अपनी कौम के लोगों के लिए क्यों खड़ा नहीं हो पाया कोई भी इस्लामिक मुल्क ?
हिंसा व्यापार बन चुका है, हथियारबन्द धर्म रक्षक आर्थिक साम्राज्यवादियों से सौदे करने वाले व्यापारी। हिंसा से ऊपजी अस्थिरता की आड़ में प्राकृतिक संसाधनों की लूट जारी है। आम मासूम जनता डर और हिंसा के साये में जी रही जिंदगी, जिनका आने वाला हर पल असुरक्षित है, वो क्या हक अधिकार और क्या रोटी रोजगार मांगेंगे...
संदीप सिंह
इस दुनिया को किसी भी इस्लामिक, किसी भी ईसाइयत या किसी भी हिन्दू राष्ट्र से जन्नत, हैवन या फ़िर स्वर्ग नसीब नहीं होने वाला। जहां ऐसा राष्ट्र है भी, वहां की आवाम को नरक जरूर नसीब हो रहा है। इस दुनिया को इंसानी मूल्यों पर आधारित राष्ट्र की ज्यादा जरूरत है जो सही मायने में लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित धर्मनिरपेक्ष समाज में ही सम्भव हो सकता है। हालिया के तीन ज्वलंत उदाहरण आप तक प्रेषित कर रहें हैं जो ऐसे लोगों की सोच को आईंना दिखाने का काम करेंगे।
पहला, मध्य पूर्व में ज्यादातर देश इस्लामिक राष्ट्र हैं जिसे वर्तमान समय में पूरी दुनियां का सबसे अशांत और हिंसा से ग्रस्त भूभाग में से एक गिना जाता है। विशेष रूप से तीन देश सीरिया, इराक़ और अफगानिस्तान। हालात क्या हैं पूरी दुनियां को मालूम है।
ये तीनों इस्लामिक राष्ट्र पहले भी थे, आज भी हैं, शायद कल भी रहेंगे। फर्क समझिये ! इन देशों के भीतर पनपी इस्लामी कट्टरता एवं तानाशाही प्रवृत्ति की राजनीति ने इनको गर्त में धकेल दिया। आज इन मुल्कों में इतना हथियार, गोला-बारूद पहुंच चुका है कि अगले कई दशक तक यहां शांति कायम हो पाना नामुमकिन है।
हिंसा व्यापार बन चुका है। हथियारबन्द धर्म रक्षक आर्थिक साम्राज्यवादियों से सौदे करने वाले व्यापारी। हिंसा से ऊपजी अस्थिरता की आड़ में प्राकृतिक संसाधनों की लूट जारी है। आम मासूम जनता डर और हिंसा के साये में जिंदगी जी रही है। जिनका आने वाला हर पल असुरक्षित है, वो क्या हक अधिकार और क्या रोटी रोजगार मांगेंगे।
अगर थोड़ा भी चूं-चपड़ किया। तो इन हथियारबन्द धर्मरक्षकों यानी इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (ISIS), तालिबानियों और तमाम अन्य कट्टरपंथी संगठनों की गोली नसीब होगी। चलो ये तो था पूर्ण इस्लामी राज का हाल। हमने इन समुदाय के भीतर का जो शिया, सुन्नी, अहमदिया, वहाबी अन्य तमाम पंथियों के बीच के हिंसात्मक तनावपूर्ण संघर्ष का तो जिक्र ही नहीं किया।
दूसरा, दुनिया में तेजी से विकसित होने वाली अर्थव्यवस्था है चीन। वहां कई दशकों से कोई लोकतंत्र नहीं है। वहां वन पार्टी सिस्टम और रेड कैपटलिज्म की तानशाही कई दशकों से क़ायम है। जब भी वहां के नागरिकों ने लोकतांत्रिक तरीके से सरकार के सामने अपनी मांगों को लेकर कोई प्रतिरोध दर्ज कराया या फिर विरोध-प्रदर्शन किया। तब-तब वहां की तानाशाही कम्युनिस्ट चीनी सरकार ने हिंसात्मक दमन करके उन लोगों की आवाज को हमेशा के लिए शांत करा दिया जिसके अमानवीय दर्दनाक किस्से कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में देखने या सुनने या पढ़ने को मिल जाएंगे।
