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लॉकडाउन में फेक न्यूज की इसलिए आई बाढ़ क्योंकि मेनस्ट्रीम मीडिया और दिग्गजों ने फैलायीं झूठी खबरें
भारत में मुख्यधारा के मीडिया घरानों ने झूठी ख़बरों का प्रसार थोक के भाव किया, यहां तक की दिग्गज हस्तियों ने भी झूठी ख़बरों को फ़ैलाने में निभाई महत्वपूर्ण भूमिका...
प्राची साल्वे की रिपोर्ट
मुंबई, जनज्वार। दो अप्रैल को मध्य प्रदेश के इंदौर में डॉक्टर्स, स्वास्थ्यकर्मियों और राजस्व अधिकारियों की एक टीम जब एक ६५ साल के कोरोनावायरस पीड़ित व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसके परिवार के लोगों का पता लगाने पहुँचती है तो उस पर हमला हो जाता है।
यह हमला उन फ़र्ज़ी वीडियो के चलते होता है जिनमें दिखाया गया था कि सेहतमंद मुसलमानों को जबरन ले जाकर वायरस का इंजेक्शन भोंक दिया जा रहा है। इस घटना से साफ़ हो गया कि गलत सूचनाओं के प्रसार के खतरे कितने बड़े होते हैं।
अमेरिका की मिशिगन यूनिवर्सिटी ने भारत में झूठी ख़बरों के प्रसार पर एक अध्ययन किया है, जिसकी रिपोर्ट 18 अप्रैल को जारी की गयी। इस रिपोर्ट में ये बात सामने आई है कि झूठ का पर्दाफाश करने वाली कहानियां भारत में ज़्यादा छपी हैं, खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 22 मार्च 2020 को जनता कर्फ्यू और दो दिन बाद पूरे देश में लॉकडाउन की घोषणा करने के बाद।
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इस अध्ययन में कहा गया है कि पर्दाफ़ाश की गयी फेक ख़बरों की संख्या जहां सन 2020 के जनवरी महीने के तीसरे हफ्ते में मात्र 2 थी, वहीं यह संख्या बढ़कर अप्रैल 2020 के पहले हफ्ते में 60 तक पहुँच गयीं। अध्ययन में यह बात भी सामने आयी कि इस दौरान कोविड-19 बीमारी के इलाज के बारे में झूठी ख़बरों की संख्या ज़रूर कम रही, लेकिन लोगों को भावनात्मक रूप से प्रभावित करने वाले झूठे दावों की संख्या में काफी बढ़ोत्तरी रही।
इस अध्ययन का आधार झूठा प्रचार-प्रसार करने वाली वे २४५ ख़बरें थीं जो Tattle Civic Technology नामक परियोजना के संग्रहालय से ली गयी थीं। दिल्ली आधारित ख़बरों से जुडी इस परियोजना का उद्देश्य पहली बार मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल करने वालों को सटीक ख़बरें पहुंचाना है। इस संग्रहालय में 23 जनवरी से लेकर 12 अप्रैल 2020 तक की वे सभी झूठी ख़बरें हैं, जिनका पर्दाफाश सत्य उद्घाटित करने वाली 6 एजेंसियों -ऑल्ट न्यूज़, बूमलाइव, फैक्टली, इण्डिया टुडे फैक्ट चेक, क्विंट वेबकूफ़ और न्यूजमोबाइल फैक्ट चेकर शामिल हैं। इन सभी एजेंसियों को International Fact-Checkers Network का सर्टिफिकेट हासिल है।
का यह अध्ययन कहता है कि हालाँकि प्रधानमंत्री मोदी द्वारा जनता कर्फ्यू की घोषणा के पहले ही झूठी ख़बरों के प्रसार को गति मिलने लगी थी, लेकिन मार्च महीने के तीसरे हफ्ते के बाद झूठी ख़बरों के पर्दाफाश होने की घटनाएं लगातार बढ़ने लगीं।
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अनेक सोशल मीडिया ऐप्स में जो झूठी ख़बरें चल रही थीं, उन्हें सात श्रेणियों में बांटा गया। ये श्रेणियां थीं -सांस्कृतिक, सरकारी, झूठी गणना इत्यादि। इस अध्ययन के अनुसार, 62 झूठी ख़बरें संस्कृति से जुड़ी थीं जिन्हें एक ख़ास सामाजिक-धार्मिक, नस्लीय समूह को निशाना बनाने के सन्देश के रूप में प्रसारित किया गया था। 54 उदाहरणों में झूठी ख़बरों को सरकारी घोषणाओं और परामर्श का जामा पहनाया गया था।
