कोरोना वायरस से भारत के 80 फीसदी से ज्यादा प्रवासी मजदूरों की आजीविका पर संकट
सरकार ने लोगों से घर से काम करने का आग्रह किया है लेकिन यह भारत के लगभग 81% कर्मचारियों के लिए यह विकल्प ही नहीं है। इनमें दिहाड़ी और स्व-रोजगार वाले भी शामिल हैं जिनके पास अपने माल की मांग कम या खत्म होने पर भुगतान अवकास, बीमार अवकाश या अन्य लाभ जैसा विकल्प नहीं है। उनकी सेवा यहीं खत्म हो जाती है...
जनज्वार। पिछले सप्ताह की एक बेमौसम ठंडी शाम पर नारंगी सूर्यास्त का नजारा लाल बहादुर सोनकर को खुश करने वाला नहीं था। 52 वर्षीय फेरीवाला सोनकर उस दिन अपने माल (गर्म कोयले के ऊपर भुनी हुई मक्की) में से एक को बेचने में सफल नहीं हो पाया।
सोनकर कहते हैं कि मीडिया कोरोना वायरस पर लगातार अपडेट्स बताकर लोगों को डरा रहा है इसलिए कोई हैरानी की बात नहीं है कि जनता अब घर पर ही रह रही है।
अगले दिन (20 मार्च को) महाराष्ट्र राज्य के अधिकारियों ने मुंबई की सभी 'गैरजरूरी' दुकानों को मार्च के अंत तक बंद करने का आदेश दिया। अधिकारियों ने नागरिकों को कोरोना वायरस (COVID-19) के प्रसार को रोकने के लिए सार्वजनिक रूप से अपनी दूरी बनाए रखने ( एक प्रक्रिया जिसे 'सोशल डिस्टेंसिंग' के रूप में जाना जाता है) की चेतावनी भी दी जिसने दुनियाभर में लगभग 17,000 लोगों की जान ले ली है।
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फिर मंगलवार (24 मार्च) को केंद्र सरकार ने केवल आवश्यक सेवाओं (जैसे खाद्य भंडार, ईंधन और संचालित करने के लिए बैंक) को छोड़कर, भारत के सभी 1.3 बिलियन लोगों के लिए 21 दिनों के लॉकडाउन का आदेश दिया।
भारत में वर्तमान में 1,000 से कम कोरोना वायरस (COVID-19) मामलों की पुष्टि हुई है, लेकिन कम परीक्षण दरों (Testing Rate)की वजह से यह आंकड़ा बहुत अधिक हो सकता है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, वायरस से 10 से कम लोगों की मृत्यु हुई है, आने वाले हफ्तों में यह संख्या काफी बढ़ने की उम्मीद है।
भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर पिछले छह साल में सबसे निचले स्तर पर चल रही है, कोरोना वायरस की महामारी एक और समस्या के रूप में सामने आ गई है।
सोनकर पहले अपने सीफ़्रंट स्टॉल से रोज़ाना लगभग 40 ग्राहकों को सेवा देते थे तो महीने में लगभग 133 डॉलर कमाते थे, लेकिन अब उन्हें अपने बेटे के कॉल-सेंटर के वेतन पर पहले से अधिक निर्भर रहना पड़ेगा। वह कहते हैं, 'महीना बहुत जल्दी खत्म नहीं होगा। मुझे नहीं मालूम की अगले दो हफ्तों में कैसे व्यवस्था करूंगा।'
सरकार ने लोगों से घर से काम करने का आग्रह किया है। लेकिन यह भारत के लगभग 81 प्रतिशत कर्मचारियों के लिए यह विकल्प ही नहीं है। इनमें दैनिक वेतन भोगी और स्व-रोजगार वाले भी शामिल हैं जिनके पास अपने माल की मांग कम या खत्म होने पर भुगतान अवकास, बीमार अवकाश या अन्य लाभ जैसा विकल्प नहीं है। उनकी सेवा यहीं खत्म हो जाती है।
इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इकोनॉमिक रिलेशंस (आईसीआरआईईआर) की एक अर्थशास्त्री राधिका कपूर कहती हैं कि इस समूह के लिए काम नहीं करने की लागत बहुत अधिक है क्योंकि ये अपने हाथ, मुंह की मेहनत की कमाई से जीवन यापन कर पाते हैं। वह कहती हैं कि उनका आवास तंग और मलिन बस्तियों में होता है, जहां साफ-सफाई की सुविधाओं तक पहुंचना अधिक कठिन है, वह वायरस का प्रसार हो जाएगा और ये समुदाय वायरस का केंद्र बन जाएंगे।
कपूर कहती हैं कि इन लोगों को ना केवल आर्थिक रूप से बल्कि नैतिक रूप से भी बचाना बहुत जरूरी है। हमें वह करने की आवश्यकता है जो अभी जरूरी है और वित्तीय प्रभाव के बारे में बाद में सोचा जाए।
