सर्वेक्षण में खुलासा : लॉकडाउन के दौरान दलितों, मुसलमानों और विमुक्त जातियों के साथ हुआ भयंकर भेदभाव

मुसलिम समुदाय पहले से भेदभाव का शिकार है, लाॅकडाउन के दौरान तब्लीगी मामले के बाद उनके साथ भेदभाव और बढा। लाॅकडाउन से दलितों, मुसलमानों, आदिवासियों, घूमंतू समाज और विमुक्त जातियों की रोजी-रोटी छिन गई...

Update: 2020-09-17 10:23 GMT

श्रेया रमन और साधिका तिवारी की रिपोर्ट

मुंबई/दिल्ली : कोविड-19 महामारी के चलते किये गए लॉकडाउन से जहां लाखों लोगों की रोजी-रोटी छिन गई और खाने की समस्या मुँह बाए खड़ी हो गई, वहीं हाशिये पर पड़े लोगों और अल्पसंख्यक समूहों के हालात सबसे ज़्यादा खराब हुए हैं। ये बात 11 राज्यों के लगभग १ लाख परिवारों में किये गए सर्वेक्षण में सामने आई है। चूंकि दलितों, मुसलमानों, आदिवासियों, घूमंतू समाज और विमुक्त जातियों की रोजी-रोटी छिन गई, इसलिए आमदनी के ख़ात्मे ने क़र्ज़ लेने की मजबूरी बढ़ा दी, यहां तक कि स्थानीय साहूकारों से ऊंची ब्याज दरों में क़र्ज़ लेने की मजबूरी भी।

इसके अलावा, ज़्यादातर सामुदायिक बस्तियों में लोगों को सरकारी सहायता नहीं मिली है, बहुतों के साथ राहत सामग्री देने में भी भेदभाव किया गया। दिल्ली के एक स्वयंसेवी संगठन प्रैक्सिस इंडिया के नेतृत्व में किये गए सर्वेक्षण में ये तथ्य निकल कर सामने आये हैं। जिन ४७६ बस्तियों और मोहल्लों में सर्वेक्षण किया गया था उनमें से आधे में अपने परिवारों को कमाई करने में मदद करने की गरज से बच्चों ने स्कूल छोड़ दिए थे।

31 इलाक़ों (7.25 प्रतिशत) के प्रतिनिधियों ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान इन समुदायों के खिलाफ बहिष्कार और भेदभाव बदतर स्थिति में पहुँच गया था।

सर्वेक्षण रिपोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुँची है कि वित्तीय संकट और उससे पैदा हुआ क़र्ज़ का बोझ बहुतों को बंधुआ मज़दूरी की ओर धकेल देगा।

सर्वेक्षण

सर्वेक्षण के लिए आंकड़ा अप्रैल से जून २०२० का लिया गया था। यह आंकड़ा नागरिक समाज संगठनों द्वारा इकट्ठा किया गया था। इन संगठनों में National Alliance Group of Denotified and Nomadic Tribes और Gethu Group Workers का थिंक टैंक शामिल हैं जिसका नेतृत्व प्रैक्सिस ने किया। प्रत्येक स्थल से एक या दो प्रतिनिधियों का साक्षात्कार कर आंकड़े इकट्ठे किये गए। आंकड़े जिन गतिविधियों से जुड़े थे वे थीं सरकारी योजनाओं और उनसे मिलने वाले फायदों तक पहुँच व पंजीकरण, लिए गए क़र्ज़, नौकरियां और रोज़ी-रोटी तथा सामाजिक मुद्दे आदि। एक साथ देखा जाए तो १२ राज्यों (बिहार, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, गुजरात, मध्य प्रदेश, दिल्ली, ओडिशा, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल) ४७६ स्थान थे जहां ९८,००० परिवार बसे थे। इन स्थानों में से प्रत्येक को दलित, मुस्लिम, आदिवासी और विमुक्त जातियों जैसी एक या अधिक श्रेणियों में रखा गया था।

