मोदी सरकार का ‘जनजातीय गौरव दिवस’ मनाना मात्र छलावा, BJP का मातृ संगठन RSS लगातार करा रहा आदिवासियों का हिंदूकरण

मोदी सरकार का आदिवासी प्रेम एक छलावा मात्र है और उसकी आदिवासियों के कल्याण तथा सशक्तिकरण में कोई दिलचस्पी नहीं है। वह केवल उनका वोट लेने हेतु तरह तरह के हथकंडे अपनाती है, जैसाकि जनजातीय गौरव दिवस का मनाया जाना....

Update: 2023-11-15 16:38 GMT

प्रतीकात्मक फोटो (Social Media)

पूर्व IPS एसआर दारापुरी की टिप्पणी

आज मोदी सरकार ‘बिरसा मुंडा जयंती’ के बहाने पूरे देश में ‘जनजातीय गौरव दिवस’ मना रही है। एक समाचार पत्र में केन्द्रीय जनजातीय कार्य मंत्री अर्जुन मुंडा के छपे लेख के अनुसार यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आदिवासी समाज और उसकी संस्कृति के प्रति सम्मान और अटूट प्रेम ही है कि उन्होंने भगवान बिरसा मुंडा की जयंती को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के नाम से मनाने की घोषणा करके आदिवासी समाज का पूरे देश में मान बढ़ाया है। आज यह तीसरा वर्ष है जब हमारा देश पूरे आदर, सम्मान व उत्साह के साथ ‘जनजातीय गौरव दिवस’ मना रहा है।

लेख में आगे लिखा गया है कि ‘जनजातीय गौरव दिवस’ हाशिये पर मौजूद इन समूहों के कल्याण और सशक्तीकरण के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता का प्रमाण है। विभिन्न नीतियों, कार्यक्रमों एवं कानूनों के माध्यम से केन्द्रीय सरकार का लक्ष्य आदिवासी समाज का उत्थान करना और ऐतिहासिक अन्याय को दूर करना है। लेख में वन अधिकार अधिनियम, पेसा और अन्य कानूनों द्वारा आदिवासी समुदाय के अधिकारों को और मजबूत करने की बात भी कही गई है।

आइए देखें कि मोदी सरकार के आदिवासी लोगों के संबंध में उपरोक्त किए गए दावों का सच क्या है? खास करके जब मोदी सरकार ने आदिवासियों को प्रभावित करने के लिए एक आदिवासी महिला श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को भारत का राष्ट्रपति भी बनाया है। इसे निम्नलिखित संक्षिप्त विवेचन से देखा जा सकता है:-

आदिवासियों में भूमिहीनता, नौकरी एवं गरीबी

2011 की जनगणना के अनुसार देश में 35.65% आदिवासी भूमिहीन हैं तथा इनमें से केवल 8% लोग ही सरकारी तथा निजी क्षेत्र में नौकरी में हैं। आदिवासियों में 44.7% परिवार गरीबी की रेखा के नीचे हैं जिनकी मासिक आय मात्र 816 रुपए है। आदिवासी परिवारों का 79% हिस्सा अति वंचित श्रेणी में आता है। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि देश में आदिवासी समाज कितना भूमिहीन, बेरोजगार और गरीबी का शिकार है। यह भी उल्लेखनीय है कि केंद्र में 2014 से मोदी सरकार के आने के बाद भी आदिवासियों की हालत में कोई सुधार नहीं आया है क्योंकि इस सरकार द्वारा आदिवासियों के कल्याण तथा सशक्तीकरण हेतु कोई भी ठोस प्रयास नहीं किए गए हैं, बल्कि इसके विपरीत उनका भूमि से वंचितीकरण ही किया गया है।

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आदिवासियों को भूमि का अधिकार देने हेतु बने वनाधिकार कानून को विफल करना