उत्तर प्रदेश और केरल समेत कई भारतीय राज्यों ने आकस्मिक श्रमिकों और कम आय वाले समूहों के लिए राहत पैकेजों की घोषणा की है। उम्मीद की जा रही है कि केंद्र सरकार भी इसी तरह के कदम उठाएगी लेकिन अभी के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नियोक्ताओं (रोजगार देने वाले) से 'सहानुभूति और मानवता' के साथ श्रमिकों के साथ पेश आने और अन्हें सामान्य रूप से वेतन देने का आग्रह किया है।
दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च और जस्ट जॉब्स नेटवर्क की एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर सबीना दीवान और कई विश्लेषकों का कहना है कि भारत पहले ही तंग राजकोषीय घाटे (आयात और निर्यात के बीच अंतर) की स्थिति में है, जरूरतमंदों के हाथों में पैसा दिया जा रहा है, इस तरह की परिस्थितियों के हिसाब से ये कार्रवाई का सबसे अच्छा तरीका है। भारत का राजकोषीय घाटा (सरकारी खर्च और आय के बीच का अंतर ) वर्तमान में इसकी अर्थव्यवस्था के आकार का 7.5 प्रतिशत है जो कि अन्य विकासशील अर्थव्यवस्थाओं जैसे वियतनाम (4.4 प्रतिशत) और बांग्लादेश (4.8 प्रतिशत) की तुलना में बहुत अधिक है।
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सबीना दीवान आगे बताती हैं कि यहां स्पष्ट करना जरूरी है यह एक आपातकालीन-आधारित वजीफा है, जिसके बारे में बहुत परिभाषित संदेश हैं कि यह निर्वाह कब रोका जाएगा। जोखिम यह है कि इस तरह की चीजें राजनीतिक रूप से जुड़ी हुई हैं और नकदी हस्तांतरण (Cash Transfer) को समाप्त करना मुश्किल है। भारत के जन धन-आधार-मोबाइल (जो मोबाइल नंबरों को बैंक खातों और पहचान पत्रों से जोड़ता है) बुनियादी इन्फ्रास्ट्रक्चर के तहत वित्तीय समावेशन में सुधार से देशभर में नकदी हस्तांतरण को आसान बनाया जाना चाहिए।
अभी तक कई प्रत्यक्ष-लाभ हस्तांतरणों का भुगतान सीधे गरीबों के बैंक खातों में किया जाता है, जिसमें सरकार की 'प्रधानमंत्री किसान आय सहायता योजना' के हिस्से के रूप में किसानों को लगभग 80 डॉलर प्रति वर्ष शामिल हैं, यह बड़े पैमाने पर नकदी हस्तांतरण का सबसे ताजा उदाहरण है। आईसीआरआईईआर की राधिका कपूर आगाह करते हुए आगे कहती हैं, लेकिन इसमें लॉजिस्टिक चुनौतियां होंगी। राज्यों और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच भारत की विशाल सामाजिक आर्थिक असमानता उचित हस्तांतरण राशि की पहचान करना मुश्किल बनाती है। कपूर आगे बताती हैं कि सरकार फूड हैंडआउट्स (खाने का सामान) पर भी विचार कर सकती है। लेकिन तब तक कई कम वेतन वाले भारतीयों को ये स्थिति भुगतनी पड़ेगी।
स्टॉकी रिक्शा चालक अजय कुमार गोले कहते हैं, मैं यात्रियों की तलाश में घूम रहा हूं लेकिन इसका कोई फायदा नहीं है। लोग मुश्किल से घरों से एक मील से अधिक की यात्रा कर रहे हैं। अजय कुमार गोले हर दो सप्ताह में उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में अपने घर को हर दो हफ्ते में कुछ हजार रुपये (करीब 26 डॉलर) भेजते थे लेकिन इस महीने वह कहते हैं कि वह इन पैसों को अपने लिए रखेगा। गोले आगे कहते हैं, उन्होंने (सरकार ने) कुछ सड़कों को बंद करने की घोषणा की है। शायद मैं कुछ समय के लिए जाऊंगा जब तक चीजें सामान्य नहीं हो जाती हैं।
लेकिन विश्लेषकों के लिए यह अनुमान लगाना कठिन है कि महामारी भारत में कब तक और कितनी गहराई तक पहुंच जाएगी। कोरोना वायरस (COVID-19)पर हालिया नोट में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) का अनुमान है कि वैश्विक स्तर पर 25 मिलियन नौकरियों तक का नुकसान हो सकता है।
आईसीआरआईईआर की राधिका कपूर कहती हैं कि महामारी फैलने के बाद भी कैजुअल मजदूर वर्कफोर्स से बाहर हो सकते हैं, क्योंकि वे खराब स्वास्थ्य से जूझते हैं और उनके रोजगार के पहले के साधन खत्म हो जाते हैं। वह कहती हैं, 'हम आगे यह भी देखेंगे कि बहुत कम लोग काम करने को तैयार हैं।'