पिछले एक दशक से चीन के भीतर पूरी दुनिया में एकछत्र राज स्थापित करने की ललक तेज हो गई। वह दुनिया का सबसे तेजी उभरता हुआ आर्थिक साम्राज्यवादी देश तो है ही और साथ ही दुनिया का सबसे बड़ा भूभाग उसके पास पहले से ही था लेकिन इन दिनों उसकी नीति और नीयत घोर विस्तारवादी हो चुकी है। वह लगातार अपने पड़ोस के सीमावर्ती देशों की जमीन हड़पने में लगा हुआ है, तिब्बत पर पहले से ही उसका अधिपत्य कायम है।
नेपाल पर भी उसकी नजर टेढ़ी है। दुनिया के तमाम छोटे देशों पर उसका राजनीतिक वर्चस्व लगातार बढ़ता जा रहा है। अपनी स्वायतत्ता को लेकर संघर्ष कर रहे हांगकांग में चीनी सरकार वहां के लोकतांत्रिक आंदोलनों का दमन किस तरीके से कर रहा है, उससे पूरी दुनिया वाकिफ है।
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चीन मात्र इस नीति के तहत अपना साम्राज्य तब तक पूरी दुनिया पर कायम नहीं कर सकता है। जबतक वह अपना सांस्कृतिक साम्राज्य पूरी दुनिया पर कायम न कर ले। जिसका पहला शिकार हो रहे हैं वहां के अल्पसंख्यक, यानी मुस्लिम समाज के लोग। जिनकी मुख्यधारा के बहुसंख्यक चीनी लोगों की बोली, भाषा, रहन-सहन और धार्मिक मान्यताओं से अलग हैं।
इसके लिए चीन के अल्पसंख्यकों यानी मुस्लिम समाज के लोगों की स्तिथि पूरी जानकारी के लिए आपको BBC की न्यूज रिपोर्ट्स की पूरी सीरीज देखनी होगी। किस तरीके से वहां के मुख्यधारा के बहुसंख्यक चीनी लोगों से अलग मुस्लिम समाज के लोगों की वहां के सरकार द्वारा सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को तेजी से खत्म किया जा रहा है।
कैसे एक के बाद एक चीन के तमाम मुस्लिम बहुल इलाकों से मस्जिदें गायब हो रहीं है। जो मशहूर बड़ी मस्जिदें बच गई हैं। उनमें कोई नमाज तक अदा करने तक नहीं जाता। वहां सब चुप हैं, डर के साये में हैं, कोई सच बोलनें को तैयार नहीं।
जो सच बोल सकते थे या बोलने की हिम्मत दिखा सकते थे, वे सब हिरासत केंद्र में कैद हैं। वहां सच बोलनें की जगह चीनी भाषा बोलनी सिखाई जा रही है। रहन-सहन, खान-पान सब बदला जा रहा है। जो ये सब करने से मना कर रहे हैं, उन्हें बुरी तरह से प्रताड़ित किया जा रहा है। भूख और प्यास से मरनें तक के लिए छोड़ दिया जा रहा है।
ये तो बीबीसी की बेसिक रिपोर्ट्स हैं। डिटेंशन सेंटर के भीतर क्या चल रहा है। किस तरह का ज़ुल्म हो रहा है किसी को पता नहीं क्योंकि दुनियां कोई भी मीडिया संगठन वहां तक पहुंच नहीं पा रहा है।
चीन का मकसद है सबसे पहले अपने देश की भीतर की विविधता को खत्म कर देना। जहां सिर्फ एक राष्ट्र, एक भाषा, एक संस्कृति हो। फिर उसको फिर पूरी दुनियां में प्रचारित करना। हमारी भाषा और हमारी संस्कृति सबसे श्रेष्ठ है क्योंकि हम दुनियां में सबसे आर्थिक रूप से सम्पन्न हैं। जो काम अब तक अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप के देश कर रहे थे, उससे भी खतरनाक तरीके से अब चीन करना शुरू कर चुका है।
