लॉकडाउन से ब्लड बैंकों में भारी कमी, कोरोना संक्रमण के डर से अस्पताल नहीं आ रहे रक्तदाता

Update: 2020-04-02 01:30 GMT

लॉकडाउन के दौरान स्थिति खराब हो गई है। अस्पताल कम कर्मचारियों के साथ काम कर रहे हैं और लॉकडाउन के प्रतिबंधों और कोविड 19 के मरीजों के संपर्क में आने के डर के चलते कम रक्त दाता अस्पताल या क्लिनिक में आ रहे हैं...

जनज्वार। कोलकाता की 27 वर्षीय सोशल मीडिया एक्जीक्यूटिव श्रेया मित्रा कहती हैं, मैं पिछले दो दिनों से लोगों से फोन पर बात कर रही हूं। मैंने मुश्किल से कोई नींद ली है या उचित भोजन किया है। मित्रा (जिन्हें थैलेसीमिया है, एक रक्त विकार जिसमें शरीर कम हीमोग्लोबिन का उत्पादन करता है) को हर 14-16 दिनों में ब्लड ट्रांसफ्यूजन की आवश्यकता होती है। वह बताती हैं कि एक अप्रैल को ब्लड ट्रांसफ्यूजन के लिए आवश्यक चार यूनिट ब्लड (500-600 लीटर) की व्यवस्था करने में उन्हें चार दिन लगे।

मित्रा ने इंडिया स्पेंड को बताया, 'पिछले 26 वर्षों से यह मेरी यही कवायद है'। हालांकि आगे वह कहती हैं कि लॉकडाउन ने चीजों को बदतर बना दिया है। इलाके के ब्लड बैंक ने फ्यूजन सेंटर को सूचित किया कि लॉकडाउन के कारण ब्लड प्रदान नहीं किया जा सकता। इसके बाद केंद्र ने एक आपातकालीन रक्तदान शिविर आयोजित किया लेकिन कुछ ही रक्तदाता आगे आए।

विश्व स्वास्थ्य संगठन का सुझाव है कि किसी देश की जनसंख्या के 1% लोगों की रक्त की आवश्यकता को उसकी रक्त आवश्यकताओं के अनुमान के रूप में उपयोग किया जाता है। जून 2018 में प्रकाशित एक इंडिया स्पेंड के लेख के अनुसार, भारत में प्रति वर्ष 1.9 मिलियन यूनिट रक्त की कमी थी। विशेषज्ञों ने कहा कि ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत में ब्लड बैंकों के प्रबंधन की व्यवस्था नहीं है और बहुत से लोग रक् दान नहीं करते हैं, जब तक कि उनके परिवार में किसी को इसकी आवश्यकता न हो।

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इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट में पाया गया कि लॉकडाउन के दौरान स्थिति खराब हो गई है। अस्पताल कम कर्मचारियों के साथ काम कर रहे हैं और लॉकडाउन के प्रतिबंधों और कोविड 19 के मरीजों के संपर्क में आने के डर के चलते कम रक्त दाता अस्पताल या क्लिनिक में आ रहे हैं।

25 मार्च से 21 दिन के लॉकडाउन से पहले ही महाराष्ट्र के स्वास्थ्य मंत्री ने 23 मार्च को घोषणा की थी कि रक्त की कमी है और अधिक से अधिक लोग रक्तदान करने के लिए आगे आएं। लॉकडाउन के बाद से पश्चिम बंगाल और ओडिशा में ऐसी ही स्थिति सामने आई है।

सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ राजीव चिब्बर पिछले तीन दिनों से अपने 12 वर्षीय बेटे के लिए एक रक्तदाता (ब्लड डोनर) की व्यवस्था की कोशिश कर रहे हैं। उनके बेटे को थैलेसीमिया है और हर 15-18 दिनों में ट्रांसफ्यूजन की जरूरत होती है जो उनके हिमोग्लोबिन के स्तर पर निर्भर करता है।

न्होंने बताया कि लॉकडाउन से पहले वह अपने पिछले वर्कप्लेस में स्टुडेंट्स और स्टाफ से रक्त दान के लिए कहते थे लेकिन अब (लॉकडाउन के बाद) लोग अस्पताल में आने से डरने लगे हैं।

