केंद्र ने सजायाफ्ता राजनेताओं के जीवन भर चुनाव लड़ने पर रोक लगाने की मांग का सुप्रीम कोर्ट में किया विरोध

सुप्रीम कोर्ट में केंद्र ने अपने हलफनामे में कहा है कि सरकारी लोक सेवकों की तरह निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के लिए सेवा शर्तां निर्धारित नहीं हैं। केंद्र ने इसके आधार पर तर्क दिया है कि ऐसे में सजा प्राप्त राजनेताओं के जीवन भर चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है...

Update: 2020-12-04 02:58 GMT

वरिष्ठ अधिवक्ता एमएल शर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में एक और पूरक अर्जी दायर कर पेगासस मामले में एफआईआर दर्ज कर जांच की मांग की। 

जनज्वार। केंद्र सरकार ने सजायाफ्ता राजनेताओं के जीवन भर चुनाव लड़ने की मांग का सुप्रीम कोर्ट में विरोध किया है। केंद्र सरकार ने इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट में उस याचिका के खिलाफ एक हलफनामा दाखिल किया है जिसमें वैसे नेताओं जिन पर आरोप तय किए जा चुके हैं उनके आजीवन चुनाव लड़ने पर रोक लगाने की मांग की गई है।

मौजूदा कानून के अनुसार, गंभीर अपराध के दोषी राजनेताओं के सजा पूरा करने के बाद छह साल तक चुनाव लड़ने से रोक का प्रावधान है।

जस्टिस एनवी रमन्ना की अगुवाई वाली एक बेंच ने एक याचिकाकर्ता की इस संबंध में दायर याचिका के आधार पर केंद्र से इस संबंध में जवाब मांगा था। याचिकाकर्ता एवं वकील अश्विनी के उपाध्याय ने अपने पीआइएल में इस संबंध में मिली राहत में संशोधन की मांग करते हुए कहा है कि दोषी ठहराए गए राजनेताओं के चुनाव लड़ने पर जीवन भर के लिए प्रतिबंध लगाना चाहिए। उन्होंने इस संबंध में समानता की मांग करते हुए याचिका में यह सवाल उठाया है कि क्यों सिर्फ एक सरकारी सेवक को आपाधिक मामले के लिए दोषी ठहराए जाने पर सरकारी नौकरी प्राप्त करने से जीवन भर के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया था।

इस मामले में सरकार से अदालत ने जवाब मांगा, जिसे लेकर कानून मंत्रालय के विधायी विभाग ने एक हलफनामा दायर किया है। इसमें कहा गया है कि सरकार कर्मचारी के विपरीत एक चुने हुए जनप्रतिनिधि के लिए कोई विशिष्ट सेवा शर्तें निर्धारित नहीं हैं। भले ही उन्हें लोक सेवक के रूप में वर्गीकृत किया गया हो। चुने हुए जन प्रतिनिधि शपथ से बंधे होते हैं, जो उन्होंने अपने निर्वाचन क्षेत्र के नागरिकों और विशेष रूप से देश की सेवा करने के लिए ली है।

कानून मंत्रालय ने अपने हलफनामे में कहा है कि जनप्रतिनिधियों का आचरण औचित्य, अच्छे विवेक से बंधा है और उनसे देश के हित में काम करने की उम्मीद की जाती है। वे पहले से ही जन प्रतिनिधि अधिनियम के सुप्रीम कोर्ट द्वारा समय-समय पर दिए गए अयोग्यता संबंधी शर्ताें से बंधे हुए हैं। सरकार ने कहा है कि कानून आम जनता व जनप्रतिनिधियों दोनों के लिए एक समान कठोरता से लागू होता है। 

सरकार ने अपने हलफनामे में 2019 के पब्लिक इंटरेस्ट फाउंडेशन केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया है, जिसमें कहा गया था, हालांकि राजनीति का अपराधीकरण एक कड़वा सत्य है, जो लोकतंत्र के गढ के लिए दीमक है, पर कोर्ट कानून नहीं बना सकता है।

उल्लेखनीय है कि चुनाव आयोग ने कुछ साल पहले निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को गंभीर अपराध में दोषी ठहराये जाने पर आजीवन चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाने का समर्थन किया था। 

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