में बिताए, उससे न सिर्फ उसके ज्ञान में इजाफा हुआ, बल्कि वह एक नए लोक का भ्रमण कर लौट आया.
यही तो पुस्तकों के संसार की खूबी है कि वह पाठक की उंगली पकड़कर कर उसे अपने लोक में ले जाता है और वहां की नई-नई चीजों को अपने शब्दों के जरिए दिखाते हुए वापस उसे अपनी दुनिया में भेज देता है. जनस्वास्थ्य चिकित्सक ए.के अरुण की लिखी पुस्तक 'महामारी और जन-स्वास्थ्य' इन सभी मायनों में सौ फीसदी सफल साबित होती है. पुस्तक का शीर्षक ऐसा है कि ढेर सारी पुस्तकों के बीच कोई भी सुधी पाठक एक बार को इसकी तरफ आकर्षित होगा. उसके मन में सवाल उठेगा कि क्या कोई महामारी पर पुस्तक लिख सकता है? मगर पुस्तक तो सामने है, यही उसे एक बार इसके पन्ने पलटने को बाध्य करेगा. यहीं से पुस्तक अपनी बाजी मारनी शुरू करती है, जो अंत तक कायम रहता है.
पुस्तक में कुल 6 अध्याय हैं. दहशत का वायरस, कोविड की लहरें और वैक्सीन, कोविड से उपजी बीमारियां और उसके लक्षण, बीमारियों का राजनीतिक अर्थशास्त्र, जन-स्वास्थ्य नीति और राजनीति और अंतिम अध्याय है भविष्य के सवाल. इन सभी बिंदुओं को देखकर पाठक को आभास हो जाता है कि पुस्तक में लेखक ने स्वास्थ्य के क्षेत्र पर मुकम्मल पुस्तक लिखी है, जिसमें सिर्फ शब्दों का जाल न होकर कुछ ठोस ज्ञानवर्द्धन होगा. इस पुस्तक का एक और पक्ष ये है कि भाषाई रूप से यह बहुत समृद्ध है. आमतौर पर हिंदी की पुस्तकों में भाषा दोष एक आम बात है. मगर यह पाठकों की रुचि को तोड़ने का सबसे बड़ा कारण होता है. कोई भी सुधी पाठक ऐसी पुस्तक बिल्कुल पढ़ना नहीं चाहता, जिसमें भाषा दोष हो, चाहे वह कितना भी मनोरंजक या विद्वतापूर्ण क्यों न हो.
डॉ. ए.के अरुण की यह पुस्तक इसलिए भी खास हो जाती है, क्योंकि यह उनका अपना दर्द है. कोरोना के समय एक होम्योपैथी के डॉक्टर के तौर पर उन्होंने जो महसूस किया, जिस तरह के फैसले लिए गए और आम लोगों के बीच जो अफरा-तफरी का माहौल था, उसे बड़े ही सलीके से उन्होंने कलमबद्ध किया है. इसके चलते पाठक खुद को कोविड काल में ले जाता है और लेखक के नजरिए से उस समय के लिए गए फैसलों पर दोबारा चिंतन को मजबूर होता है. तब उसे महसूस होता है कि उस समय के फैसले सही थे या गलत?
हालांकि, इस पुस्तक की खासियत इसमें नहीं है कि वो पाठक को कोविड काल में ले जाती है और उसे दूसरे तरीके से चिंतन का मौका देती है. पुस्तक की असली खूबी यह है कि यह अब तक की सभी महामारियों और उनके कारणों से पाठकों को रूबरू कराती है. इसके साथ ही भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र में किए गये कार्यों और वर्तमान स्थिति पर पड़े पर्दे को हटाने का काम करती है. पुस्तक में एलोपैथ से लेकर आयुर्वेद, यूनानी और होम्योपैथ के संसार की सैर करता हुआ पाठक कई तरह की जानकारियों को अपने मष्तिष्क में भरता जाता है. इसके साथ ही उसे देश-विदेश के स्वास्थ्य पद्धतियों के बारे में जानकारी का अवसर मिलता है. इन सबसे से भी ज्यादा कोरोना को लेकर उस समय से लेकर अब तक चल रही भ्रांतियों से भी पाठक को छुटकारा मिल जाता है. वह वायरसों की दुनिया में गोता लगाते हुए यह समझ पाने में समर्थ हो जाता है कि उसके लिए किस तरह का इलाज करना सही है.
पुस्तक का आखिरी अध्याय पाठकों को डराने के साथ-साथ जागरूक भी करता है. कैसे ग्लोबल वार्मिंग हमारे लिए बड़ा खतरा बनकर उभरता जा रहा है? इस विषय को पुस्तक में लेकर लेखक ने अपनी समग्रता का परिचय दिया है. क्योंकि पर्यावरण अगर सही नहीं रहेगा तो स्वास्थ्य कैसे ठीक रहेगा? जाहिर है इसे लेकर चिंतित होने की जरूरत है. इस पुस्तक से राज्यों की सरकार और केंद्र सरकार को भी सीख लेने की जरूरत है. कारण इस पुस्तक ने चिकित्सा के हमारे सांस्कृतिक और पुरातन तकनीकों को बड़ी ही वैज्ञानिक दृष्टि से रखा है.
अगर इस पर हमारी सरकारों ने ध्यान दिया तो गरीब से गरीब आदमी के लिए भी इलाज सुलभ हो सकेगा, जो किसी क्रांति से कम नहीं होगा. हालांकि, ऐसा होना मुश्किल ही दिखता है. इसके पीछे कारण है कि लेखक ने सख्त लहजे में सरकारों के फैसले को सही या गलत साबित किया है. यह अगर लेखक ने अपने पाठकों को सच से रूबरू कराने के लिए किया है तो बहुत अच्छा है, मगर एकतरफा तौर पर सरकार के लॉकडाउन के फैसले को गलत बताना एक बार को कुछ पाठकों को खटक सकता है. कारण पूरी दुनिया में कोविड काल में लॉकडाउन लगे हुए थे.
हालांकि, लेखक ने लॉकडाउन को गलत बताने के पीछे तर्क भी दिए हैं और बताया है कि सरकार अगर समय रहते आयुर्वेद और होम्योपैथ को आगे आकर काम करने का मौका देती तो शायद इसकी नौबत नहीं आती. लेखक ने खुद के द्वारा मरीजों के किए उपचार और उन मरीजों के ठीक होने के उदाहरण देकर भी यह साबित किया है कि होम्योपैथ और आयुर्वेद ने कोरोना को काबू करने में काफी मदद की. इस दावे को हर भारतीय मान भी लेगा, क्योंकि कोविड को बीते अभी ज्यादा दिन नहीं बीते और लोगों की यादों में यह अब भी बिल्कुल ताजा है. अब तो यह हर पाठक खुद ही निर्णय लेगा कि वह पुस्तक में लेखक के किए दावों से कितना सहमत है?
हां, एक बात तय है कि पुस्तक पढ़कर प्रत्येक पाठक को वायरसों की भरपूर जानकारी, दुनिया भर की चिकित्सा पद्धति, भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र की हकीकत, भविष्य में आने वाली स्वास्थ्य समस्याओं से अवगत होने के साथ-साथ कोविड काल के दौर का एक अनदेखा और अनजाना पहलू जानने को मिलेगा.