आदिवासी युवक की कस्टोडियल डेथ मामले में पत्नी को 1 साल बाद भी नहीं मिला न्याय

आरोपियों का मनोबल आखिर क्यों ना बढ़े जब छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री घटना के मुख्य आरोपी तत्कालीन थाना प्रभारी विनीत दुबे को बुलाकर फीता कटवाते हैं...

Update: 2020-06-19 09:07 GMT

छत्तीसगढ़ के अम्बिकापुर से मनीष कुमार की रिपोर्ट

जनज्वार ब्यूरो। पेशे से तकनीशियन पंकज बेक गांव का सीधा साधा गरीब आदिवासी युवक था जिसका काम सरगुजा जिले के अम्बिकापुर में ग्लोबल एसोसिएट नामक संस्थान में इंटरनेट एवं सीसी टीवी कैमरे सुधारना था। बीवी बच्चों सहित उसकी जिंदगी किसी तरह संघर्ष से कट ही रही थी कि अचानक अपने दैनिक कार्य के दौरान एक दिन उसपर 13 लाख नगद चोरी का इल्ज़ाम लगता है। अंबिकापुर शहर के ही एक व्यवसायी तनवीर ने थाने में लिखित आवेदन दिया कि उसके घर के सीसी टीवी कैमरे को सुधारने के लिए 27 जून 2019 को पंकज बेक और इमरान खान आये थे। उन्होंने उसके अलमारी से नगद 13 लाख रुपये चुराए हैं, ऐसा नही था कि दोनों तकनीशियन पहली दफा उक्त व्यवसायी के घर गये थे वे पिछले कुछ वर्षों से उक्त व्यवसायी के यहां तकनीकी कम्प्लेंट मिलने पर सुधार के लिए जाते रहते थे।

यूं तो आम तौर पर पुलिस अकर्मण्यता के लिए बदनाम है ही लेकिन एक व्यवसायी के द्वारा आरोप लगा देने भर से बगैर किसी ठोस सबूत के अम्बिकापुर पुलिस ने पंकज बेक साथी इमरान और उनके घर वालों का जीना हराम कर दिया। जब मन लगता पुलिस उन्हें बुला लेती पूछताछ के नाम पर दिनभर नंगे बदन रखती, दोनो को दिनभर मारती, कभी मन करे तो छोड़ देती, वैसे तो अनेकों अनसुलझे वारदात थानों की फाइलों में धूल फांक रहे हैं परन्तु अम्बिकापुर पुलिस ने इस केस में इतनी कर्मठता एवं उदारता दिखाई कि जिस व्यवसायी तनवीर सिंह ने चोरी का आरोप लगाया था उसे स्वयं एवं उसके साथी को आरोपियों से इंट्रोगेशन करने के साथ मारपीट की खुली छूट दे रखी थी।

दरसल अम्बिकापुर में विश्वस्त सूत्र बताते हैं कि तत्कालीन थाना प्रभारी विनीत दुबे, उपनिरीक्षक मनीष यादव, सहायक उपनिरीक्षक प्रियेश जॉन सहित कुछ अन्य पुलिसकर्मियों ने एक गैंग बना रखा था। जैसे ही इन्हें किसी के विरुद्ध कोई आरोप प्राप्त होता ये आरोपी को थर्ड डिग्री टॉर्चर के बदले फिरौती वसूलने का काम करते हैं। बताया जाता है कि जमीन के धंधों से लेकर कोल माफिया तक इनके तार जुड़े थे। कानून व्यवस्था की आड़ में अवैध धनोपार्जन इनका मुख्य कार्य था।

