कोरोना के दौर में मजदूरों को मौत के मुंह से निकालने का एकमात्र उपाय है यूनिवर्सल बेसिक इनकम

Update: 2020-05-10 12:17 GMT

हमारे देश में यूनिवर्सल बेसिक इनकम तो छोड़िये मजदूरों के अधिकार छीन उन्हें दिया जा रहा है बंधुआ का दर्जा, यहां सामाजिक आर्थिक विकास सिर्फ बड़े उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने और देश को विभिन्न वर्गों में बांटने तक ही है सीमित...

महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

जनज्वार। देश में और विकाशील देशों में मजदूरों की और समाज के सबसे निचले वर्ग की हालत कभी भी ठीक नहीं रही है, पर कोविड 19 के दौर में लॉकडाउन और बंदी ने उनकी आर्थिक समस्याओं को विकराल बना दिया है।

पिछले वर्ष अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अभिजीत बनर्जी और इस्थर दुफ्लो ने हाल में ही गार्डियन में विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था पर कोविड 19 के प्रभाव से सम्बंधित एक लेख लिखा है। इसमें बताया गया है कि लॉकडाउन और तमाम पाबंदियों ने विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया है।

ज के दौर में पूर्वी एशिया के देश और यूरोप जब लॉकडाउन हटाकर अपनी अर्थव्यवस्था को संभालने में लगे हैं, तब अधिकतर विकासशील देशों में अभी संक्रमण का चरम काल चल रहा है और आर्थिक गतिविधियाँ ठप्प हैं। यह बताना कठिन है कि एशिया और अफ्रीका की अर्थव्यवस्था पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि अभी तो कोविड 19 का प्रभाव ही ख़त्म नहीं हुआ है।

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हो सकता है इन देशों की अपेक्षाकृत युवा आबादी के कारण यह महामारी यूरोप या अमेरिका जैसा असर नहीं दिखाए, पर दूसरी तरफ विकासशील देशों की स्वास्थ्य सेवायें किसी महामारी को संभालने में सक्षम नहीं हैं। विकासशील देशों में भूख भी बड़ी संख्या में आबादी को मारती है।

कोविड-19 के बारे में शुरू से कहा जा रहा है कि इसके नियंत्रण का मुख्य हथियार अधिक से अधिक लोगों की जांच है, और जो संक्रमित हैं उन्हें अलग कर उपचार कीजिये। पर अधिकतर विकासशील देशों ने पर्याप्त परीक्षण सुविधाओं के अभाव में शुरू से ही लॉकडाउन का रास्ता चुना, जिससे इस महामारी से निपटने के लिए स्वास्थ्य सेवाओं और सरकार को थोड़ा समय मिल सके।

दि शुरू से ही अधिक परीक्षण किये जाते तब कुछ इलाकों को बंद करने की आवश्यकता होती, न कि पूरे देश को। यदि कुछ इलाके ही बंद होते तब अर्थव्यवस्था ध्वस्त नहीं होती और भारी संख्या में मजदूर भी प्रभावित नहीं होते। समस्याएं यहीं ख़त्म नहीं होतीं, अब तो विकासशील देशों को पीपीई किट और वेंटीलेटर्स के लिए भी औद्योगिक देशों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है।

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भिजीत बनर्जी और इस्थर दुफ्लो के अनुसार लॉकडाउन की कीमत समाज को जो चुकानी पड़ती है, उसका आर्थिक विश्लेषण भी बहुत सरल नहीं है। उद्योग बंद हैं, बाजार बंद हैं और बेरोजगारी है – इसकी चर्चा तो सभी कर रहे हैं। पर इस दौरान बच्चों का टीकाकरण कार्यक्रम ठप्प है, दूसरे अन्य रोग उपेक्षा के कारण नए सिरे से पनप रहे हैं, पोषण का अभाव है, महिलाओं को चिकित्सा सुविधा नहीं मिल रही है, खेतों की खड़ी फसल कट नहीं पा रही है, जो फसल कट गयी वह बिक नहीं पा रही रही है।

संभव है कि समाज पर वायरस से जितना असर पड़ेगा उससे कहीं अधिक असर इन सारे प्रभावों का पड़े। कोविड 19 के पहले भी हरेक दिन पांच वर्ष से कम उम्र के 15000 से अधिक बच्चे गरीबी के कारण ऐसी बीमारियों से मर जाते हैं, जिन्हें रोका जा सकता है।

विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था सुधारने के लिए कुछ बातों पर ध्यान देना आवश्यक है। कोविड 19 का परीक्षण बढाकर बड़े इलाके की आर्थिक गतिविधियाँ फिर से शुरू की जा सकती है, जिससे बेरोजगार की समस्या कुछ सुधरेगी और अर्थव्यवस्था में कुछ मुद्रा का चलन बढेगा। विकासशील देशों को अपनी स्वास्थ्य व्यवस्था में सुधार की जरूरत है, जिससे सबको हमेशा स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हों और महामारी के दौर में भी स्वास्थ्य सेवायें इसका बोझ उठा सकें। इस समय विकसित देशों को विकासशील देशों की मदद के लिए आगे आने की जरूरत है, और मदद भी ऐसी शर्तों पर हो जिससे गरीब देश कर्ज के तले दब नहीं जाएँ।