मुस्लिम भारत की आबादी का कुल 13.4 फीसदी हिस्सा हैं और देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय हैं। दलित आबादी का 16.6 फीसद हैं और ऐतिहासिक रूप से हाशिये पर पड़े समुदाय के रूप में जाने जाते हैं।

भारत की आदिवासी आबादी दुनिया में सबसे ज़्यादा है। यह देश की कुल आबादी का 8.6 फीसदी है। मान्यता प्राप्त अनुसूचित जनजातियाँ 705 हैं और घूमंतू आदिवासी देश की आबादी का 10 फीसद हैं। ब्रिटिश शासन के दौरान ये जनजातियाँ Criminal Tribes Act of 1871 के तहत अपराधी जनजातियों के रूप में सूचीबद्ध थीं, 1952 में इन्हें सूची से बाहर कर दिया गया। बावजूद इसके इन्हें गरीबीए, उपेक्षा और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है।

लॉकडाउन के दौरान अल्पसंख्यकों के हालात के बारे में इण्डिया स्पेन्ड लगातार रिपोर्टिंग करता रहा है।

रोजी-रोटी का छिन जाना, क़र्ज़ का बढ़ जाना

लॉकडाउन की घोषणा ने नौकरियाँ ख़त्म कर दीं, अनौपचारिक कामगारों और मज़दूरों का उल्टा पलायन किया और उनकी आवाजाही पर नियंत्रण लगा दिया। मनरेगा पर निर्भरता बढ़ी लेकिन 10 में से 4 गाँवो के हाशिए पर पड़े समुदायों को इस योजना के तहत कोई काम नहीं मिला।

सभी समुदायों में से ज़्यादातर विमुक्त जातियों के इलाकों में मनरेगा के तहत काम नहीं उपलब्ध था। अध्ययन में शामिल किये गए 114 विमुक्त जाति इलाकों में लगभग आधे अर्द्ध शहरी या शहरी इलाके थे। इसके अलावा 55 से 61 फीसदी ग्रामीण विमुक्त जाति इलाकों में मनरेगा के तहत किसी को भी काम नहीं मिला। इस योजना के तहत किसी को भी काम न मिलने वाले इलाकों की संख्या अप्रैल से जून के बीच में जहां दूसरे समुदायों के लिए घटी वहीं काम न मिलने वाले विमुक्ति जाति के इलाके बढ़ गए।

रिपोर्ट में कहा गया है कि आवाजाही पर अंकुश का मतलब है विमुक्ति जाति समुदायों के लिए बेइंतहा मुसीबत क्योंकि यह समुदाय अभी भी अपने पशुओं के साथ घूमंतू ज़िंदगी बसर करता है। यात्रा एवं पर्यटन के खात्मे के चलते इस समुदाय के कलाकारों और अदाकारों के पास कोई काम नहीं था और बहुतों को शारीरिक श्रम वाले काम करने पड़े।

मुस्लिम समुदाय के ज़्यादातर सदस्यों ने बताया कि वे स्वरोज़गार में थे, लेकिन अल्पसंख्यक समुदायों के बीच रोजी-रोटी कमाने के स्थाई विकल्पों की कमी पाई गई जिसके चलते उन्हें भारी क़र्ज़ लेने के लिए मजबूर होना पड़ा।

दलितों के इलाकों में 9 इलाके ऐसे थे जहां क़र्ज़ और क़र्ज़ के फंदे में बढ़ोत्तरी दिखाई दी। यह बढ़ोत्तरी विमुक्ति जाति इलाकों में 78 फीसदी, मुस्लिम इलाकों में 64 फीसदी और आदिवासी इलाकों में 47 फीसदी थी।

