लॉकडाउन से गुरुग्राम की झुग्गी बस्तियों में महिलाओं के स्वास्थ्य पर पड़ा बुरा असर, सामने खड़ी हुईं कई मुश्किलें

मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पिटल वी-मेडिका के सह-संस्थापक डॉ साहिल सिंह के अनुसार शहरों की झुग्गी बस्तियों में रहने वाली महिलाओं में लगातार सरदर्द की समस्या सामने आ रही है इसके कई कारण हैं...

Update: 2020-07-17 03:30 GMT

अंकिता मुखोपाध्याय की ग्राउंड रिपोर्ट

लॉकडाउन के दरम्यान गुरुग्राम के सिकंदरपुर घोसी झुग्गी बस्ती में रहने वाली बहुतायत महिलाओं की स्वास्थ्य संबन्धी एक सामान्य समस्या सामने आई है। लॉकडाउन के दौरान स्वास्थ्य संबन्धी समस्या के बारे में जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा 'जब से लॉकडाउन शुरू हुआ है, लगभग हर रोज सरदर्द की शिकायत रही है।' ये महिलाएं एक कमरे वाले मकानों में अपने कई बच्चों और पति के साथ रहतीं हैं, चूंकि पति को भी काम पर नहीं जाना था।

गुरुग्राम स्थित मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पिटल वी-मेडिका के सह-संस्थापक डॉ साहिल सिंह के अनुसार शहरों की झुग्गी बस्तियों में रहने वाली महिलाओं में लगातार सरदर्द की समस्या के कई कारण हैं। वे कहते हैं 'सरदर्द गैस्ट्रिक की समस्या के कारण होता है। देर से पेशाब करने, माहवारी के दौरान स्वच्छता का ख्याल नहीं रखने, शरीर मे आयरन की कमी और शौच को रोके रखने के कारण यह समस्या होती है। महिलाएं चूंकि सिर्फ चावल-दाल खा पातीं हैं, इसलिए इनके शरीर मे पोषक तत्वों की कमी हो जाती है। इन झुग्गियों में 10 से ज्यादा लोगों द्वारा एक ही टॉयलेट का उपयोग किया जाता है और वाशरूम भी गंदे होते हैं। इस कारण ये महिलाएं जबतक संभव हो, तबतक पेशाब रोकने को तरजीह देतीं हैं। अंत मे यही यूरीनरी ट्रैक्ट इंफेक्शन (UTI) और सरदर्द का कारण बन जाता है।'


बिहार की प्रवासी महिला 19 वर्षीया प्रियंका ने बताया कि लॉक डाउन शुरू होने के बाद से वे लगातार व्यग्रता (Anxiety) का शिकार हैं। उन्होंने गैस्टिक की भी शिकायत की। इसके बाद उन्हें स्थानीय एनजीओ स्माइल फाउंडेशन में ले जाया गया। यह एनजीओ झुग्गी बस्ती के लोगों को मुफ्त दवाएं उपलब्ध कराती है। यहां के डॉक्टर ने खानपान के अनियमित समय को इसका कारण बताया और समय पर खाना खाने को कहा। प्रियंका ने बताया कि जबसे लॉकडाउन शुरू हुआ है, उनकी खाने की इच्छा ही खत्म हो गई है। उन्होंने कहा 'मैं अपने एक वर्षीय बेटे के लिए बहुत चिंतित और डरी हुई रहती हूं। साथ ही मैं अपने परिवार के लिए खाना बचाना चाहती हूं, चूंकि हमारे पास राशन कम है तथा पैसे की कमी से हम और राशन खरीद नहीं सकते।'

राजनैतिक इच्छाशक्ति और सूचनाओं का अभाव

प्रियंका गुरुग्राम आने के बाद से अपने एक वर्षीय पुत्र के टीकाकरण में शिथिलता आने की शिकायत भी करतीं हैं। उन्होंने कहा कि लॉकडाउन शुरू होने के साथ ही स्थानीय सरकारी अस्पतालों में टीकाकरण का काम बंद कर दिया गया। 12-23 माह के शिशुओं को डिप्थीरिया, चेचक, पोलियो और हेपेटाइटिस-ए के टीके लगाए जाते हैं। प्रियंका कोरोना वायरस के लक्षणों से भी अनजान हैं और वे मास्क सिर्फ इसलिए लगातीं हैं, चूंकि दूसरे लोग भी मास्क लगा रहे हैं। वह सारी सूचनाओं के लिए अपने पति पर आश्रित हैं, क्योंकि उनके पास न तो स्मार्टफोन है, न ही वे अंग्रेजी समझतीं हैं।


