कोसी का कहर: प्रलयंकारी बाढ़ इतिहास ही नहीं बनाती हर बार बदल देती है यहां का भूगोल
कोसी बांध के भीतरी इलाकों में रह रहे लोगों का कहना है कि आजादी के बाद बाढ़ से राहत दिलाने के नाम पर सरकार की पहल ही हम लोगों के लिए कब्रगाह बन गया....
जितेंद्र उपाध्याय की रिपोर्ट
जनज्वार। उत्तर बिहार का अधिकांश हिस्सा एक बार फिर प्रलयंकारी बाढ़ के चपेट में है। प्रत्येक वर्ष इन इलाकों में बाढ़ भारी तबाही लेकर आती है। जिसमें जानमाल की भारी क्षति का नुकसान उठाना पड़ता है। इसमें सबसे खास बात यह है कि बाढ़ हर साल जहां एक नया इतिहास रचती है,वहीं नदी की धारा गांव की भूगोल भी बदल देती है। कोसी महासेतु के बीच बसे सैकड़ों गांवों के लोगों की यही हकीकत है। ऐसे में एक बार फिर नदी की धारा में अपने घर व जमीन गंवा चुके ये परिवार अन्य स्थानों पर अपना सपना सजाने में लगे हैं। सात दशक में यहां के लोगों के साथ प्रलयंकारी बाढ़ का जहां लंबा इतिहास जुड़ा है,वहीं नदी की बदलती धारा ने भूगोल भी बदल दिया है।
200 वर्ष में नदी की धारा बदलकर चली गई 133 किलोमीटर दूर
कोसी नदी नेपाल से निकलने वाली तीन नदियों- सुन कोसी, अरुण और तमोर के मिलने से बनी है। करीब 720 किलोमीटर लंबी कोसी बिहार के कटिहार जिले के कुरसेला में गंगा नदी में समा जाती है। कहा जाता है कि कोसी के भारी मात्रा में अपने साथ गाद लाने के कारण पिछले 200 सालों में कोसी धीरे-धीरे अपना मार्ग बदलते-बदलते अभी अपने मूल मार्ग से 133 किलोमीटर दूर पश्चिम की तरफ बह रही है। कोसी अपने साथ जो गाद लाती है वह रास्ते में ही छोड़ती जाती है। इससे रास्ता अवरुद्ध हो जाता है और नदी अलग राह पकड़ लेती है।
तटबंध के भीतर के गांवों के लोगों का कहना है कि पिछले 50-60 सालों में कोसी ने इतनी गाद खेतों में डाली है कि खेतों की असली मिट्टी 20-25 फीट नीचे चली गई है। वह मिट्टी बहुत उपजाऊ थी, लेकिन अभी जो गाद आ रही है, उसमें रेत ही रेत है। अब हालत यह है कि कोसी तटबंध के भीतरी इलाकों से गुजरते हुए जमीन पर दूर तक दूधिया रंग के बालू की मोटी परत नजर आती है। अधिक बालू होने के कारण ज्यादातर खेत परती ही है।
हर बार उजाड़ना व फिर बसना बन गई है नियति
जुलाई माह में सुपौल जिले में कोसी नदी पर बना पश्चिमी सुरक्षा बांध टूट जाने की वजह से बिहार के सुपौल के अलावा मधुबनी जिले के सैकड़ों गांव प्रभावित हुए हैं। जिससे सुपौल के निर्मली समेत कई गांव के लोग सर्वाधिक तबाह हुए। पश्चिमी सुरक्षा बांध टूटने के कुछ घंटे बाद ही सीकरहटटा - मंझारी बांध में दरार आने की खबर ने लोगों के होश उडा दिए थे। उधर कोसी नदी के तेजी से कटान का नतीजा रहा कि कई गांवों के भूगोल ही बदल गए। इससे मात्र दो गांवों के सैकडों परिवारों का आसियाना उजड चुका है। यहां के लोगों का कहना है कि कोसी में बांध बनने के बाद से राहत मिलने के बजाए बाढ़ की विकरालता और बढती गई है।