ये तो था चीन के अल्पसंख्यक मुस्लिम समाज का हाल। जहां लोकतंत्र न होने से, बिना किसी प्रतिरोध के अधिकतर लोग हिरासत केंद्रों में हैं। उनकी धार्मिक एवं सांस्कृतिक पहचान अब कुछ सालों में दुनिया भर के लिए इतिहास बन जायेगा।
तीसरा, कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35 ए मोदी-शाह सरकार द्वारा हटा दिया गया। भले विपक्ष कहता रहा गया, यह गैर संवैधानिक एवं गैर लोकतांत्रिक फ़ैसला है। विपक्ष के तमाम विरोध के बावजूद भी इस मुद्दे पर सड़क पर आम लोगों की भीड़ नहीं जुटी, क्योंकि इस मुद्दे पर जनभावनाएं विपक्ष के साथ नहीं थी। नतीजा क्या हुआ, सबको मालूम है।
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कश्मीर में बहुसंख्यक मुस्लिम समाज कई महीनों तक अपने घरों में कैद रहा। वहां के नेता नजरबंद रहे। वो विरोध करते रहे और प्रतिरोध दर्ज कराते रहे। लेकिन कुछ नहीं हुआ। दुनिया कोई इस्लाम का हिमायती यानी इस्लामी राष्ट्र उन 80 लाख से अधिक कश्मीरी मुस्लिम के लिए खुलकर विरोध दर्ज नहीं कर पाया। मुस्लिम अस्मिता की पहचान बनाकर भी उनके पक्ष में ठीक से बोल भी तक नहीं पाया सिवाय पाकिस्तान के, वजह कश्मीर के भूभाग को कब्जे को लेकर उनकी पुरानी रंजिश, न की धार्मिक आस्था को लेकर। नतीजा क्या निकला। इस पर भी सोचिए !
कोई भी इस्लामिक राष्ट्र क्यों नहीं अपनी कौम के लोगों के लिए खड़ा हो पाया। वजह इस दुनिया में किसी राष्ट्र के लिए धार्मिक आस्था से बड़ा उसका आर्थिक आस्था होना। इन सभी इस्लामिक राष्ट्रों की आर्थिक आस्था का केंद्र बन चुका है भारत। जिसका वर्तमान और भविष्य है मोदी सरकार।
जो लोग इसे विस्तृत रूप से समझना चाह रहे हैं वे ग्लोबल पॉलिटिकल-इकनॉमी को लेकर गंभीर अध्यन करें। दुनिया में तेजी हो रहे ग्लोबल ट्रेड वार को समझें। जानें पॉलिटिकल इकॉनमी का क्या खेल है ? कैसे पूरी दुनिया में इकोनॉमी पॉलिटिक्स को ड्राइव कर रही है ?
अब आते हैं हिंदुस्तान के आम मुस्लिम समाज पर, क्या हाल है, उसे भी जानें ! सबसे पहले वे आज अपने मनोदशा से खुद पूछ सकते हैं की 2014 के पहले वे कैसा महसूस करते थे और आज क्या फ़र्क महसूस कर रहे हैं।
जब से आरएसएस/भाजपा यानी मोदी सरकार सत्ता में आई है। तबसे सबसे ज्यादा मुस्लिम समाज पर उनके धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को लेकर हमले हो रहे हैं। उनके खान-पान, रहन-सहन, पहनावे पर हमला हो रहा है। मॉब लिंचिंग आम बात हो चुकी है।
उनके रोजी-रोजगार पर लगातार हमला हो रहा है। उनके कारीगरी, खानदानी व्यसाय सब ठप्प किये जा रहे हैं। उनसे जुड़े छोटे-मोटे व्यसाय और उद्योग धंधों को कड़ाई से टैक्स के दायरे में लाया जा रहा है। उनकी सांस्कृतिक एवं आर्थिक कमर लगातार तोड़ी जा रही है। उन्हें इस सरकार द्वारा विकल्पहीन बनाया जा रहा है। जिससे उनका इस देश में जीना हराम हो जाये।