लॉकडाउन के दौरान महिलाएं और क्या बाधाएं झेल रहीं हैं, इसे समझने के लिए एक आशा कार्यकर्ता से बात की गई। उन्होंने कहा 'मैं बस्ती में प्रतिदिन जाती हूं और लोगों को कोरोना वायरस के प्रति जागरूक करती हूं। मेरे पास बस्ती में रहने वाली महिलाओं की सूची है। जबसे लॉकडाउन शुरू हुआ है, ज्यादा संख्या में महिलाएं मुझे अपने गर्भवती होने की सूचना दे रहीं हैं।' यह पूछे जाने पर कि क्या बस्ती में कोई ऐसी महिला भी होगी, जिसे वे नहीं जानती हों, उन्होंने प्रतिवाद करते हुए कहा 'मैं पूरी निष्ठा से काम करती हूं। अगर हाल में भी कोई महिला यहां रहने आई होगी, उसकी भी जानकारी मेरे पास उपलब्ध है।'

झुग्गी का आंगनबाड़ी केंद्र (प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र) खाली पड़ा हुआ है। इसका गेट बंद था। जब भी यहां गए, इसका गेट बंद ही मिला। यह पूछे जाने पर कि केंद्र कब खुलता है, एक स्थानीय दुकानदार ने बताया 'कोई कभी भी आता है, कभी भी जाता है।' आशा कार्यकर्ता ने बताया कि अगर कोई महिला आंगनबाड़ी केंद्र से संपर्क नहीं कर पाती तो वे उसे स्थानीय सरकारी अस्पताल भेजतीं हैं। वैसे वे सिर्फ प्रसव के लिए ही इन महिलाओं को उस सरकारी अस्पताल भेजतीं हैं। वे फ्रंटलाइन स्वास्थ्यकर्मियों पर मीडिया के फोकस को लेकर निराशा जतातीं हैं। वे महसूस करतीं हैं कि कोई शक्ति है, जिसके कारण डॉक्टरों के प्रति मीडिया फोकस कर रही है और आशा कार्यकर्ताओं पर नहीं।

उन्होंने कहा 'झुग्गी में दो आशा कार्यकर्ता हैं। हम प्रतिदिन मरीजों के बीच काम करते हैं और हमें आजतक मास्क और ग्लब्स भी नहीं दिए गए। यहां तक कि हम कोविड19 के सैंपल भी बिना ग्लब्स के कलेक्ट करते हैं।' 'डॉक्टर और नर्स पीपीई किट पहनकर क्लिनिक और हॉस्पिटल जाते हैं, जबकि मैं अपने दुपट्टे का मास्क के रूप में प्रयोग करती हूं। क्या यह सही है?' उन्होंने क्रोधित होकर यह बात कही।

फील्ड में क्या स्थिति है

आंगनबाड़ी केंद्र के पास में ही एक निजी अस्पताल भी है। दोपहर बाद यह खाली पड़ा था। यहां एक डॉक्टर और एक स्टाफ थे। डॉक्टर, जो गायनोकोलॉजिस्ट थीं, उन्होंने बताया कि प्रसव के लिए वे 6 से 7 हजार रुपये चार्ज करते हैं। अभी यहां 6-7 मरीन हैं। वे ज्यादातर फोन पर ही सलाह दे रहीं हैं, ताकि लोगों से मुलाकात करने से बचा जा सके। जब लॉकडाउन के दौरान बच्चों के टीकाकरण में संबन्ध में पूछा गया तो उन्होंने आंगनबाड़ी केंद्र से जानने की राय दी।

'टीकाकरण और मुफ्त दवा की सुविधा यहां उपलब्ध है, पर अभी सेवा बंद कर दी गई है। जो यहां आते हैं, मैं उन्हें टीका लगती हूं। आंगनबाड़ी अस्थायी रूप से बंद है, क्योकि उच्चाधिकारियों से ऐसा आदेश मिला है।' उन्होंने ज्यादा विस्तृत जानकारी देने से इंकार कर दिया।

स्थानीय कम्युनिटी सेंटर, जिसके जिम्मे पका-पकाया खाना वितरण की जिम्मेदारी थी, उसे अप्रैल माह से ही बंद कर दिया गया है। पुलिस द्वारा राशन के लिए पंजीकृत किए जा के से इंकार किए जाने के बाद स्थानीय महिलाओं ने कुपोषण और भूख की शिकायत की। यहां भोजन का जुगाड़ करने का जिम्मा महिलाओं पर ही आ गया है, चूंकि पुरुषों ने पुलिस के आगे गिड़गिड़ाने से इनकार कर दिया है। एक स्थानीय पुलिस अधिकारी से संपर्क किया गया। उन्होंने कहा कि कुछ महिलाएं झूठ बोल रहीं हैं, क्योंकि उनके पतियों ने काम पर जाना शुरू कर दिया है। अगर उन्हें वास्तव में समस्या है तो उनके पति आकर राशन के लिए क्यों नहीं कह रहे?