22 जुलाई 2019 को साइबर सेल से थोड़ी दूरी पर मिली थी लाश

इस घटना में 20 जुलाई 2019 को आरोपी पुलिस वालों ने पंकज बेक और इमरान को निर्देश दिया था कि अपने परिवार के बैंक खातों के विवरण के साथ अगले दिन यानी 21 जुलाई 2020 को साइबर सेल में उपस्थित होना है। इसलिए वे उपस्थित हुए भी लेकिन वे नही जानते थे कि वे अम्बिकापुर पुलिस के पास नहीं बल्कि साक्षात यमराज के पास उपस्थित हुए हैं। चश्मदीद गवाहों के बयान से पता चलता है कि दिन से लेकर रात तक पारी बदल बदल कर पुलिस वालों ने इतना मारा कि दोनों के पैर के तलुवे नीले पड़ गए। अगले दिन पंकज बेक की लाश साइबर सेल थाने के बगल में स्थित एक निजी अस्पताल के प्रांगण में बैठी अवस्था में मिली और पानी का एक पाइप फंदे के रूप में गले में बंधा अस्पताल के ही विंडो कूलर से फंसा हुआ मिला था।

'मेरा क़ातिल ही मेरा मुन्सिफ़ है, क्या मेरे हक़ में फैसला देगा'

परिजनों के मुताबिक हत्या में शामिल पुलिसकर्मियों ने ही शव का पंचनामा किया। मौका- ए -वारदात पर पुलिस को छोड़, डेड बॉडी को देखने वाले हर चश्मदीद के मुंह पर एक ही बात थी कि घटना आत्महत्या की नही है। शक़ के पर्याप्त एवं ठोस कारण मौजूद थे जिन्हें समझने के लिए रॉकेट साइंस की जरूरत नही थी। मौका-ए- वारदात पर 9 फीट ऊपर कूलर तक पहुंचने के लिए ना तो कोई सीढ़ी थी ना अन्य कोई माध्यम। जिस पाइप से गर्दन से बंधी लाश मिली थी उसका दूसरा सिरा ऊपर कूलर से बंधा तक नही था जो 5 फीट 8 इंच ऊंचाई के एक 28 वर्ष के युवक की बॉडी का वजन सह सके।

पूरे बदन पर जगह जगह चोट के निशान जो खुद दास्तां बयां कर रहे थे। बावजूद इन सबके पुलिस एवं प्रशासन के अधिकारी मृतक के पिता से ही उसके पुत्र के डेड बॉडी को इस तरह उठवाकर ऑटोप्सी एवं पंचनामा कर रहे थे जैसे किसी का मवेशी मरा हो और नगरपालिका की टीम आयी हो। ऑटोस्पी वीडियो को देखने पर समझा जा सकता है कि किस प्रकार एक मजिस्ट्रेट, एसडीएम अम्बिकापुर अजय त्रिपाठी जैसे सक्षम अधिकारीयों की मौजूदगी में एफएसएल क्राइम सीन के प्रभारी मृतक पंकज बेक के पिता से दुर्व्यवहार कर रहे हैं।

'मेरा क़ातिल ही मेरा मुन्सिफ़ है क्या मेरे हक़ में फैसला देगा।' विडम्बना देखिये जिन पुलिसवालों ने बारी-बारी से रात को थर्ड डिग्री उसे टॉर्चर किया था वही लोग खुद उसकी लाश का पंचनामा करते सुबह वीडियो में दिखाई दे रहे हैं। विपक्ष में बैठी भाजपा ने कमेटी बनाकर जांच किया, जांच में भी हत्त्या का मामला बताया। अन्य कस्टोडियल डेथ की तरह इसमें भी शुरू हुआ भ्रष्ट और सड़ चुके सिस्टम का गन्दा खेल। घटना दिवस को पूरे शहर से लेकर मृतक के पैतृक गांव को पुलिस छवानी में तब्दील कर दिया जाता है। आनन-फानन में पोस्टमार्टम करवाकर खुद लकड़ी लाकर अंतिम संस्कार फटाफट करवाने के लिए पुलिस मृतक के परिजनों पर दबाव बनाती है।