वर्तमान सत्तासीन सरकार ऐसा कर देना चाहती है कि हर पल आम मुस्लिम समाज अपनी पहचान को ही लेकर आशंकित रहे। डर के साये में रहे। वो आखिरकार ऐसी स्थिति में पहुंच जाए कि वो अपनी पहचान को बचाने के लिए हिंसा पर उतारू हो जाए।
इसी का फायदा बड़ी करीने से मोदी-शाह सरकार एवं उनकी समर्थक मीडिया हाउस उठा रहे है। मुस्लिम समाज के लोगों को तमाम जुमलों से जमकर बदनाम किया जा रहा है। जो दूसरे समाज के अन्य मानवीय प्रगतिशील लोग लोकतांत्रिक रूप से उनके हक और न्याय के लिए आवाज उठा रहे हैं। उन्हें हिंसा भड़काने वाला बताया जा रहा है। उन्हें जेलों में डालकर यातनाएं दी जा रही हैं।
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स्थिति ऐसी आ गयी है समाज के आम बहुसंख्यक हिन्दू वर्ग भी हिंसा के कारण असुरक्षा का बोध महसूस कर रहा है। किसी भी तरह की हिंसा को गलत बता रहा। जिससे बहुसंख्यक समाज की भावनाएं भी उनके खिलाफ जा रही हैं।
अब जानें खास मुस्लिम समाज का क्या हाल है
वे मुख्यतः दो तरह के हैं जो हर स्थिति में मौज में हैं पहले मुख्तार अब्बास नकवी और शाहनवाज हुसैन जैसे लोग, जिन्होंने संघ की सरपरस्ती स्वीकार कर ली है। उनके पास अब कोई नैतिक बल नहीं बचा है, इस सरकार की किसी भी फैसले की नाफ़रमानी कर सकें। अब उन्हें इस मुल्क में हर चीज स्वीकार करना है, जो वे बहुत पहले से सीख भी चुके हैं।
दूसरे वे जो संघ की साम्प्रदायिक हिंसा और नफऱत की राजनीति के बरक्स, वे भी अपने समाज के धार्मिक आस्था की भट्टी जलाकर साम्प्रदायिकता की रोटी सेंक रहे हैं। ये काम जमात-ए-इस्लामी, ओवैसी बंधु और कुछ मुस्लिम कट्टरपंथी संगठन कर रहे हैं, जो लोगों को धार्मिक उन्मादी नारों में गुमराह कर रहे है, जो उन्हें हिंसक होने के लिए प्रेरित कर रही है। उनकी धार्मिक भावनाओं को भड़काकर मुस्लिम साम्प्रदायीकरण की ओर धकेलते हुए अपना वोट बैंक मजबूत कर रहे, वे सत्ता में अपनी मजबूत भागीदारी की ख़ातिर आम मुस्लिम समाज की धार्मिकता का दोहन कर रहे हैं। उन्हें समाज के भविष्य की फ़िक्र करने की बजाय अपनी राजनीति उनके लिए सर्वोपरि बन चुका है।
आरएसएस भी यही चाहता है जिससे उसके भविष्य की राजनीति और आसान हो जाये। जितनी ज्यादा हिंसा होगी, उतना ही दमन करना उनके लिए आसान होगा। अगर हिंसा में लिप्त हुए तो आने वाले समय में मुस्लिम समाज के लोगों को समाज के दूसरे धर्म, पंथ और संप्रदाय के लोगों का समर्थन मिलना बंद हो जाएगा।
मानवीय स्तर पर उपजी बहुसंख्यक वर्ग की सहानुभूति भी न के बराबर हो जाएगी। एनआरसी, सीएए और एनपीआर आसानी से लागू हो जाएगा। हिरासत केंद्र तो बन ही रहे हैं। तब चाह के कोई कुछ नहीं कर पायेगा। संघ के हिन्दू राष्ट्र का सपना समय से पहले ही साकार हो जाएगा।
(लेखक गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं। लेख में लिखे गए विचार उनके निजी विचार हैं और जनज्वार का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है।)