Students Sucide : देश में खुदकुशी करने वाले छात्रों की क्यों बढ़ती जा रही है संख्या?
Students Sucide : शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने बताया कि आत्महत्या के सबसे ज्यादा मामले केंद्रीय विश्वविद्यालयों के छात्रों से जुड़े हैं, केंद्रीय विश्वविद्यालय सबसे अधिक 37 छात्रों ने वर्ष 2014 से 2021 के बीच आत्महत्या की है....
दिनकर कुमार की रिपोर्ट
Students Sucide : देश में खुदकुशी करने वाले छात्रों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। खुदकुशी (Suicide) के अलग-अलग मसले अलग ढंग के हैं लेकिन इसमें दो बातें समान हैं। इसमें पहली बात यह है कि इनमें से अधिकांश छात्र वंचित और अल्पसंख्यक तबकों (Underprivileged And Minorities) से हैं। वहीं दूसरी बात यह है कि इनकी शिकायतों और इन पर पड़ रहे दबावों पर संस्थान ध्यान नहीं देते। इनमें से बहुत सारे छात्र ऐसे रहे हैं जो परीक्षाओं में अधिक प्रतिशत हासिल करने की होड़ का दबाव नहीं झेल पाए।
बीते कुछ वर्षों के दौरान देश भर के आईआईटी (IIT), आईआईएम (IIM) एवं विभिन्न प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों और केंद्रीय विश्वविद्यालय (Educational Institutions and Central Universities) के कुल 122 छात्रों ने आत्महत्या की है। सोमवार को केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेद्र प्रधान (Dharmendra Pradhan) ने यह जानकारी लोकसभा के समक्ष रखी। लोकसभा में एक प्रश्न के लिखित उत्तर में, केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि वर्ष 2014 से 2021 के बीच इन 122 छात्रों आत्महत्या की है। आत्महत्या करने वाले 122 छात्रों में से 24 छात्र अनुसूचित जाति, 41 छात्र ओबीसी, तीन अनुसूचित जनजाति और तीन छात्र अल्पसंख्यक वर्ग से थे।
शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने बताया कि आत्महत्या के सबसे ज्यादा मामले केंद्रीय विश्वविद्यालयों के छात्रों से जुड़े हैं। केंद्रीय विश्वविद्यालय सबसे अधिक 37 छात्रों ने वर्ष 2014 से 2021 के बीच आत्महत्या की है। वहीं दूसरे नंबर पर अलग-अलग आईआईटी से संबंध रखने वाले 34 छात्रों ने वर्ष 2014 से 2021 के बीच आत्महत्या की है। राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान यानी एनआईटी के 30 छात्रों ने इस अवधि के दौरान आत्महत्या की।
भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलोर और आईआईएसईआर के 9 छात्रों ने वर्ष 2014 से 2021 के बीच आत्महत्या की है। आईआईएम के 5 छात्रों ने आत्महत्या की है। ट्रिपल आईटी के चार छात्रों और एनआईटीआईई मुंबई के तीन 3 छात्रों ने इस अवधि में आत्महत्या की है। शिक्षा मंत्री ने बताया कि छात्र उत्पीड़न और भेदभाव संबंधी घटनाओं को रोकने के लिए भारत सरकार और विश्वविद्यालय अनुदान (यूजीसी) द्वारा कई पहल की गई है। छात्रों के हितों की रक्षा के लिए यूजीसी विनियम 2019 बनाया गया है। इसके अतिरिक्त शिक्षा मंत्रालय ने शैक्षणिक तनाव को कम करने हेतु छात्रों के लिए पीयर लनिर्ंग असिस्टेंट, क्षेत्रीय भाषाओं में तकनीकी शिक्षा की शुरूआत जैसे कई कदम उठाए हैं।