बहुत सारी महिलाएं स्थानीय बंगलों में घरेलू कामगार थीं। अब उन्हें न तो तनख्वाह मिल रही है, न ही उनके पास काम है। मैंने उड़ीसा की एक प्रवासी महिला रीता देवी को पंजीकृत कराने के लिए हरियाणा सरकार के हेल्पलाइन पर फोन किया। सरकारी ऑफिशियल ने रीता को सड़क की सफाई के काम का प्रस्ताव दिया, पर रीता ने इससे इनकार कर दिया। उनकी सोच थी कि यह उनके वेतनमान से निचले दर्जे का काम है। उन्होंने कहा कि सड़क की सफाई करने की अपेक्षा वे भूख से मर जाना ज्यादा पसंद करेंगी। उन्होंने कहा ' मैं अपने गांववालों को क्या कहूंगी? क्या यह कहूंगी कि मैं यहां कंपनी या बंगला में काम करने आई थी और अब निचली जाति द्वारा किए जाने वाले काम सड़क की सफाई कर रही हूं?'


स्वास्थ संस्थानों ने महिलाओं को असफल किया

कोरोना वायरस महामारी ने भारत को यह चुनने के लिए मजबूर कर दिया कि कोविड 19 मरीजों को बचाया जाय या सामान्य मरीजों को। जनसंख्या और हॉस्पिटल बेडों के खराब अनुपात ने अस्पतालों को मजबूर कर दिया है कि वे अपने ज्यादातर डॉक्टरों और बेडों को कोविड 19 मरीजों के लिए आरक्षित कर दें। आंगनबाड़ी केंद्रों को इसलिए बंद किया गया है, ताकि यहां काम करने वाले स्वास्थ्यकर्मियों को कोरोना के संपर्क में आने से बचाया जा सके। इससे महिलाओं की मुश्किल बढ़ गई है क्योंकि उनकी स्वास्थ्य समस्याएं पीछे छूट गईं हैं। इन झुग्गियों में रहने वाली प्रवासी महिलाएं अपना दर्द खुद बर्दाश्त करने को मजबूर हैं चूंकि इनके पास ज्यादा विकल्प नहीं बचता।

बिहार के भागलपुर के एक डॉक्टर ने नाम प्रकाशित नहीं किए जाने की शर्त पर कहा, 'ऐसे भी मामले सामने आए हैं, जब कोई महिला माहवारी के दौरान भारी रक्तस्राव से ग्रस्त होकर अस्पताल गई और उसके लक्षणों में आराम के लिए सामान्य दर्द निवारक दवाएं दे दी गईं। आगे कोई फॉलोअप नहीं हो सकता, चूंकि मेरा अस्पताल अब कोरोना डेडिकेटेड अस्पताल घोषित कर दिया गया है।'

हरियाणा के नुह जिला के सरकारी अस्पताल में पदस्थापित डॉ ज्योति दाबास कहतीं हैं, 'लॉकडाउन के बाद महिलाओं ने कोरोना के डर से अस्पतालों में आना बंद कर दिया। ऐसे भी मामले हैं, जिनमें प्रसव के दौरान ज्यादा रक्तस्राव होने के कारण महिलाओं की जान चली गई है। भारतीय महिलाएं सामान्यतः आयरन की कमी का शिकार होतीं हैं और प्रसव पूर्व आयरन लेबल की जांच होना आवश्यक होता है। घर पर प्रसव पहले भी सामान्य बात थी और लॉकडाउन के बाद इसमें बढोत्तरी हुई है।'

डॉ. साहिल सिंह ने बताया कि गर्भपात के लिए एमटीपी (Medical Termination of Pregnancy) अब बिना किसी निगरानी के किए जा रहे हैं, चूंकि सरकारी अस्पतालों में गर्भपात बंद कर दिया गया है। उन्होंने कहा 'लॉकडाउन के दौरान महिलाएं गर्भपात के लिए फार्मेसियों में जा रहीं हैं, जो एमटीपी के लिए खुलेआम दवाएं बेच रहे हैं। कई महिलाएं, जो 6 और 7 महीनों के गर्भपात के लिए ये दवाएं ले रहीं हैं, उनकी मौत भी हुई है, पर यह सब लिखित में नहीं आएगा। क्योंकि अभी सारा ध्यान कोविड19 और है।' वे आगे कहते हैं कि लॉकडाउन के कारण तनाव और चिंता में वृद्धि हुई है, जिससे समयपूर्व प्रसव के मामले भी बढ़ रहे हैं।