फेडरेशन ऑफ बॉम्बे ब्लड बैंक्स की चैयरमेन और पैथोलॉजिस्ट जरीन भरुचा ने कहा, COVID -19 से संक्रमित होने के डर के कारण लोग ब्लड बैंकों और विशेषकर अस्पतालों के भीतर ब्लड बैंकों में नहीं जाना चाहते हैं।

मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल (KEM) अस्पताल की सामाजिक कार्यकर्ता कविता सस्सेन ने कहा कि लॉकडाउन में आवाजाही प्रतिबंधित है, इसलिए अस्पताल या ब्लड बैंक से दूर रहने वाले नियमित रक्तदाता नहीं आ सकते हैं और आस-पास के क्षेत्रों में नए रक्तदाताओं को ढूंढना एक चुनौती है।

चिब्बर (जिनके बेटे को ब्लड ट्रांसफ्यूजन की आवश्यकता है) ने कहा कि एक रक्तदाता गाजियाबाद के इंदिरापुरम से आने को तैयार था लेकिन यह दिल्ली एनसीआर में स्थित हैं जो उत्तर प्रदेश की सीमा के अंतर्गत आता है जबकि चिब्बर दिल्ली के सीमा में रहते हैं।

न्होंने कहा कि लोगों की लगातार पुलिस चेकिंग और आसपास जाने के लिए सार्वजनिक परिवहन की कमी के कारण राज्य की सीमाओं को पार करना बहुत मुश्किल है।

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रूचा ने कहा, जब लोग आते हैं तब भी डॉक्टरों को सावधान रहना होगा कि रक्तदान कौन कर रहा है। रक्तदाता के यात्रा के इतिहास या विदेश यात्रा के इतिहास का सवाल पूछना होगा।

सामाजिक कार्यकर्ता कविता सस्सेन ने बताया कि अन्य मुद्दा कर्मचारियों की कमी है। भले ही हमे रक्तदाता मिल जाए, हमारे पर कॉल पर स्टाफ नहीं है क्योंकि नालासोपारा या विरार में बहुत से लोग अस्पताल से कम से कम एक घंटा दूर रहते हैं।

स्सेन कहती हैं, जिन रोगियों को भर्ती किया गया है, हम रोगी के स्वस्थ रिश्तेदारों से ही उनके लिए रक्तदान के लिए कहते हैं। लेकिन लॉकडाउन के साथ ही अस्पताल के आसपास की कैंटीन और भोजनालयों को भी बंद कर दिया गया है और इन रिश्तेदारों ने खाना भी नहीं खाया है और उनसे रक्त लेना अच्छा नहीं होगा।

स्सेन ने कहा कि अधिकांश सरकारी अस्पतालों में सभी ऐच्छिक सर्जरी कराने के बावजूद यह खून की कमी मौजूद है। हमारे पास थैलेसीमिया, सिकल सेल और अप्लास्टिक एनीमिया और रक्त कैंसर के मरीज हैं, जिन्हें सभी गैर-जरूरी सर्जरी में कटौती के बावजूद हर रोज रक्त की आवश्यकता होती है। उन्होंने कहा कि हर दिन कुछ 10-15 रक्तदाता आ रहे हैं, जबकि जरूरत 150-170 की है।

सी तरह की स्थिति अन्य अस्पतालों में मौजूद है। उदाहरण के लिए, चिब्बर ने कहा नई दिल्ली में इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल जहां उनका बेटा आमतौर पर ट्रांसफ्यूजन के लिए जाता था, वहां रोजाना केवल 10 रक्तदाता आ रहे हैं। लॉकडाउन से पहले 200-250 से रक्तदाता आते थे। अस्पताल ने हमसे (माता-पिता और रोगियों के रिश्तेदारों) से अनुरोध किया है कि वे कम से कम पांच-छह रक्तदाताओं को उपलब्ध कराएं।

मतौर पर मुंबई के जमशेदजी जीवनभोई अस्पताल में एक महीने तक रक्त का भंडार रहता था। अस्पताल में स्वास्थ्य सेवाओं की निदेशक साधना तायडे बताती हैं कि लेकिन यह रक्त भंडार वर्तमान में 12 दिनों से कम समय के लिए बचा है।

तायडे कहती हैं कि स्थिति बदतर है क्योंकि जनवरी और मार्च 2020 के बीच महाराष्ट्र में कोरोना वायरस संक्रमण के डर से कोई रक्तदान शिविर नहीं आयोजित किया गया। अब विशेष सावधानियों के साथ रक्तदान शिविर हो रहे हैं।