इसके अलावा केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने मनोदर्पण नामक भारत सरकार की पहल के अंतर्गत कोविड महामारी के दौरान और उसके बाद छात्रों शिक्षकों और उनके परिवारों के मानसिक और भावनात्मक कल्याण हेतु मनोवैज्ञानिक सहयोग प्रदान करने के लिए कदम उठाए हैं। शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने संसद को बताया कि इसके अलावा भी छात्रों के समग्र व्यक्तित्व विकास और तनावग्रस्त छात्रों के लिए छात्र काउंसलर की नियुक्ति की गई है। छात्रों की प्रसन्नता और समृद्धि पर कार्यशाला, सेमिनार, नियमित योग सत्र आदि आयोजित किए जा रहे हैं। इसके अलावा छात्रों, वार्डन और केयरटेकर को छात्रों में तनाव के लक्षणों को नोटिस करने के प्रति संवेदनशील बनाया जा रहा है, ताकि ऐसे छात्रों को समय पर चिकित्सीय परामर्श प्रदान किया जा सके।
इन परिस्थितियों के लिए एक संस्थान के तौर पर मीडिया की नाकामी का उल्लेख जरूरी है। उदाहरण के तौर पर जनवरी, 2016 में तमिलनाडु में होम्योपैथी की पढ़ाई कर रही तीन दलित महिला छात्रों की खुदकुशी के मामले को लिया जा सकता है। इन तीनों ने न सिर्फ कॉलेज के चेयरमैन को बल्कि राज्य के अधिकारियों को भी अपनी प्रताड़ना के बारे में पत्र लिखा था। लेकिन जब कुछ नहीं हुआ तो गरीब परिवार की ये तीनों बच्चियां आत्महत्या की राह चुनने को मजबूर हो गईं।
मीडिया इन मामलों में सुसाइड नोट को तो प्रकाशित करता है लेकिन इस स्थिति में इन्हें मौत के बाद भी धोखा देने का काम होता है। कुछ दिनों और हफ्तों तक ये नोट सोशल मीडिया पर चलते रहते हैं। बाद में सब सामान्य हो जाता है। कुछ अपवादों को छोड़कर इन मामलों में चल रही पुलिस जांच का फॉलोअप नहीं किया जाता। ताकि कसूरवारों को सजा मिल सके।
इन मामलों में मीडिया से भी अधिक जवाबदेही उच्च शैक्षणिक संस्थानों के अधिकारियों की है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग रखने वाले ये संस्थान अपने छात्रों की पीड़ा को नजरंदाज करते हैं। अधिकांश दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक छात्र इन संस्थानों में अपरिचित माहौल के दबाव को नहीं झेल पाते। आम तौर पर ये छात्र गैर—अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों से आते हैं। इनके लिए अंग्रेजी माध्यम में हो रही पढ़ाई के साथ तालमेल बैठाना आसान नहीं होता। इनकी मदद के लिए कोई प्रभावी व्यवस्था नहीं दिखती। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्रों के साथ भेदभाव वाले बर्ताव की बात भी कुछ शीर्ष मेडिकल कॉलेजों से आई है। लेकिन यह रहस्य है कि ऐसे रिपोर्ट पर क्या कदम उठाए जाते हैं ताकि स्थितियां सुधर सकें। इन छात्रों को हॉस्टल से लेकर कक्षाओं और कैंटिन तक में भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। इन मामलों पर शायद ही ध्यान दिया जाता है।
मीडिया में यह बात आई कि केंद्र सरकार उच्च संस्थानों से काउंसलिंग और वेलनेस सेंटर स्थापित करने के लिए कहने वाली है। लेकिन अब जरूरत इन कदमों से आगे जाने की है। यह समझने की जरूरत है कि जो संस्थान एडवांस शिक्षा के लिए बने हैं और जिनका काम तार्किक और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के अलावा, वे क्यों नाकाम हो रहे हैं। इन संस्थानों के ये युवा छात्र जो अपने समाज में आदर्श हो सकते हैं, अपनी जान लेने को बाध्य हो जा रहे हैं। जबकि इन छात्रों को दाखिला कई तरह के संघर्षों के बाद मिलता है।
इस तरह के संवेदनशील मसले पर सार्वजनिक संवाद की जगह 'योग्यता' और 'आरक्षण' पर ही बात चलती रहती है। वंचित तबके और अल्पसंख्यकों की नुमाइंदगी करने वाली राजनीतिक पार्टियां भी इस मामले में विमर्श को आगे नहीं बढ़ा रही हैं और इस मामले में दीर्घकालिक कदमों की मांग नहीं कर रही हैं।