बर्बादी की पटकथा तैयार होने के बाद घोंसला बचाने की जद्दोजहद में जुटे लोग, हाईकोर्ट के आदेश पर हल्द्वानी में रेलवे की कथित भूमि से अतिक्रमण हटाने का मामला

इस समय जब सर्दी और अधिक बढ़नी है, तब बच्चे, बड़े, महिला, वयस्क सभी को बिना किसी पूर्व इंतजाम के खुले आसमान के नीचे धकेल देना लोगों की जान से खिलवाड़ करना, बेहद अमानवीय और हिंसक कदम होगा, ऐसे समय में जब कोरोना के मामले पुनः बढ़ रहे हैं और केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय सभी राज्य सरकारों को एहतियात बरतने की सलाह दे रहा है, ऐसे में इतनी बड़ी आबादी को बेघर कर सड़क पर निकाल देना महामारी के बढ़ते खतरे के मद्देनजर घातक होगा...

Update: 2022-12-26 17:50 GMT

हाईकोर्ट के आदेश पर हल्द्वानी में रेलवे की कथित भूमि से अतिक्रमण हटाने का मामला, इधर बर्बादी की पटकथा तैयार होने के बाद घोंसला बचाने की जद्दोजहद में जुटे लोग

देहरादून। रवि शंकर जोशी नाम के व्यक्ति की जनहित याचिका पर हल्द्वानी के वनफूलपुरा स्थित कथित रेलवे भूमि पर अतिक्रमण कर बसी मुस्लिम बस्ती को एक सप्ताह का नोटिस देकर हटाए जाने के हाईकोर्ट के आदेशों के सिलसिले में प्रशासन ने जहां बस्ती को हटाए जाने की कवायद शुरू कर दी है, तो वहीं कुछ लोगो ने कड़ाके की ठंड में हजारों परिवारों के आशियाने को बचाने की मुहिम भी शुरू कर दी है।

मालूम हो कि हल्द्वानी में रेलवे की कथित भूमि पर अतिक्रमण की शिकायत करते हुए हल्द्वानी के ही रविशंकर जोशी ने उत्तराखंड उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर कर इन्हें यहां से हटाने की मांग की थी। कई उतार चढ़ाव के बाद हाईकोर्ट ने इसमें उस महत्त्वपूर्ण समय में अपना निर्णय सुनाते हुए इन्हें एक सप्ताह का नोटिस देकर यहां से हटाने का निर्देश दिया था। इस फैसले के विरुद्ध इन लोगों को शीतकालीन अवकाश के लिए सुप्रीम कोर्ट एक जनवरी तक बंद होने के कारण इस निर्णय के खिलाफ अपील करने का भी समय तक नहीं था। न्यायालय का यह निर्णय आते ही जिला प्रशासन और रेलवे विभाग कोर्ट के इस फैसले को लागू करने के लिए तत्पर हो गया।

मंगलवार 27 दिसंबर को न्यायमूर्ति शरद शर्मा व न्यायमूर्ति आरसी खुल्बे की खंडपीठ ने रविशंकर जोशी की याचिका पर सुनवाई पूरी करने के बाद सुरक्षित रखे गए जिस निर्णय को सुनाया था, उससे करीब 4300 परिवार प्रभावित होने की उम्मीद है, जबकि कुछ लोग इन परिवारों की संख्या इससे ज्यादा बता रहे हैं। रेलवे की तरफ से कोर्ट को यह बताया गया था कि रेलवे की जिस भूमि पर अतिक्रमण किया गया है, उसमें करीब 4365 अतिक्रमणकारी मौजूद हैं।