फेडरेशन ऑफ बॉम्बे ब्लड बैंक की भरूचा ने कहा कि वे रक्त संग्रह शिविरों के लिए विशेष प्रावधान कर रहे हैं ताकि किसी समय उपस्थित पांच लोगों के साथ सोशल डिस्टेंसिंग को सुनिश्चित किया जा सके। उन्होंने कहा कि शिविर में सैनिटाइजर उपलब्ध कराए जाएंगे, कचरे का निपटान सावधानीपूर्वक किया जाएगा और सभी संक्रमण नियंत्रण संबंधी सावधानियां बरती जाएंगी।

दिल्ली स्थित एक पब्लिक पॉलिसी रिसर्च एंड एडवोकेसी फर्म, चेज इंडिया में हेलथकेयर प्रैक्टिस को लीड कर रहे सूर्यप्रभा सदासिवन कहती हैं कि भारत में रक्तदान मौसमी है। भारत में अधिकांश रक्तदान 'रिप्लेसमेंट' रक्तदान है, जिसका अर्थ है कि यदि किसी अस्पताल में किसी व्यक्ति को भर्ती कराया जाता है और वह ब्लड बैंक से ब्लड ट्रांसफ्यूजन हासिल करता है तो वह किसी ओर से रक्तदान करने के लिए कहकर उसी कीमत पर रिप्लेस कर देता है। वह कहती हैं कि भारत में परोपकारी दान की कोई संस्कृति नहीं है। रक्तदान तब हीकिया जाता है जब मांगा जाता है।

दासिवन कहती हैं, भारत अफ्रीकी देशों से सीख सकता है कि किस तरह स्कूल और कॉलेजों में रक्तदान कार्यशालाओं को आयोजित बच्चों को रक्तदान के लिए जागरूक किया जाता है। यह एक सांस्कृतिक बदलाव पैदा करता है और लोगों को जल्दी दान करने के लिए राजी करता है।

दिसंबर 2019 तक, राज्यसभा और लोकसभा में प्रश्नों के उत्तर के अनुसार, भारत में 3,321 ब्लड बैंक (प्रति मिलियन लोगों पर 2.45 ब्लड बैंक) थे और 2018-19 में 12.5 मिलियन यूनिट रक्त एकत्र किया था।

रूचा ने कहा, 'रक्त आमतौर पर एक महीने में और कुछ मामलों में 45 दिनों में समाप्त हो जाता है। प्लाज्मा को एक वर्ष तक और प्लेटलेट्स को केवल पांच दिनों तक संग्रहीत किया जा सकता है।

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विशेषज्ञों ने कहा, यदि रक्त शिविर और बैंकों को अच्छी तरह से व्यवस्थित नहीं किया जाता है, तो बहुत सारा रक्त भी बर्बाद हो सकता है। उदाहरण के लिए अगस्त 2017 में राज्यसभा मेंदिए गए एक जवाब में कहा गया था कि 2014-15 और 2016-17 के बीच, हर साल 1 मिलियन यूनिट से अधिक रक्त बर्बाद किया गया।

दासिवन ने कहा कि नेशनल ब्लड ट्रांसफ्यूजन काउंसिल के अनुसार रक्त की बर्बादी को कम करने के लिए रक्त बैंकों पर दिशानिर्देश हैं, जो लाइसेंस प्राप्त रक्त बैंकों के बीच रक्त स्थानांतरित करने के लिए नियम बनाता है। हालांकि हर कोई केंद्रीयकृत तंत्र नहीं है, हर ब्लड बैंक इन दिशानिर्देषों का पालन नहीं करता है।

न्होंने कहा कि विभिन्न ब्लड बैंकों का स्वामित्व सरकार, निजी कंपनियों और गैर-लाभकारी संस्थाओं के पास है, जिससे ब्लड बैंकों में कोई भी समन्वय कठिन हो जाता है। यहां तक ​​कि अगर एक ब्लड बैंक में जरूरत से ज्यादा यूनिट्स हैं, तो भी कुछ ओर के साथ साझा नहीं करते हैं।

(प्राची साल्वे की यह रिपोर्ट पहले www.indiaspend.com में प्रकाशित। जनज्वार में उसका संपादित अंश।)

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