मरौना प्रखंड के खोखनहा मन्ना टोला निवासी प्रमोद राम कहते हैं कि आजादी के बाद अब तक दस बार हमलोगों का गांव नदी में विलिन हो चुका है। हर बार उजडना व फिर से नया गांव बसाना हमारी नियती बन गई है। अब एक बार फिर अपने पुराने स्थान से कुछ दूरी पर नया घर बनाने में लगे हैं। वे कहते हैं कि जिन जमीनों पर हम घर बनाते हैं, उन जमीनों के मालिक को सालभर में किराये के मद में एक राशि देनी पडती है। यह धनराशि कम से कम प्रति कठठा पांच सौ रूपये से लेकर अधिक भी हो सकती है। मन्ना टोला के ही राजधर यादव कहते हैं कि बाढ में राहत के नाम पर मात्र सरकारी धन की लूट होती रही है।
कोसी के भीतरी इलाकों में रह रहे लोगों के पुनर्वास के लिए सरकार ने बंधे के बाहर के हिस्से में छह दशक पूर्व जमीन उपलब्ध कराया। अब हाल यह है कि समय के साथ परिवारों के बढने का नतीजा है कि अब प्रति सदस्यों का आकलन करें तो उन्हें अपने जमीन पर खड़े होने तक की जगह नहीं बची है।संतोष मुखिया की शिकायत है कि पुनर्वास के लिए जमीन आ वंटन में भी अनियमितता रही। जिसका नतीजा है कि अधिकांश जमीनों पर वाजिब व्यक्तियों का कब्जा न होकर अन्य लोगों का है जिसके चलते आए दिन विवाद की स्थिति बनी रहती है। बाढ़ के दौरान सरकार द्वारा घोषित फसल क्षति समेत अन्य नुकसान के लिए दी जानेवाली मुआवजे की राशि व राहत सामग्री भी अधिकांश लोगों तक पहुंच नहीं पाता है।
भीम सदा कहते हैं कि कोसी के इलाके की साफ साफ दो तस्वीरें नजर आती है। नदी के बीच एक हिस्से में बांध बन जाने से बाहरी हिस्से की आबादी सुरक्षित हो गई। दूसरी तरफ अंदर के हिस्से के लोगों को हर बार तबाही झेलनी पडती है। अब तक हमलोग दस बार नदी की धारा में अपना घर गंवा चुके हैं। हर बार उजड़ने के बाद एक नया ठिकाना तलाशना पड़ता है। इस बार भी सोखनहा पंचायत के मन्ना टोला व सिसौनी के जोबहा,एकडेरा गांव नदी में समा गया। अब एक किलोमीटर दूर ये आबादी बस रही है।
सरकार के बहकावे में आकर पूर्वजों ने अपने हाथों ही खिंची बदनसीबी की लकीरें
कोसी बांध के भीतरी इलाकों में रह रहे लोगों का कहना है कि आजादी के बाद बाढ़ से राहत दिलाने के नाम पर सरकार की पहल ही हम लोगों के लिए कब्रगाह बन गया। पूर्वजों को तत्कालीन सरकार ने बरगलाकर बांध निर्माण के लिए जमीन भी ली व श्रमदान भी कराया। अब हाल यह है कि बांध बनने के बाद हर वर्ष और तबाही झेलनी पडती है। सुपौल के इन पुराने लोगों को 60 के दशक में हआ वह ऐतिहासिक कार्यक्रम अब भी याद है, जिसमें कोसी के पूर्वी किनारे पर बांध बनाने के लिए आधारशिला रखी गई थी। शिलान्यास कार्यक्रम 14 जनवरी 1955 को सुपौल के बैरिया गांव में किया गया था। इसके लिए उस गांव में पक्का मंच भी बनाया गया था। पक्का मंच बनने के कारण कार्यक्रमस्थल का नाम बैरिया मंच हो गया। अब यह एक छोटा कस्बा बन चुका है। बांध की आधारशिला तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने रखी थी। उस दौरान लोगों बांध बनाए जाने का विरोध किया था। लेकिन सरकार व प्रशासन द्वारा बांध से होने वाले फायदे गिनाकर लोगों को बरगलाने का काम किया गया।
उस वक्त को याद करते हुए भगेलु प्रसाद कहते हैं कि अपने संबोधन में राष्ट्रपति ने कहा था कि उनकी एक आंख कोसी तटबंध के भीतर रहने वाले लोगों पर रहेगी और दूसरी आंख बाकी हिंदुस्तान पर। इस भावनात्मक संबोधन का नतीजा रहा कि लोगों ने खुद टोकरी-कुदाल उठा ली थी और बांध पर मिट्टी डाली थी। उन्हें नहीं पता था कि जिस बांध के लिए वह मिट्टी डाल रहे हैं, वह उनके लिए कब्रगाह साबित होगी। तटबंध बनने से बाढ़ से होने वाला जान-माल का नुकसान तो बढ़ा ही, खेती पर भी बेहद बुरा असर पड़ा है। कोसी अपने साथ जो गाद लाती है, उसमें बालू अधिक होता है। पहले तटबंध नहीं था, तो बालू बड़े क्षेत्र में फैल जाता था। इससे खेती पर उतना असर नहीं पड़ता था, लेकिन अब तो हर बार कोसी तटबंध के भीतर के खेत में ही बालू की मोटी परत छोड़ जाती है।