इस मामले में राज्य सरकार ने इस भूमि को अपना न होने के कारण प्रकरण से पल्ला ही झाड़ लिया था। वैसे इस मामले में एक दिलचस्प संयोग यह है कि उच्च न्यायालय ने सभी आपत्तियों व पक्षकारों को सुनने के बाद बीती एक नवंबर को अपना निर्णय सुरक्षित रख लिया था। इसे मंगलवार को उस समय सुनाया गया जब सुप्रीम कोर्ट एक जनवरी तक (बारह दिन) शीतकालीन अवकाश के लिए बंद हो चुका थी। इस बार शीतकालीन अवकाश की इस अवधि में कोई वेकेशन कोर्ट भी न होने के कारण अतिक्रमणकारियों का सुप्रीम कोर्ट में जाने का रास्ता का पूरी तरह बंद हो गया था।

हाईकोर्ट के इस निर्णय के खिलाफ अतिक्रमणकारियों को सर्वोच्च न्यायालय से भी कोई राहत नहीं मिलने के कारण इस बार हल्द्वानी की रेलवे भूमि से अतिक्रमण हटना तय माना जा रहा था। लेकिन इस बीच क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन की ओर से इस मामले में उस समय उम्मीद की एक किरण नजर आई है जब प्रशासन इन अतिक्रमणकारियों को हटाए जाने के प्लान पर कर रहा है।

नैनीताल हाईकोर्ट द्वारा हल्द्वानी की रेलवे की भूमि पर काबिज अतिक्रमणकारियों को एक सप्ताह के भीतर हटाए जाने के आदेश देने के बाद सोमवार 26 दिसंबर को प्रशासन ने सर्किट हाउस में रेलवे के अधिकारियों के साथ मिलकर हाईप्रोफाइल समन्वय बैठक की। बैठक में कुमाऊं कमिश्नर, डीएम, एसएसपी और रेलवे के एडीआरएम सहित कई प्रशासनिक अधिकारी मौजूद रहे। हाईकोर्ट के निर्देश के बाद रेलवे के अतिक्रमण हटाए जाने को लेकर बैठक में विस्तार से चर्चा हुई।

इस बैठक में निर्णय लिया गया कि 28 दिसंबर से अतिक्रमण कार्यों को मुनादी कराने के साथ ही उसी दिन से पिलर बंदी भी की जाएगी। प्रशासन और रेलवे द्वारा 78 एकड़ भूमि पर लगभग 4363 घरों को तोड़कर अतिक्रमण हटाया जाना है। अतिक्रमण हटाए जाने का पूरा मास्टर प्लान तैयार किया गया है। इसके अलावा अतिक्रमण क्षेत्र में ड्रोन कैमरे और वीडियो कैमरे से निगरानी रखी जाएगी।

हाई प्रोफाइल बैठक में पहुंचे अधिकारियों ने बताया कि हाईकोर्ट के आदेशों के अनुरूप ही अतिक्रमण हटाए जाने की कार्रवाई की जाएगी। सबसे पहले मुनादी व पिलर बंदी होगी और फिर अतिक्रमण हटाकर ध्वस्त करने की कार्रवाई भी की जाएगी। वहीं रेलवे की तरफ से आए एडीआरएम विवेक गुप्ता ने बताया कि हाईकोर्ट के आदेश के अनुपालन के लिए राज्य सरकार के साथ समन्वय बैठक में पूरा प्लान बना लिया गया है।

अतिक्रमण को हटाने में प्रयुक्त होने वाली मशीनरी, बैरिकेडिंग व अन्य खर्चों के वहन की सहमति रेलवे के अपर मण्डल प्रबन्धक विवेक गुप्ता द्वारा दी गई। कानून व्यवस्था बाधित न हो और शांति पूर्वक तरीके से अतिक्रमण हटाओ अभियान को चलाया जाए, इसके लिए व्यापक फोर्स और रेलवे पुलिस और स्थानीय प्रशासन द्वारा व्यवस्था किए जाने को लेकर बातचीत की गई है । बैठक में वरिष्ठ मण्डल अभियंता समन्वयक अरुण कुमार, वरिष्ठ मण्डल संरक्षक ऋषि पांडेय, पुलिस अधीक्षक क्राइम डॉ जगदीश चन्द्र, हरबंस सिंह, मुख्य चिकित्साधिकारी डॉ भागीरथी जोशी, अपर जिलाधिकारी शिवचरण द्विवेदी, अशोक जोशी, सिटी मजिस्ट्रेट ऋचा सिंह, उपजिलाधिकारी हल्द्वानी मनीष सिंह, मुख्य नगर आयुक्त पंकज उपाध्याय, अधिशासी अभियंता लोनिवि अशोक चौधरी, सहायक सम्भागीय परिवहन अधिकारी रश्मि भट्ट, विमल पांडेय सहित अन्य प्रशासनिक अधिकारी मौजूद थे।