सूत्र बताते हैं कि पोस्टमार्टम की रिपोर्ट को अपनी मर्जी से बनवाने एवं पोस्टमार्टम रिपोर्ट देने में देर करने के लिए डॉक्टरों की टीम पर दबाव बनाया जाता है। गिने चुने जो अखबार सवाल उठा रहे थे उन्हें लालच देकर या डराकर शांत कराने का प्रयास किया जाता है। खुद पुलिस अधीक्षक के द्वारा वरिष्ठ पत्रकारों को बुलाकर दबाव बनाया जाता है। स्थानीय विपक्षी दल के नेताओं द्वारा चक्का जाम किया जाता है। पूर्व गृह मंत्री के नेतृत्व में जांच कमेटी गठित कर साक्ष्यों के बयान एवं घटनास्थल का मुआयना कर विपक्ष के कमेटी द्वारा जो रिपोर्ट दी जाती है उसमें प्रथम दृष्टया हत्या का मामला बताया जाता है।

पुलिस अधीक्षक ने आरटीआई लगाने कहा और दो माह तक घुमाया

पीड़िता रानू बेक को पोस्टमार्टम की रिपोर्ट बहुत कठनाई से धक्के खाने के बाद दो बार आईटीआई लगाने पर लगभग 2 महीने बाद मिलती है। मजिस्ट्रियल जांच की रिपोर्ट भी अखबारों में प्रकाशित होती है जिसमें मौत कारण फांसी बताया जाता है। फिर क्या था अब तो अख़बारों की हेडलाइन बदल जाती है। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के आधार पर सब तरफ आत्महत्या की खबरें फैल जाती हैं। मृतक की पत्नी रानू बेक को सामाजिक तानों का शिकार होना पड़ता है। सड़े हुए सिस्टम से तंग आकर पीड़िता रानू बेक लिखित आवेदन देकर सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा खोजी पत्रकारों से इंसाफ की गुहार लगाती है, सर्वशक्तिमान सत्ता और आम आदमी के बीच जंग शुरू होती है।

सोशल मीडिया में पीड़िता की आवाज उठाने वाले पत्रकारों को पुलिस की धमकी

पुलिसकर्मियों एवं उनके समर्थकों द्वारा सोशल मीडिया में पीड़िता के पक्ष में आवाज उठाने वाले पत्रकारों एवं समाजिक कार्यकताओं को सार्वजनिक एवं फोन पर धमकियां दी जाती हैं। शिकायत करने पर पुलिस अधीक्षक स्तर का अधिकारी भी चुप्पी साध लेता है और पीड़िता को कार्यालय के चक्कर कटवाया जाता है। वह जिला कलेक्टर से लेकर प्रधानमंत्री तक, मानवाधिकार से लेकर अनुसूचित जनजाति आयोग तक शिकायत करती है। लंबे संघर्ष के बाद अंततः मात्र 5 आरोपियों के विरुद्ध एफआईआर दर्ज कर ली जाती है।

पुलिस जानबूझकर आईपीसी 306 एवं 34 के तहत आत्महत्या के लिए दुष्प्रेरण का मामला दर्ज करती है। अब पुलिस पक्ष की कहानी ही ज्यादातर अखबारों में प्रकाशित होती है कि मृतक पंकज बेक ने पुलिस की अभिरक्षा से भागकर आत्महत्या की है जिससे कि आरोपियों को हत्या के मामले से बचाया जा सके। पंकज बेक की हत्त्या हुयी या आत्महत्त्या ? इन गंभीर सवालों के जवाब पुलिस के पास नहीं। पीड़िता के साथ सामाजिक कार्यकर्ता एवं पत्रकार जंगी संघर्ष करते हैं और गम्भीर तकनीकी सवाल उठाते हैं जिसका जवाब किसी के पास नही था कि जब मृतक पंकज बेक के पैर के तलुवे में गहरी चोट के निशान पोस्टमार्टम में उल्लेखित हैं तो वह भाग कैसे सकता था?

इतना ही नही 4 दीवार जिनमें एक 12 फीट तक कि ऊंचाई का दीवार था उसे वह कैसे लांघ सकता था जबकि उसके पैर में कंटयूजन था? पीड़िता आला अधिकारियों से लिखित सवाल करती है कि आखिर मजिस्ट्रेट ने अपनी जांच में शरीर के चोटों का जिक्र क्यों नही किया? मजिस्ट्रियल जांच में मुख्य आरोपी का बयान क्यों नही लिया गया? पीड़िता को जांच में क्यों नही बुलाया गया?