रिपोर्ट में कहा गया है कि ज़्यादातर रोज़गार देने वालों, पड़ोसियों, रिश्तेदारों और साहूकारों से ऊंची ब्याज़ दरों पर लिए गए क़र्ज़ ने दूसरी तरह के सामाजिक.आर्थिक शोषण को जन्म दिया है। इसमें तस्करी, बंधुआ मज़दूरी और बाल श्रम शामिल है।

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि विमुक्ति जाति के बांछड़ा समुदाय नीमच मध्य प्रदेश में निजी साहूकारों से ऊंची ब्याज दर पे क़र्ज़ ले कर अपना जीवनयापन कर रहे थे। इसके चलते समुदाय की लड़कियों की तस्करी बढ़ने की आशंका पैदा हो गई थी।

सरकारी सहायता उपायों तक पहुँच की कमी

इण्डिया स्पेन्ड ने मार्च महीने में एक रिपोर्ट में बताया था कि केंद्र सरकार द्वारा मार्च महीने में घोषित १.७ लाख करोड़ का वित्तीय पॅकेज पुरानी योजनाओं की मिलावट भर था।

सर्वेक्षण रिपोर्ट में यह पता चला कि इन योजनाओं को समझने में आई विभिन्नताओं को कम करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाये जा रहे हैं और अल्पसंख्यक समुदाय अपने अधिकारों को हासिल नहीं कर पा रहे हैं। दस्तावेजों की कमी और अधिकारों को हासिल कर पाने का भय सभी समुदायों में पाया गया।

सर्वे किये गए इलाकों के 70 फीसदी में वापिस काम पर लौटे प्रवासियों का पंजीकरण भी नहीं शुरू किया गया था। इस तरह सरकार द्वारा पहुंचाई जा रही मदद प्राप्त करने से वे वंचित रह गए।

जबकि 62 फीसदी दलित इलाके, 74 फीसदी मुस्लिम इलाके और 86 फीसदी आदिवासी इलाके में हर किसी को वर्तमान तय मात्रा में राशन की पूर्ती की गई, लेकिन 26 मार्च को प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत केंद्र सरकार द्वारा अतिरिक्त राशन के रूप में घोषित की गई सहायता सीमित रूप में ही मिल सकी।

सभी समुदायों में से सरकारी योजनाओं तक सबसे कम पहुँच विमुक्ति जाति के लोगों की रही। सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि ज़्यादातर राज्यों में विमुक्ति जातियों के खिलाफ सरकारी पूर्वाग्रह बना रहा। साथ ही ग्रामीण प्रशासन से समुदाय की दूरीए दस्तावेजों और जागरूकता की कमी और अपराधी कहलाने के लांछन ने इन्हें इन सुविधाओं और सेवाओं का लाभ लेने से दूर रखा।

53 मुस्लिम इलाकों में 4 से 34 फीसदी मामलों में योजना का फायदा किसी भी परिवार को नहीं मिला। रिपोर्ट निष्कर्ष में कहती है, 'मुसलमान किसी भी सरकारी योजना का लाभ लेने या कोई शिकायत दूर करवाने के लिए किसी भी सरकारी संस्था से संपर्क करने से डरते हैं क्योंकि उन्हें भेदभाव का डर बना रहता है'। मुसलमान समुदाय में सरकारी योजनाओं तक पहुँच सबसे काम बिहार में देखी गई। यहां सर्वेक्षण में उन परिवारों को शामिल किया गया, जो पढ़ी दर पीढ़ी यौन कर्म में लिप्त थे। मुसलमानों में ये समुदाय सबसे कमज़ोर हैं क्योंकि इनके पास ना तो आधार कार्ड है, ना वोटर कार्ड इसलिए सरकारी योजनाओं और फायदों तक उनकी कोई पहुँच नहीं थी।

