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Ground Report : नमक और सूखी रोटी चबाकर भुखमरी से यूं जीत रहा है मध्यप्रदेश का शिवपुरी
Ground Report : नमक और सूखी रोटी चबाकर भुखमरी से यूं जीत रहा है मध्यप्रदेश का शिवपुरी
सौमित्र रॉय की रिपोर्ट
Ground Report : इन दिनों मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) की अधिकांश स्वयंसेवी संस्थाएं और सरकारी अधिकारी धड़ल्ले से एक जिले का दौरा करने में जुटे हैं। लाल-पीली बत्तियां लगीं गाड़ियां और पीले नंबर प्लेट वाली एयरकंडीशंड टैक्सियों से लोग उतरते हैं। पेन कागज से कुछ लिखते हैं और नाक-भौं सिकोड़ते हुए ग्वालियर (Gwalior) के किसी आरामदायक होटल में ठहरने चले जाते हैं। जिले का नाम है शिवपुरी (Shivpuri) और यह देश के सबसे पिछड़े जिलों में गिना जाता है। भयंकर कुपोषण और भूख से मौत (Death From Malnutrition And Starvation) के सैकड़ों मामलों के बाद एक बार केंद्र सरकार और बार-बार प्रदेश की शिवराज सरकार को शर्मिंदा करने वाला जिला है शिवपुरी।
लेकिन हाल के सरकारी और एनजीओ के गैर सरकारी दौरों का कारण यह नहीं है। वजह यह है कि भुखमरी के शिकार इस जिले में रहले वाले सहरिया आदिवासियों की भूख अब कम हो गई है। दरअसल, मध्यप्रदेश सरकार का महकमा और आदिवासियों की भूख मिटाने में नाकाम एनजीओ (NGO) इसी चमत्कार को देखने पहुंच रहे हैं।
भारत में देखिए इथोपिया और चाड जैसी भुखमरी
इस भयावह सच का सामना जिले के सबसे बदहाल पातालगढ़ गांव जाकर होता है। वैसे इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (International Food Policy Research) की पिछली रिपोर्ट में शिवपुरी जिले को इथोपिया और चाड जैसे भुखमरीग्रस्त देशों की श्रेणी में रखा गया था।
पातालगढ़ गांव में 44 डिग्री सेंटीग्रेड गर्मी और भीषण लू के बीच सैंदू आदिवासी की टप्पर जैसी झोंपड़ी सूनी पड़ी हुई है। सैंदू के परिवार में 6 बच्चों समेत 11 लोग हैं। झोंपड़ी में सैंदू की बूढ़ी मां पथराई आंखों से बच्चों की बाट जोह रही हैं। बच्चे पास के जंगल में बेरी तोड़ने गए हैं। बेरियों का क्या करेंगे ? इस सवाल पर वे कहती हैं, उसमें थोड़ा नमक मिलाकर रोटी खाएंगे। झोपड़ी में मिट्टी का बुझा हुआ चूल्हा और एक डिब्बे में चंद रोटियों के सिवा कुछ नहीं दिखता। मसालों के कुछ डिब्बे और टीन के दो पीपे। सैंदू की मां के दांत गिर चुके हैं, इसलिए वह नमक के घोल में डुबोकर रोटी खाती हैं।
बाबुओं, एनजीओ के लिए चमत्कारिक जीत
देश में कहर बनकर टूटती महंगाई के आंकड़े बड़े सुहाने लगते हैं, जैसे देश का निरंतर विकास हो रहा हो। थोक महंगाई दर 14.55 से बढ़कर 15.08% हो गई। खुदरा महंगाई दर बीते 8 साल में सबसे ज्यादा है। बढ़ती महंगाई और घटती भूख। मध्यप्रदेश सरकार के बाबुओं और आदिवासियों के हक में काम करने वाले एनजीओ के लिए मानों यह 'चमत्कारिक जीत' है।
दिहाड़ी का काम करने वाले सैंदू कहते हैं, सुबह और शाम को शानदार गाड़ियों का रेला लगा रहता है। लोग नाम पूछते हैं। बच्चों का पेट दबाते हैं। शरीर की सूजन देखते हैं, कुछ लिखते हैं और एयरकंडीशंड गाड़ी में बैठकर चल देते हैं। लेकिन कोई नहीं पूछता कि उन्हें भरपेट खाना खाए कितने दिन बीत गए। कोई भूखे पेट को दाल-सब्जी लाकर नहीं देता।