घरेलू हिंसा का डर बढ़ा

लॉकडाउन से पहले इन झुग्गियों की महिलाएं घरेलू कामकाज और बच्चों की देखरेख की आदी थीं। ज्यादा कुछ नहीं बदला, सिवाय इसके कि लॉकडाउन के कारण अब उनके पति भी घर में ही रह रहे हैं। यह समस्या लगातार बढ़ रही है और घरेलू हिंसा से बचने में महिलाओं को कठिनाई हो रही है।

झुग्गी में रहने वाली जयंती देवी बात करते समय नर्वस थीं। उसका पति, जो एक मजदूर था, अपना काम गंवा चुका है और अब ज्यादा शराब का सेवन कर रहा है। वह उन्हें गालियां देता है और बच्चों के साथ मारपीट करता है। जयंती बोलीं, 'मैं चाहती हूं कि यह लॉकडाउन जल्द खत्म हो। मैं अपने पति बच्चों के भविष्य को लेकर डरी हुई हूं।'

डॉ साहिल सिंह कहते हैं 'मर्द अपनी खीझ पत्नियों को पीटकर निकालते हैं और पत्नियां तनाव व अवसाद की शिकार हो जातीं हैं।' हेल्थ इनिशिएटिव ऑफ द ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ORF) के वरिष्ठ शोधार्थी ओमेन सी.कुरियन कहते हैं, 'जब मैंने इसकी चौतरफा जांच की तो घरेलू हिंसा बढ़ने के कई कारण नजर आए। लॉकडाउन में कई राज्यों में शराब उपलब्ध नहीं था, जिससे बहुत सारे मर्दों ने विथडरॉल सिम्पटम को झेला और रोजगार के न होने से निराशा और अनिश्चितता में वृद्धि हुई, जिससे घरेलू हिंसाओं के मामले भी बढ़ गए। हम यहां अनुमान कर रहे हैं और आगे की शोध इसे स्थापित करेगी।'

घरेलू हिंसा से सुरक्षित बची महिलाओं को सहायता करने वाली एनजीओ शक्तिशालिनी की मोनिका तिवारी का कहना है की झुग्गियों में रह रही महिलाएं बढ़ी हुई घरेलू हिंसा के कारण ज्यादा तनाव और दबाव का सामना कर रहीं हैं। यहां तक कि उनमें आत्महत्या की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है। लॉकडाउन के दौरान शक्तिशालिनी के हेल्पलाइन पर आनेवाले ऐसे कॉल की संख्या बढ़ गई थी। यहां तक कि प्रतिदिन 5-6 कॉल आ रहे थे। मार्च 21 से 14 जून के बीच इस एनजीओ में ऐसे 360 कॉल आए, जिनमें महिलाओं ने चरम की भावनात्मक अत्याचार और मौखिक गालियों का सामना किया।


मोनिका ने कहा 'हमारी हेल्पलाइन 24 घंटे चालू रहती है, पर हमारे कार्यकर्ता भी इतने ज्यादा कॉल आने के कारण कार्यभार से दब गए थे। पत्नियों की प्रताड़ना के कई गंभीर मामले भी सामने आए। कुछ मामलों में पत्नियों को घर से बाहर फेंक दिया गया था और हमें उनका बचाव करना पड़ा।'

पति की घरेलू हिंसा की शिकार बिहार की एक प्रवासी महिला मजदूर बबीता देवी ने मुझसे सरदर्द की दवा लाने का अनुरोध किया। मैं वहां की स्थानीय डॉक्टर के पास गई, उसने कहा कि वह सिर्फ बीमारियों की प्राथमिक स्थिति का उपचार करता है। मैं झुग्गी के दूसरे क्लिनिक-सह-फार्मेसी- विश्वास हेल्थकेयर क्लिनिक पर गई। यह खाली था, सिवा एक आदमी के जो कोने में बैठा था और सो रहा था। वह सिर्फ इतना बताने के लिए जगा कि जैसे ही श्रमिकों के लिए ट्रेन शुरू हुई, डॉक्टर अपने गृह जिला चला गया। 'आपको अन्य बातों की चिंता करनी चाहिए। यहां के डॉक्टर उतने महान नहीं हैं।' उसने इतना कहा और फिर से सो गया।

(अंकिता मुखोपाध्याय की य​ह रिपोर्ट पहले feminisminindia.com में प्रकाशित। अंकिता के पास प्रसारण और डिजिटल मीडिया के कार्यों का 5 वर्षों का अनुभव है। उनके आलेख Deutsche welle(DW), The economist intelligence unit(EIU), The jakarta post, Indian express, Dainik bhaskar और यूथ की आवाज में प्रकाशित हो चुके हैं। 2020 में अंकिता को Geographic Society to cover a story on the COVID 19 pandemic की फेलोशिप मिली है।)

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