हालांकि कोरोना वायरस के मामले अब तक शहरी क्षेत्रों में केंद्रित हैं, ग्रामीण अर्थव्यवस्था शहरों में काम कर रहे प्रवासी श्रमिकों से चलती है जो अपने घरों को पैसा भेजते हैं। जैसे अजय कुमार गोले वापस अपने घर जा सकते हैं वैसे ही प्रवासी श्रमिक वापस घर को लौटते हैं।
लगातार प्रभाव
लेकिन हर कोई इस बात से भी सहमत नहीं है कि लंबी अवधि के लिए लोगों के बैंक खातों में सीधे नकदी हस्तांतरण करना अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा है। कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि नकदी हस्तांतरण तत्काल संकट को कम कर सकता है, जो महंगा और अस्थिर है और यह लंबे समय तक आर्थिक ठहराव को हल नहीं कर सकता है।
अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर सस्टेनेबल एम्प्लॉयमेंट के प्रमुख अमित बसोले सुझाव देते हुए कहते हैं, 'यदि लगातार प्रभाव (Corona Virus Economic Impact) है, आप एक उत्पादक के रूप में अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करना चाहते हैं तो सरकार की मौजूदा ग्रामी रोजगार सृजन योजना को लागू करना चाहिए और शहरी क्षेत्रों में इसका विस्तार किया जाना चाहिए। मांग में गिरावट के साथ छोटे व्यवसायों का तेजी से सपोर्ट करना महत्वपूर्ण है जो भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं की रीढ़ बनते जा रहे हैं।
बसोले का कहना है कि संकट के समय ऐसी फर्मों का क्या हो सकता है, इसका एक अच्छा उदाहरण 2016 में देश के बड़े मूल्यवर्ग के करेंसी नोटों को वापस लेने का सरकार का अचानक लिया फैसला (नोटबंदी) था। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग द इकनोमी के मुताबिक, इसके बाद (नोटबंदी) से अनुमानित 1.7 मिलियन नौकरियां खत्म हो गई हैं। बसोले आगे कहते हैं, 'हमने देखा है कि यदि व्यवसाय उस अवधि तक (नोटबंदी के बाद) जीवित नहीं रह पाए, उनके लिए फिर खड़ा होना और उन्हीं लोगों को रोजगार देना मुश्किल था।'
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के साइथ एशिया टीम के डिसेंट वर्क टीम के डायरेक्टर डागमार वाल्टर भी इस बात से सहमत हैं। वाल्टर ने बताया, 'कई आकस्मिक और अनौपचारिक श्रमिक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नौकरियों के लिए छोटे और मध्यम उद्यमों के अस्तित्व पर निर्भर हैं, वह सुझाव देते हुए हैं कि जब बैंक कर्ज दे सकते हैं तो सरकार भी 'कर अवकाश और ऋण' के माध्यम से सहायता दे सकती है।
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भारत के श्रम और रोजगार मंत्रालय ने कहा है कि वह अनौपचारिक श्रमिकों के लिए सुरक्षा जाल को बढ़ाने के तरीकों को देख रहा है और संसद में सामाजिक सुरक्षा विधेयक में एक नया कोड बनाने के रास्ते पर हैं। कुछ श्रम कार्यकर्ताओं (Labour Activists) को उम्मीद है कि महामारी की तरह का संकट ऐसे श्रमिकों पर ध्यान केंद्रित करने और कम गुणवत्ता वाली नौकरियों के मुद्दे पर ध्यान देने में मदद करेगा।
आईसीआरआईईआर की राधिका कपूर पिछले 10 वर्षों में संगठित विनिर्माण क्षेत्र में गिग-इकोनॉमी वर्कर्स के बढ़ने और ठेका मजदूरों के बढ़ते अनुपात की ओर इशारा करते हुए कहती हैं कि अधिक 'अनौपचारिकता और अनिश्चित' रोजगार की दिशा में यह एक चिंताजनक प्रवृत्ति है। हमें किसी की नौकरी की प्रकृति की परवाह किए बिना व्यक्तियों के लिए अधिक सुरक्षा की आवश्यकता है,यह एक 'वेक-अप कॉल' होना चाहिए।
(यह रिपोर्ट पहले 'अल-जजीरा' में प्रकाशित की जा चुकी है। इसकी रिपोर्टिंग तिश सांघेरा ने की है। अनुवाद : निर्मलकांत)