दूसरी तरह इस मामले में क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन ने सक्रिय होते हुए सोमवार 25 दिसंबर को ही हल्द्वानी में एक पत्रकार वार्ता का आयोजन करते हुए इस मुद्दे पर 27 दिसंबर को एक बड़ी बैठक बुलाई है। पत्रकार वार्ता में संगठन की ओर से कहा गया है कि उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय द्वारा 20 दिसम्बर को दिए गए फैसले में भूमि के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में गोरखा शासकों के कब्जे को माना गया है। उनसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी की 1815 में नेपाली शासकों को हराकर 1816 में हुयी सांगुली संधि के तहत जमीन का मालिक माना है।

कम्पनी से ब्रिटिश शासन को भूमि का मालिकाना स्वीकारा गया है तथा आजादी के बाद भारत सरकार को भूमि का हस्तांतरण स्वीकार किया गया है। सामंती और औपनिवेशिक शासकों को मालिक माना गया है पर आजाद भारत में नागरिक अधिकारों के आधार पर भूमि स्वामित्व को नहीं देखा गया है। जो लोग औपनिवेशिक काल से ही यहां रह रहे थे, भूमि पर फैसला लेते समय स्वामित्व विवाद वाली भूमि होने के स्थान पर रेलवे को स्वामी मानते हुए फैसला किया गया है। जबकि रेलवे ने भूमि अधिग्रहण/अर्जन के कोई दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किये हैं। इसमें भूमि अधिग्रहण कानून 1894 का भी कहीं जिक्र तक नहीं किया गया है। यह निर्णय रेलवे को बिना कानूनी दस्तावेजों के भूमि का मालिक बनाता है।

1937-1940 की लीज लोगों के पास उपलब्ध है, जो कि रेलवे के 1959 के नक्शे, प्लान से पहले की है। यह तथ्य दिखाता है कि इस भूमि पर लोगों का दावा रेलवे की योजना से भी पुराना है। इस फैसले में बस्ती वासियों को भू-राजस्व कानून 1901 के तहत श्रेणी-12 के तहत माना गया है जबकि उसके बाद 1950 में बने 'उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार कानून, 1950' के तहत ग्रोव होल्डर श्रेणी-12 के बजाय जमीन का असली मालिक हो जाता है। फैसले में उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार कानून, 1950 के उक्त प्रावधानों को संज्ञान में लिया जाना चाहिए था।

सारे लीज के मामले जिस पर पूरा निर्णय आधारित हैं वो लीज जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार कानून, 1950 के तहत भूमि के प्रकार 14 से बदलकर 4 हो गये जिसमें ग्रोव होल्डर (बाग धारक) का भूमि पर अधिकार "सिरदार" के तौर पर हो गया है, जिन्हें भूमि आवंटित हुयी या खुदकाश्त करने वाले, कब्जाकार ग्रोव होल्डर, आदि लोग "आसामी" के तौर पर लिये गये हैं, जिनका भूमि पर दावा बनता है। यह महत्वपूर्ण तथ्य पूरे मामले में आंखों से ओझल रहा है।