झूठी सूचनाओं को प्रसारित कर स्थिति अपने हिसाब से दिखाना
लगातार बढ़ते जाने की वजह से झूठी सूचनाओं की दो श्रेणियों ने शोधकर्ताओं का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। ये थीं संस्कृति और सरकार से जुड़ी खबरें। मुसलमानों, कोविड-19 और पुलिस ज़्यादतियों पर लगातार बढ़ रही ख़बरों ने इस नमूने को तैयार किया। मार्च का महीना ख़त्म होते-होते झूठी ख़बरों की तादाद जहां 16 मार्च से शुरू हुए सप्ताह में 15 थीं, 30 मार्च से शुरू होने वाले सप्ताह के आते-आते 33 पहुँच गयीं। मीडिया में आई रिपोर्ट्स में दिल्ली के निजामुददीन मरकज़ में आयोजित तब्लीगी जमात सम्मलेन को नोवेल कोरोनावायरस को फ़ैलाने का ज़िम्मेदार दिखाया जाने लगा।
इसके विपरीत मृत्यु से जुडी ख़बरें, डर पैदा करने वाले सन्देश, महामारी में लोगों की परेशानियां और कोविड-19 के ठीक होने से जुडी ख़बरें इसी दौरान 18 से घटकर 12 पर पहुँच गयीं।
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मुंबई स्थित बूम न्यूज़ के संपादक जेन्सी जैकब का कहना था, "तब्लीग़ी जमात की घटना के बाद हम झूठी ख़बरों के कलेवर में बदलाव देखने लगे। अब ये उस ख़ास समुदाय पर केंद्रित थीं जिसे "बीमारी फैलाने वाला महाकाय" के रूप में पेश किया जाने लगा। जहां तक सांप्रदायिक ख़बरों को प्रेषित करने का सवाल है तो केवल शब्दों में लिखा हुआ दर्शकों के साथ अपेक्षित भावनात्मक सम्बन्ध नहीं बना पाता है। और अनपढ़ लोग पता नहीं लगा पाते हैं कि वीडियो नया है या पुराना। इसके विपरीत इलाज सम्बन्धी ख़बरों (जैसे कि नीबू पानी पीना लाभदायक) पर विश्वास करने के लिए किसी चित्र की दरकार नहीं होती है।"
भावनाओं को भड़काना, सच्चाई से परहेज़ करना
अध्ययन में कहा गया है कि झूठी ख़बरों को लेकर भारत एक ऐसे दौर में प्रवेश कर रहा है, जहां वैज्ञानिक आधार पर जांचे जा सकने वाले तथ्यों के स्थान पर पहचान और भावनाओं को ज़्यादा तरजीह दी जाएगी। इस तरह बीमारी के झूठे उपचारों या दर्द की झूठी तस्वीरों (एक समय बाद जिनका पर्दाफाश हो जाता है या दर्शक जिसके झूठ को पकड़ लेते हैं) से निकल कर झूठी ख़बरों का संसार अब सांस्कृतिक तत्वों के इर्द-गिर्द रचा जाने लगा है क्योंकि सांस्कृतिक तत्वों की सत्यता स्थापित कर पाना मुश्किल होता है।
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इस अध्ययन के शोधार्थियों में से एक जोयोजीत पाल कहते हैं-" इसके पीछे बहुत से कारण हैं। एक कारण तो खुराफात और केवल खुराफात है-कुछ लोगों को झूठ में ही आनंद आता है - वे झूठ गढ़ते भी हैं और उसका प्रसार भी करते हैं। दूसरा कारण राजनीतिक है। ऐसा उन लोगों द्वारा किया जा रहा है जो एक ख़ास एजेंडे का वर्चस्व बनाये रखना चाहते हैं। इसके अलावा एक विशुद्ध आर्थिक कारण भी है- यू ट्यूब जैसे पेडफ़ॉर्म्स खबर पर क्लिक की संख्या के अनुसार पैसा देते हैं। ख़बरों को सनसनी बना पेश करने का मतलब है ज़्यादा से ज़्यादा लोग क्लिक करेंगे।"
झूठी ख़बरों का संसार कैसे काम करता है