वर्ष 2006 में तत्कालीन यूपीए सरकार ने आदिवासियों को भूमि का अधिकार देने हेतु वनाधिकार कानून बनाया था जो 2008 में लागू हुआ था। इस कानून का मुख्य ध्येय आदिवासियों तथा वनवासियों को अपने कब्जे की जमीन के स्वामित्व का अधिकार देना था, ताकि वे एक जगह पर स्थायी तौर पर रह सकें तथा इस कानून के अंतर्गत मिली जमीन पर खेती करके अपना जीवन यापन कर सकें। दुर्भाग्यवश सरकारी मशीनरी की आदिवासी एवं दलित विरोधी मानसिकता के कारण इस कानून को ईमानदारी से लागू नहीं किया गया जिस कारण आदिवासियों/वनवासियों को जमीन का मालिकाना अधिकार नहीं मिल सका। राज्य सरकारों ने इस में वांछित स्तर की इच्छा शक्ति एवं दिलचस्पी नहीं दिखाई। परिणामस्वरूप पूरे देश में केवल त्रिपुरा, केरल तथा ओडिसा ही तीन राज्य थे जहां आदिवासियों को इस कानून के अंतर्गत भूमि आवंटन किया गया। इसका श्रेय त्रिपुरा तथा केरल की कम्युनिस्ट सरकार तथा ओडिसा में आदिवासी संगठनों तथा पटनायक सरकार की सक्रियता को जाता है।

2014 में केंद्र में बनी मोदी सरकार ने वनाधिकार कानून को कड़ाई से लागू करने की बजाय उसे विफल करने का ही काम किया है, क्योंकि यह तो आदिवासी क्षेत्र की जमीन को खनन हेतु कार्पोरेट्स को देने के लिए कटिबद्ध है। यही कारण है कि 2019 में जब वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट संस्था द्वारा सुप्रीम कोर्ट में जंगल की जमीन पर अवैध कब्जे हटाने तथा उसे खाली कराकर वन विभाग को देने की जनहित याचिका की सुनवाई शुरू हुई तो मोदी सरकार की तरफ से आदिवासियों का पक्ष रखने हेतु कोई भी सरकार वकील पेश नहीं हुआ।

इस याचिका में यह भी कहा गया था कि जंगल की जमीन पर अवैध कब्जों के इलावा वनाधिकार कानून के अन्तर्गत रद्द हो चुके दावों की जमीन को भी खाली कराया जाना चाहिए क्योंकि कानून की नजर में वह भी अवैध कब्जे ही हैं। इस का परिणाम यह हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने एक तरफा आदेश पारित कर दिया जिसमें सभी राज्यों को आदेशित किया गया कि वे 24 जुलाई, 2019 तक वनाधिकार कानून के अंतर्गत रद्द हो चुके सभी दावों वाली जमीन को खाली कराकर वन विभाग को सौंपने की अनुपालन आख्या प्रेषित करें।

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सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से पूरे देश में प्रभावित होने वाले आदिवासी परिवारों की संख्या लगभग 20 लाख है जिनमें उत्तर प्रदेश के भी 74,700 परिवार हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के विरुद्ध हमारी पार्टी आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट ने कुछ अन्य संगठनों के साथ मिल कर सुप्रीम कोर्ट के उक्त आदेश के विरुद्ध अपील दायर की जिसमें हम लोगों ने सुप्रीम कोर्ट से वनाधिकार के रद्द हुए दावों वाली जमीन से बेदखली के आदेश पर रोक लगाने तथा सभी राज्यों को सभी दावों का पुनर्परीक्षण करने का अनुरोध किया जिसे सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार कर लिया। वर्तमान में उसी आदेश के कारण आदिवासियों तथा वनवासियों की बेदखली रुकी हुई है। यह अत्यंत खेदजनक है भाजपा शासित राज्यों में इन दावों के पुनर्परीक्षण का कार्य अत्यंत धीमी गति से चल रहा है जो मोदी सरकार के आदिवासी प्रेम के दावों की पोल खोलता है।

वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम-2023 द्वारा आदिवासियों के वनाधिकारों का हनन

इस संशोधन द्वारा कई प्रकार की भूमि को वन संरक्षण कानून 1980 के दायरे से बाहर कर दिया गया है। इससे वन भूमि में चिड़िया घर, मनोरंजन स्थल तथा सफारी बनाना संभव हो जाएगा। इसी प्रकार चीन तथा पाकिस्तान की सरहद के पास 100 किलोमीटर तक रक्षा कार्यों के लिए भूमि का अधिग्रहण किया जा सकेगा। इसी प्रकार वन भूमि को गैर वनभूमि प्रयोजन में बदलने के लिए ग्राम सभा की पूर्व अनुमति लेने की शर्त को हटा दिया गया है। इससे वन भूमि के क्षेत्र फल में भारी कमी आएगी जो कि आदिवासियों के हित में नहीं है। नए संशोधन द्वारा दोबारा वन उगाने का कार्य निजी व्यक्तियों तथा संगठनों जिन में करपोरेटस भी शामिल हैं, को भी दिया जा सकता है। इससे आदिवासियों तथा वन वासियों को वन पर मिलने वाले सामुदायिक अधिकारों का हनन होगा। मोदी सरकार द्वारा लाया गया यह संशोधन आदिवासियों/ वनवासियों के हितों पर कुठाराघात है।

आदिवासी अस्तित्व संकट में

आरएसएस तथा भाजपा आदिवासियों को आदिवासी न कह कर वनवासी कहती है और वनवासी नाम से अपना संगठन भी चलाती है। इसके पीछे आरएसएस की गहरी चाल है। यह सभी जानते हैं कि हमारे देश में भिन्न-भिन्न समुदाय रहते हैं जिनकी अपने-अपने धर्म तथा अलग-अलग पहचान हैं। अदिवासी जिन्हें संविधान में अनुसूचित जनजाति कहा जाता है, भी एक अलग समुदाय है, जिसका अपना धर्म, अपने देवी देवता तथा एक विशिष्ट संस्कृति है। इनके अलग भौगोलिक क्षेत्र हैं और इनकी अलग पहचान है।

हमारे संविधान में भी इन भौगोलिक क्षेत्रों को जनजाति क्षेत्र कहा गया है और उनके के लिए अलग प्रशासनिक व्यवस्था का भी प्रावधान है। इस व्यवस्था के अंतर्गत इन क्षेत्रों की प्रशासनिक व्यवस्था राज्य के मुख्यमंत्री के अधीन न हो कर सीधे राज्यपाल और राष्ट्रपति के अधीन होती है जिसकी सहायता के लिए एक ट्राइबल एरिया काउंसिल होती है जिसकी अलग संरचना होती है। इन के अधिकारों को संरक्षित करने के लिए संविधान की अनुसूची 5 व 6 भी है।

इन क्षेत्रों में ग्राम स्तर पर सामान्य पंचायत राज व्यवस्था के स्थान पर विशेष ग्राम पंचायत व्यवस्था जिसे Panchayats (Extension to Scheduled Areas Act, 1996) अर्थात PESA कहा जाता है तथा यह ग्राम स्वराज के लिए परंपरागत ग्राम पंचायत व्यवस्था है। इसमें पंचायत में सभी प्राकृतिक संसाधनों/खनिजों पर पंचायत का ही अधिकार होता है और उनसे होने वाला लाभ ग्राम के विकास पर ही खर्च किया जा सकता है। परंतु यह विभिन्न राजनीतिक पार्टियों की सरकारों का ही षड्यंत्र है जिसके अंतर्गत केवल कुछ ही जनजाति क्षेत्रों में इस व्यवस्था को लागू किया गया है।