पीड़िता मांग करती है कि आरोपियों के विरुद्ध एससी-एसटी प्रताड़ना अधिनियम के तहत हत्या का अपराध पंजीबद्ध किया जाए लेकिन भ्रष्टाचार का घुन पुलिस विभाग की जड़ों तक इस प्रकार घुस चुका है कि इंसाफ की उम्मीद भी बेमानी है। नतीजा, पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में चोट के प्रकार को फर्जी तरीके से बदलकर षड्यंत्रपूर्वक एवं विभाग की मिलीभगत से फोरेंसिक एक्सपर्ट से आत्महत्या की रिपोर्ट बनवा लिया जाता है। आरोपी सरेआम घूमते रहते हैं लेकिन किसी की गिरफ्तारी नही होती है। इस बीच रानू बेक कई बार शिकायत करती है कि आखिर एफआईआर दर्ज होने के बाद भी आरोपियों की गिरफ्तारी क्यों नही की जा रही है?

कोरोना लॉकडाउन के कारण सब ठंडे बस्ते में विधानसभा में जांच कमेटी गठित करने का निर्णय

आरोपी बाकायदा पार्टी मनाते हुए अपने फोटो, सोशल मीडिया में डाल रहे हैं, शायरी कर रहे हैं, पीड़ित पक्ष को धमका रहे हैं, परन्तु सुनने वाला कोई नही। आरोपियों का मनोबल आखिर क्यों ना बढ़े जब छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंह देव घटना के मुख्य आरोपी तत्कालीन थाना पर प्रभारी विनीत दुबे को बुलाकर अपने बगल में एक क्रिकेट मैच के उदघाटन का फीता उससे कटवाते प्रमुख न्यूज़ चैनलों में देखे जाते हैं। मामला गरमाता है और छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह विधानसभा में प्रश्न उठाते हैं। हंगामा होता है, विधानसभा एक जांच कमेटी गठित करने का निर्णय लेती है लेकिन कोरोना संक्रमण के लॉक डाउन के कारण सब ठंडे बस्ते में चला जाता है।

लॉकडाउन में आरोपियों को बचाने में फिर जुट गए भ्रष्ट पुलिस अधिकारी

लॉक डाउन के इस अंतराल के बाद अब विभागीय जांच के नाम पर मिलीभगत से आरोपियों को बचाने में फिर कतिपय भ्रष्ट अधिकारी जुट गये हैं जैसे ही रानू बेक ने विभागीय जांच कमेटी में वर्तमान यातायात प्रभारी एवं पूर्व थाना प्रभारी दिलबाग सिंह का नाम पढ़ा तो उसने आईजी रतन लाल डांगी से लिखित आवेदन देकर इंसाफ की पुनः गुहार लगाई है, पीड़िता ने बताया कि वैसे तो उनका पुलिस विभाग से भरोसा उठ चुका है परन्तु अखबारों में और सोशल मीडिया में सूबे में पदस्थ वर्तमान आईजी के लेख पढ़कर थोड़ी सी आशा की किरण उन्हें जरूर दिखाई दी है।

पीड़िता रानू बेक ने आईजी डांगी से अत्यंत मार्मिक अपील की है कि वे निष्पक्षता का ऐसा ऐतिहासिक उदाहरण पेश करें कि गरीबों और निर्बल लोगों में पुलिस के प्रति विश्वास कायम हो एवं अपराधी किस्म के पुलिस वालों में भय उत्पन्न हो, अब देखना यह है कि सूबे के रेंज में पदस्थ आईजी रतनलाल डांगी के सोशल मीडिया एवं अखबारों के लेख और विचारों की झलक उनकी कार्यशैली में भी देखने को मिलती है या इस बार भी हम हमेशा की तरह ठगे जाएंगे। 

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