'रजनी मुर्मू के पीछे पड़े आदिवासी समाज ने भ्रष्टाचारी-बलात्कारी-हिंसक-हत्यारे पुरुष का कभी इतनी ताकत से नहीं किया विरोध'
आदिवासी समाज के भीतर कोई पुरुष भ्रष्टाचारी निकल जाय, बलात्कारी निकल जाय, हिंसक निकल आए, हत्यारा निकल आए तो भी मैंने ऐसे लोगों के खिलाफ़ इतनी ताकत से उनका विरोध करते किसी आदिवासी समुदाय को नहीं देखा, जितनी ताकत वे एक स्त्री के खिलाफ़ लगाते हैं...
आदिवासी कवियित्री जसिंता केरकेट्टा ने खुलकर उठायी प्रोफेसर रजनी मुर्मू के पक्ष में आवाज
Rajni Murmu FB post Controversy : आदिवासी समाज के भीतर कोई पुरुष भ्रष्टाचारी निकल जाय, बलात्कारी निकल जाय, हिंसक निकल आए, हत्यारा निकल आए तो भी मैंने ऐसे लोगों के खिलाफ़ इतनी ताकत से उनका विरोध करते किसी आदिवासी समुदाय को नहीं देखा, जितनी ताकत वे एक स्त्री के खिलाफ़ लगाते हैं. अगर मुखर स्त्री किसी नौकरी में हो तो सबसे पहले उसे आर्थिक रूप से तोड़ना इनका मूल मकसद हो जाता है. और क्या हो जो कोई नौकरी न करती हो? तो उसकी हत्या या मॉब लिंचिंग करने से भी यह समाज पीछे नहीं हटेगा.
मेरा पूरा बचपन संताल समाज के बीच बीता है. गांव-गांव, गली-गली कूचा-कूचा. इस समाज के भीतर स्त्रियों की स्थिति क्या है? समाज की अपनी ताक़त और कमियां क्या है? यह उदाहरण और प्रमाण के साथ दिए जा सकते हैं. और यह भी कि आदिवासी समाज के भीतर पितृसत्ता किस तरह काम करती है. परंपराओं को समाज के लोग ही बनाते हैं और यह कोई न बदलने वाली चीज़ नहीं है. परंपराएं कितनी मानवीय रह गईं हैं? उसमें कौन सी बातें घुस गईं हैं? इस पर अपनी बात रखने का अधिकार उस समाज के स्त्री/ पुरुष सभी को है. विचार/ मंथन करने का काम भी समाज का है.
सहायक प्रो. रजनी मुर्मू अपने समाज की कमियों को लेकर हमेशा मुखर रहीं हैं. हाल के दिनों में उन्होंने सोहराय पर्व को लेकर फेसबुक पर कोई छोटी टिप्पणी लिखी. अगर यह टिप्पणी कोई पुरुष लिखता तो सम्भवतः कोई इतना ध्यान भी नहीं देता. लेकिन उनकी टिप्पणी पितृसत्तात्मक समाज को चुभ गई है. संताल समाज के युवा छात्र नेता चाहते हैं कि रजनी मुर्मू जैसी कोई स्त्री फिर कभी आलोचना करने की हिम्मत न कर सके इसलिए वे उन्हें नौकरी से हटाए जाने की पुरजोर मांग कर रहे हैं. यह हर उस स्त्री की बात है जिसके पास अपना एक नजरिया है और जो अपनी बात कहना चाहती है.
आदिवासी समाज कहने को तो सामूहिकता और संवाद पर यकीन रखता है. लेकिन इसके भीतर जाकर देखें तो यह सामूहिकता दरअसल एक ऐसी भीड़ है जहां व्यक्ति को बोलने, आगे बढ़ने की आजादी नहीं है. सामूहिकता के नाम पर लोग मिलकर एक दूसरे की टांग खींचकर उन्हें बर्बाद करने की जुगत में रहते हैं. जहां तक संवाद की बात है. संवाद तभी संभव है जब कोई दूसरे को सुन रहा हो. आदिवासी समाज के भीतर ऐसे संगठन तैयार हुए हैं जो किसी को बर्दाश्त नहीं कर सकते. सुन नहीं सकते. आलोचनाएं और शिकायत को ठीक से सुनने वाले लोग और समाज किसी के बोलने/ आलोचना करने/ शिकायत करने के मकसद को देखते हैं. आलोचनाओं के पीछे बहुतों का मकसद बुरा नहीं होता. कुछ भड़ास निकालने के लिए शिकायत करते हैं तो कुछ के शिकायतों के पीछे सुधार की प्रबल इच्छा काम करती है. शिकायतों को उन मकसदों के आधार पर देखना चाहिए.
आदिवासी समाज शिकायतों को सुनना नहीं सीख पाया है. संताल समाज के ऐसे छात्र नेताओं के दवाब में अगर वीसी सोना झरिया मिंज, सहायक प्रो.रजनी मुर्मू को नौकरी से निकालने की अनुमति देती हैं तो इससे बुरा उदाहरण और कुछ नहीं होगा. मैं समाज के प्रबुद्ध लोगों से अपील करती हूं कि जिस तरह भी बन पड़े आप उनकी मदद करें.