इसके अतिरिक्त यह भी उल्लेखनीय है कि हमारे संविधान में दलित और आदिवासियों को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के तौर पर सूचीबद्ध किया गया है। उन्हें राजनीतिक आरक्षण के अलावा सरकारी सेवाओं तथा शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण दिया गया है। हमारी जनगणना में भी उनकी उपजातिवार अलग गणना की जाती है।

इसके अतिरिक्त आदिवासियों पर हिन्दू मैरेज एक्ट तथा हिन्दू उत्तराधिकार कानून भी लागू नहीं होता है। इन कारणों से स्पष्ट है कि आदिवासी समुदाय का अपना अलग धर्म, अलग देवी- देवता, अलग रस्मो-रिवाज़ और अलग संस्कृति है।

उपरोक्त वर्णित कारणों से आरएसएस आदिवासियों को आदिवासी न कहकर वनवासी (वन में रहने वाले) कहता है, क्योंकि इन्हें आदिवासी कहने से उन्हें स्वयम् को आर्य और आदिवासियों को अनार्य (मूलनिवासी) मानने की बाध्यता खड़ी हो जाएगी। इससे आरएसएस का हिंदुत्व का मॉडल ध्वस्त हो जाएगा जो कि एकात्मवाद की बात करता है। इसीलिए आरएसएस आदिवासियों का लगातार हिन्दुकरण करने में लगा हुआ है। इसमें उसे कुछ क्षेत्रों में सफलता भी मिली है जिसका इस्तेमाल गैर हिंदुओं पर आक्रमण एवं उत्पीड़न करने में किया जाता है। यह भी एक सच्चाई है कि ईसाई मिशनरियों ने भी कुछ आदिवासियों का मसीहीकरण किया है, परंतु उन्होंने उनका इस्तेमाल गैर मसीही लोगों पर हमले करने के लिए नहीं किया है।

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आरएसएस का मुख्य ध्येय आदिवासियों को आदिवासी की जगह वनवासी कह कर तथा उनका हिन्दुकरण करके हिंदुत्व के माडल में खींच लाना है और उनका इस्तेमाल गैर-हिंदुओं को दबाने में करना है। इसके साथ ही उनके धर्म परिवर्तन को रोकने हेतु गलत कानून बना कर रोकना है जबकि हमारा संविधान सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है।

बहुत से राज्यों में ईसाई हुए आदिवासियों की जबरदस्ती घर वापसी करवा कर उन्हें हिन्दू बनाया जा रहा है। इधर आरएसएस ने आदिवासी क्षेत्रों में एकल स्कूलों की स्थापना करके आदिवासी बच्चों का हिन्दुकरण (जय श्रीराम का नारा तथा राम की देवता के रूप में स्थापना) करना शुरू किया है। इसके इलावा आरएसएस पहले ही बहुत सारे वनवासी आश्रम चलाकर आदिवासी बच्चों का हिन्दुकरण करती आ रही है। देश के अधिकतर राज्यों में भाजपा की सरकारें स्थापित हो जाने से यह प्रक्रिया और भी तेज हो गयी है।

इस प्रकार आरएसएस आदिवासियों को वनवासी घोषित करके उनके अस्तित्व को ही नकारने का प्रयास कर रहा है। यह न केवल आदिवासियों बल्कि पूरे देश की विविधता के लिए खतरा है। अतः आदिवासियों को आरएसएस की इस चाल को समझना होगा तथा उनकी अस्मिता को मिटाने के षड्यंत्र को विफल करना होगा।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मोदी सरकार का आदिवासी प्रेम एक छलावा मात्र है और उसकी आदिवासियों के कल्याण तथा सशक्तिकरण में कोई दिलचस्पी नहीं है। वह केवल उनका वोट लेने हेतु तरह तरह के हथकंडे अपनाती है, जैसाकि जनजातीय गौरव दिवस का मनाया जाना।

(एसआर दारापुरी आल इंडिया पीपुल्स फ्रन्ट के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)

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