विक्रम महतो कहते हैं कि 4 एकड़ खेत है। इस पर पहले एक एकड़ में 20 मन तक अनाज हो जाता था, लेकिन अब 5 मन भी नहीं होता है।उनके मुताबिक यहां के अधिकांश पुरूष सदस्य छह माह के लिए पंजाब समेत अन्य राज्यों में मजदूरी के लिए चले जाते हैैं। वहां से कमाकर लाए गए धन से ही किसी तरह घर का खर्च चलता है। दो वर्ष से कोरोना के संक्रमण के कारण परेदेस में नौकरी छिन गई है।
अतीत की सच्चाई यह है कि छह दशक पहले कोसी तटबंध जब बना था, तब सैकड़ों गांव, हजारों एकड़ खेत और घर तटबंध के भीतर थे। उस वक्त सरकार ने तटबंध के भीतर रहने वाले लोगों को खेती के लिए जमीन तो नहीं, लेकिन जितनी जगह में उनके घर थे, उतने ही क्षेत्रफल का भूखंड तटबंध के बाहर देने का वादा किया था। लेकिन, इस वादे का हश्र भी वही हुआ, जो अधिकतर सरकारी वादों का हुआ करता है। कुछ मुट्ठीभर लोगों को ही तटबंध के बाहर जमीन मिल पाई। एक बड़ी आबादी के हिस्से में थोथा आश्वासन ही आया, लिहाजा उन्हें तटबंध के भीतर ही रहने को विवश होना पड़ा। अब मधुबनी, सहरसा, दरभंगा, सुपौल समेत कई जिलों के करीब 380 गांव तटबंध के भीतर बसे हुए हैं जहां की आबादी 10 लाख से ऊपर है। ये गांव तटबंध बन जाने से पहले भी कोसी का गुस्सा झेलते थे, लेकिन तब इसका रूप इतना क्रूर नहीं था। तटबंध बन जाने के बाद कोसी में जब भी बाढ़ आती है, अपने साथ भीषण तबाही लाती है।
निर्माण के बाद से अब तक आठ बार टूट चुका है बांध
तटबंध पहली बार अगस्त 1963 में डलवा में टूटा था। इसके बाद अक्टूबर 1968 में दरभंगा के जमालपुर, अगस्त 1971 में सुपौल के भटनिया और अगस्त 1980, सितंबर 1984 और अगस्त 1987 में सहरसा में बांध टूटा था। जुलाई 1991 में नेपाल के जोगिनियां में कोसी का बांध टूट गया था। अंतिम बार वर्ष 2008 में भारत-नेपाल सीमा के निकट कुसहा बांध टूटा था, जिसने भारी तबाही मचाई थी। तटबंध टूटने से उन क्षेत्रों में भी बाढ़ आ गई थी, जहां पहले कभी बाढ़ नहीं आई थी। इस भीषण बाढ़ से करीब 25 लाख लोग प्रभावित हुए थे और कोई 250 लोगों की जानें गई थीं। बाढ़ के कारणों की जांच के लिए एक सदस्यीय टीम गठित की गई थी। इस कमेटी ने अपने रिपोर्ट में बाढ़ के लिए प्रशासनिक लापरवाही को जिम्मेदार माना था। प्रशासनिक लापरवाही तो तात्कालिक वजह थी, लेकिन बाढ़ की मुख्य वजह तो बांध ही थे।
नदी विशेषज्ञ रंजीव के अनुसार, बांध बनने के पूर्व कोसी हर साल करीब 92.5 मिलियन क्यूबिक मीटर गाद अपने साथ लाती थी, जो बड़े भूभाग में फैल जाया करती थी। तटबंध बनने से नदी की राह तंग हो गई। इससे गाद नदी की सतह में जमती गई और नदी का तल तेजी से ऊपर उठता जा रहा है। हर साल कोसी का तल 2 मीटर ऊंचा उठ रहा है। इसका मतलब है कि आने वाले समय में बाढ़ की विभीषिका बढ़ेगी और इससे तटबंध के भीतर रहने वाली आबादी की जिंदगी बद से बदतर होती जाएगी।