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विकासशील देशों की सरकारों को गरीबों और बेरोजगारों को जीवनयापन के लिए धन तुरंत मुहैय्या कराने की जरूरत है, जिससे इनकी जिन्दगी पटरी पर आ सके। जब तक आवश्यकता है तब तक सरकार को गरीन और बेरोजगारों के लिए यूनिवर्सल बेसिक इनकम का प्रबंध करना आवश्यक है।

यूनिवर्सल बेसिक इनकम एक ऐसी राशि होती है, जिससे जीवन की बुनियादी जरूरतें पूरी की जा सकें। जब समाज के सबसे निचले तबके की बुनियादी जरूरतें आराम से पूरी होतीं हैं, तब समाज की बहुत सारी आर्थिक और सामाजिक परेशानियां दूर हो जातीं हैं।

भिजीत बनर्जी और इस्थर दुफ्लो ने एक छोटे से अफ्रीकी देश टोगा का उदाहरण दिया है। इसमें कुल 7900 संभावित कोविड 19 के मरीजों के अलावा प्रतिदिन 5000 से अधिक रैन्दोम परीक्षण किये जा रहे हैं, जबकि इसकी कुल आबादी 80 लाख है। लगभग 13 लाख पंजीकृत बेरोजगारों में से लगभग 5 लाख लोगों के बैंक अकाउंट में अब तक मदद के लिए मुद्रा भेजी जा चुकी है। जाहिर है, टोगा इन सब उपायों के कारण कोविड 19 के दौर में भी अपने नागरिकों को अधिक सुरक्षा दे पा रहा है।

यूनिवर्सल बेसिक इनकम की चर्चा बहुत की जाती है, पर इसका विरोध करने वाले अधिक हैं। विरोध करने वालों का प्रमुख तर्क होता है कि यदि आप बेरोजगारों को या फिर बहुत गरीबों को बिना किसी शर्त या काम के ही पैसे देंगे तो वे इसे व्यर्थ करेंगे और फिर कभी काम नहीं करेंगे।

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नेक देशों में इसपर छोटे स्तर पर परीक्षण भी किया गया, पर उन्हें अध्ययन का रूप नहीं दिया गया और इसका प्रभाव भी कभी स्पष्ट नहीं हुआ। दो वर्ष पहले दुनिया के सबसे खुशहाल देश फिनलैंड में यूनिवर्सल बेसिक इनकम से सम्बंधित अब तक का सबसे विस्तृत अध्ययन किया गया है। इसके नतीजे पिछले सप्ताह ही प्रकाशित किये गए हैं। इसके अनुसार बेसिक इनकम प्राप्त आबादी अपेक्षाकृत अधिक खुशहाल और संतुष्ट रहती है, मानसिक और शारीरिक तौर पर स्वस्थ्य रहती है और अधिक श्रम भी करती है।

सोशल इंश्योरेंस इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़िनलैंड द्वारा किये गए इस अध्ययन में 2000 बेरोजगारों का चयन कर उन्हें यूनिवर्सल बेसिक इनकम के तहत प्रति माह 560 यूरो दिए गए, इसमें कोई शर्त नहीं थी, और नौकरी मिलने पर भी यह रकम मिलनी थी। इनकी तुलना में 173000 अन्य बेरोजगार थे, जिन्हें बेरोजगारी भत्ता मिलता था और रोजगार मिलने के बाद यह भत्ता बंद कर दिया जाता है।

नुमान था कि बेसिक इनकम वाले लोग या तो रोजगार खोजेंगे ही नहीं या फिर कम दिन काम करेंगे। परिणाम के अनुसार बेसिक इनकम वालों ने साल में औसतन 78 दिनों तक रोजगार किया, जबकि बेरोजगारी भत्ता वालों ने औसतन 72 दिनों तक ही काम किया।

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मारे देश में जब मजदूरों और गरीबों को मरने के लियी छोड़ दिया जाता है, तब जाहिर है अभिजीत बनर्जी और इस्थर दुफ्लो की सामाजिक आर्थिक विकास की बातें सरकार को किसी अपशब्द से कम नहीं लगेंगी। यूनिवर्सल बेसिक इनकम तो मजदूरों के विकास की बात है, यहाँ तो इनके अधिकार छीनकर इन्हें बंधुआ का दर्जा दिया जा रहा है। अपने देश का सामाजिक आर्थिक विकास तो बड़े उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने तक और देश को विभिन्न वर्गों में बांटने तक ही सीमित है।

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