यह अध्ययन इस और भी इशारा करता है कि अलग-अलग तरह की झूठी ख़बरों को प्रसारित करने के लिए मीडिया के अलग-अलग स्वरूपों का इस्तेमाल किया जाता है। उदहारण के लिए, मौत की श्रेणी से जुड़ी झूठी ख़बरों को प्रसारित करने के लिए वीडियो क्लिप्स जैसे दृश्य माध्यम का उपयोग किया जाता है, क्योंकि इसके पीछे उद्देश्य भय या हताशा जैसी शारीरिक प्रतिक्रया पैदा करना होता है। दूसरी ओर, तथाकथित उपचार और झूठे आंकड़ों को ले कर किये गए ट्विट्स बहुत ज़्यादा लिखे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं क्योंकि इसके पीछे उद्देश्य भटकाना होता है।
तथ्यों की जांच के बारे में प्रशिक्षण और पत्रकारिता में शिक्षण देने वाले जतिन गांधी कहते हैं-" लोगों के पास अब कहीं ज़्यादा समय है और अक्सर झूठी ख़बरें किसी एजेंडे के तहत ही आती हैं। महामारी के दौरान अनहोनी की आशंका और डर होता है जो झूठी ख़बरों के फैलने के माफिक हालात पैदा कर देते हैं। इनका इस्तेमाल सरकारी शासन की असफलता और बीमारी की कोई इलाज ना होने जैसे वास्तविक मुद्दों से भटकाने के लिए भी किया जाता है।"
अध्ययन में ये बात भी सामने आई कि 'संस्कृति' या 'मौत' की श्रेणी में आने वाली ख़बरें बहुत हद तक वर्तमान बहस को प्रभावित करने के लिए उठाई गयी पुरानी ख़बरें ही होती हैं। चूंकि ये दोनों ही श्रेणियां दर्शक को भावनात्मक रूप से प्रभावित करने की कोशिश करती हैं, इस तरह की विषय-सामग्री तैयार करने वाले अक्सर बढ़-चढ़ कर बात कहने वाली सामग्री तलाशते हैं और किसी ख़ास उद्देश्य के तहत एक झूठी हेडिंग लगाकर उसे फिर से परोस देते हैं क्योंकि इस तरह की ख़बरों का चौंकाने वाला महत्व ज़्यादा होता है।
मुख्यधारा के मीडिया की मिलीभगत
यह अध्ययन कहता है कि अख़बारों और न्यूज़ चैनलों सहित देश के मुख्यधारा के मीडिया घरानों ने झूठी ख़बरों का प्रसार थोक के भाव किया। यहां तक की दिग्गज हस्तियों ने भी झूठी ख़बरों को फ़ैलाने में भूमिका निभाई, क्योंकि उन्होंने झूठी ख़बरों को अपने सोशल मीडिया हैंडल्स से हटाया नहीं। उदाहरण के लिए उद्यमी किरण मजूमदार-शा ने यह ट्विट किया था कि दक्षिणी गोलार्द्ध के देश कोरोनावायरस महामारी से प्रभावित नहीं होते हैं। चूंकि यह बात उन जैसी बड़ी उद्यमी ने ट्विट की थी तो उसे कुछ हद तक विश्वसनीयता मिलनी शुरू हो गयी और बहुत से लोग उनकी बात को दोहराने लगे, हालाँकि ऑल्ट न्यूज़ इसकी सच्चाई का पर्दा फाश कर चुकी थी।
हालाँकि अध्ययन स्पष्ट कारण नहीं बता सका कि मुख्यधारा का मीडिया आखिर झूठी ख़बरों का व्यापार क्यों कर रहा था, लेकिन इसने यह इशारा तो कर ही दिया कि ख़बरों को पेश करने की अंधी दौड़ के माहौल में कुछ लोग सम्पादकीय मान्यताओं का निर्वहन करने से चूक जाते हैं।
इस रिपोर्ट के लेखक साफ़ लिखते हैं, "एक बात जो साफ़ नज़र आती है वो ये है कि झूठ तेज़ रफ़्तार से चलता है और यह कि जानबूझकर झूठी ख़बरों को प्रसारित करने वाले या आकर्षक हेडलाइन लगाने वाले मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स शायद पाठकों एवं दर्शकों की संख्या बढ़ाने में सफल भी हो जाते हैं। ऐसे परिदृश्य में खबर देने वाले मुख्यधारा के माध्यम मुसलमानों को सताने में सहभागी ही रहे हैं।"
(इण्डिया स्पेंड में प्रकाशित प्राची साल्वे की इस रिपोर्ट का अनुवाद पीयूष पंत ने किया है।)