संगठन ने सवाल उठाते हुए कहा कि इस फैसले में 1959 के रेलवे नक्शे, प्लान जो रेलवे की योजना का दस्तावेज है; को मालिकाने के दस्तावेज की तरह मान्यता दिया जाना क्या जायज लगता है? पूरे फैसले में रेलवे भूमि पर दावे का क्षेत्रफल अंकित नहीं हैं, जो पूर्व में 29 एकड़ के रूप में चर्चा में आता था। यह आगे भी रेलवे को अपने दावे को और अधिक क्षेत्र तक बढ़ाने की मनमानी छूट देता है। फैसले में बस्ती वासियों के लीज, फ्री होल्ड को एकतरफा तौर पर गलत माना गया है।

लीज देने वाली सरकारों जो पिछले 80-90 सालों से लीज को मान्यता दिये हुए हैं, पर इसकी कोई जवाबदेही तय नहीं की गयी है। निर्माण के लिए रेलवे से अनुमति न लेने को आधार बनाया जाना भी गलत है। फैसले में न्याय के सिद्धांतों के अतिरिक्त मानव अधिकारों, बाल अधिकारों, महिला अधिकारों सहित मानवीय मूल्यों को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया है। पुनर्वास के लिए की गयी तमाम याचिकाओं को भी न्यायालय ने यह कहते हुए सुनने से मना कर दिया कि पहले अतिक्रमण हटाया जाए, तब इस पर निर्णय होगा, जबकि गफूर बस्ती, ढोलक बस्ती के सैकड़ों परिवारों को कहीं और भूमि आवंटित कर बसाने को लेकर शासन स्तर पर 2010 से लटकी प्रक्रिया के जिम्मेदार शासन-प्रशासन हैं न की गफूर बस्ती, ढोलक बस्ती के लोग।

संगठन ने कहा है कि इस समय जब सर्दी और अधिक बढ़नी है, तब बच्चे, बड़े, महिला, वयस्क सभी को बिना किसी पूर्व इंतजाम के खुले आसमान के नीचे धकेल देना लोगों की जान से खिलवाड़ करना, बेहद अमानवीय और हिंसक कदम होगा। ऐसे समय में जब कोरोना के मामले पुनः बढ़ रहे हैं और केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय सभी राज्य सरकारों को एहतियात बरतने की सलाह दे रहा है, ऐसे में इतनी बड़ी आबादी को बेघर कर सड़क पर निकाल देना महामारी के बढ़ते खतरे के मद्देनजर घातक होगा।

इस मामले में संगठन की ओर से कई और संगठनों सहित पीड़ित लोगों की एक बड़ी बैठक कल मंगलवार 27 दिसंबर को आयोजित करने की घोषणा करते हुए कहा है कि इस फैसले में नजूल भूमि की व्याख्या इतनी खतरनाक है कि 1907 के एक कार्यालय पत्र का हवाला देते हुए नजूल भूमि के बारे में कहा गया है कि "भूमि की बिक्री नहीं, हमेशा लीज मान्य नहीं होगी"

इसी प्रकार नजूल मैन्युअल के अध्याय - I, नियम 1 में नजूल के बारे में कहा गया है कि "नैनीताल जिले में तराई और भाभर क्षेत्र, गढ़वाल जिले के गढ़वाल भाभर क्षेत्र और अल्मोड़ा में कौसानी सैनिक बस्ती और गढ़वाल जिले भी इन नियमों के अनुसार इसका अभिप्राय नजूल से नहीं है" इन नियमों के आलोक में नैनीताल उच्च न्यायालय का यह फैसला न सिर्फ बनभूलपुरा वासियों बल्कि कुमाऊं- गढ़वाल मण्डल के सभी नजूल भूमि पर आवासित लोगों के लिए गलत मिसाल कायम करते हुए खतरनाक है। फैसले में और भी कई दिक्कत तलब बातें होने के कारण इस पर चर्चा के लिए ऐवान-ए-जहूर हॉल चोरगलिया रोड ताज चौराहा हल्द्वानी में 27 दिसम्बर मंगलवार को एक "आपालकालीन बैठक" का आयोजन किया जा रहा है।

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