जहां तक दलितों का सवाल है तो उनमें वे लोग फायदे उठा पाए जो तुलनात्मक रूप से बेहतर स्थिति में थे और जिनके पास हक़ से मांगने की ताक़त थी। इसके चलते दलितों में ही कमज़ोर तबके सुविधाओं से वंचित बने रहे। जो सुविधाओं को हासिल नहीं कर पाए उन्होंने जानकारियों की कमी और भ्रष्टाचार, घूस व भेदभाव की आशंका के चलते सुविधा मुहैय्या कराने वालों के पास जाने में डर लगने का बहाना खोज लिया।

दूर-दराज़ में बसे होने और दस्तावेज़ों की कमी के चलते आदिवासी सुविधाओं का फायदा उठाने से वंचित रह गए। वे राज्य सरकारों द्वारा चलाई जा रही योजनाओं से तो फायदा उठा सके लेकिन जन धन, उज्ज्वला या किसान सम्मान निधि सरीखी केंद्र सरकार द्वारा सीधी लागू की जा रही योजनाओं का फायदा नहीं उठा सके।

सामाजिक स्तर पर हाशिए पर धकेला जाना और भेदभाव बरतना

महामारी ने इन अल्पसंख्यक समुदायों को कहीं ज़्यादा हाशिए पर धकेल दिया और प्रतिकूल परिस्थितियों में डाल दिया।

सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया है कि मानवीय विकास के ज़्यादातर संकेतकों में मुसलमान पहले से ही पिछड़े हुए हैं और महामारी के दौरान यह कह कर उन्हें और ज़्यादा लांछित किया गया कि वे कोरोना वायरस के तथाकथित वाहक हैं, खासकर तब्लीगी जमात घटना के बाद। मिशिगन यूनिवर्सिटी के स्कॉलर्स द्वारा भारत में गलत खबरों के प्रसार पर किये गए अध्ययन पर आधारित एक रिपोर्ट इण्डिया स्पेन्ड ने मई महीने में प्रकाशित की थी जिसमें कहा गया था कि मार्च महीने के अंत तक तथ्यों की सच्चाई जांचने वाले संगठनों द्व्रारा ख़ारिज की गई झूठी ख़बरों की संख्या जहां 16 मार्च से शुरू होने वाले हफ्ते में १५ थीं वहीं ये बढ़ कर 30 मार्च से शुरू होने वाले हफ्ते में 33 पहुँच गईं, जबकि दिल्ली के निजामुद्दीन मरकज़ में आयोजित तब्लीगी जमात कार्यक्रम को कोरोना वायरस फ़ैलाने के दोषी के रूप में प्रचारित किया गया था।

तक़रीबन 6 फीसदी दलित बस्तियों ने ये शिकायत की कि कोरोना वायरस के डर की वजह से उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है। वे अपनी जाति के चलते श्मशान घाटों का भी खुल कर इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं।

विमुक्ति जातियों से इकट्ठा किये गए आंकड़ों में से लगभग 60 फीसदी उन समुदायों के हैं जो शरीर बेचने या डांस बार के काम में हैं। ये ऐसे काम हैं जो ना केवल समाज बल्कि प्रशासन द्वारा भी बहिष्कृत हैं। रिपोर्ट में कहा गया है, 'स्थानीय सरकारी ढाँचे में विमुक्ति जातियों के खिलाफ भयंकर पूर्वाग्रह रहता है'। यहाँ तक कि महामारी के दौरान भी सरकारी अधिकारी उन तक नहीं पहुंचे और अनेक उदाहरण इस बात के भी सामने आए कि उनके लिए गावों में घुसने की पाबंदी थी। रिपोर्ट में उन केस का भी ज़िक्र किया गया है जब सेक्स से जुड़े काम को ले कर पुलिस द्वारा की गई छापेमारी में जवान लड़कियों को गिरफ्तार किया गया है।

(श्रेया रमन इंडिया स्पेन्ड में डाटा विश्लेषक और साधिका तिवारी मुख्य संवाददाता के रूप में कार्यरत हैं। यह रिपोर्ट इण्डिया स्पेन्ड से साभार ली गई है।)

Tags:    

Similar News