अगर ठीक से जांच की जाए तो शिवपुरी जिले में हजारों कुपोषित बच्चे मिलेंगे। इनकी संख्या कोविड काल में भयावह रूप से इसलिए बढ़ी, क्योंकि संक्रमण के डर से मध्यप्रदेश की शिवराज सिंह सरकार ने आंगनवाड़ी केंद्रों, स्कूलों को अनिश्चित काल के लिए बंद कर दिया, जहां से बच्चों को गर्म नाश्ता और पका हुआ भोजन मिलता था। पाबंदियां हटने के बाद जब दर्जनों बच्चों के गंभीर कुपोषण के कारण मरने की खबर मिली तो ताबड़तोड़ प्रशासन ने 350 से ज्यादा बच्चों को ढूंढ़कर जिले के अस्पताल में दाखिल करवा दिया। कुछ अफसर हटाए गए और एक अखबार के स्थानीय संवाददाता तो यहां तक बताते हैं कि भूख और कुपोषण पर खबरें करने पर भी अघोषित रूप से रोक लगा दी गई है। वे कहते हैं कि अब तो भुखमरी और कुपोषण की खबरों से मीडिया की भी भूख 'मर' चुकी है।
भूख, मौत और कुपोषण पर 'सरकारी कफन'
शिवपुरी जिले में बीते 3 दशकों से काम कर रहे एक स्वयंसेवी संस्था के सदस्य नाम जाहिर न करने की शर्त पर रुआंसे होकर कहते हैं- हम बड़े ही अनमने तरीके से एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। जिले के सहरिया आदिवासियों, खासकर बच्चों और गर्भवती महिलाओं की स्थिति ठीक वैसी ही है, जैसे कोविड के दौरान राज्य सरकार ने संक्रमण से मारे गए लोगों के वास्तविक आंकड़ों को छिपाया, ताकि मुआवजा न देना पड़े। इसी तरह का 'कफन' अब आदिवासियों की भुखमरी पर भी डाला जा रहा है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार कोविड काल में हजारों कुपोषित बच्चों की मौत हुई, लेकिन न तो इसका डेटा राज्य सरकार के पास है और न ही किसी एनजीओ के पास। सब-कुछ कागजों में ठीक-ठाक है।
शिवपुरी जिला अस्पताल में दाखिल बच्चे
इन सभी बच्चों को मरणासन्न हालत में अस्पताल में दाखिल करवाया गया थाथा, जिनमें लड़कियों की हालत लड़कों की तुलना में ज्यादा खराब बताई जाती है। स्थानीय पत्रकार बताते हैं कि जिले में हर रोज एक बच्चा गंभीर रूप से कुपोषित हो रहा है और गांव की आंगनवाड़ियों में इन बच्चों की पहचान हो रही है, लेकिन इनके पोषण पुनर्वास के इंतजाम इस कदर लचर हैं कि आंकड़ों पर पर्दादारी के सिवा और कोई रास्ता ही नहीं है।
पातालगढ़ के अलावा मड़खेड़ा गांव की भी हालत बहुत नाजुक है। महरू आदिवासी 10 दिन पहले पूरे परिवार के साथ एक शादी समारोह में गए थे। उन्हें याद है कि उसी दिन उनके परिवार ने भरपेट खाना खाया था। उससे पहले इसी तरह के 'अच्छे दिन' उन्हें याद नहीं। महरू हंसते हुए चीथड़े हो चुकी कमीज को ऊपर कर कहते हैं- 'पेट सिकुड़ चुका है। खाने को कुछ नहीं है। दो लोटा पानी से भी पेट भर जाता है।' इतना कहने के बाद महरू की आंखें भावशून्य हो जाती हैं।
इसी गांव में दो हफ्ते पहले ही मीडिया रिपोर्ट कहती है कि मड़खेड़ा गांव के बच्चे जंगल से सूखे बीज को तोड़कर खा रहे हैं। बावजूद इसके, आंगनवाड़ी केंद्र से पोषण आहार नहीं मिलता। पूरा केंद्र सहायिका के हवाले है। कार्यकर्ता कभी-कभार ही आती हैं।
भूख का मर जाना मतलब गंभीर कुपोषण, नतीजा - मौत
मध्यप्रदेश की शिवराज सिंह सरकार ने 2017 में वोट बटोरने के लिए प्रत्येक आदिवासी परिवार को फल-सब्जियों, दूध खरीदने के लिए 1000 रुपए की मदद की योजना चलाई थीं। लेकिन जैसा कि अमूमन होता है, सत्ता हथियाने के बाद खैरात बंद कर दी जाती है। सहरिया परिवारों के साथ भी यही हुआ और कोविड के बाद इमदाद भी बंद हो गई। अब कुछ बचा है तो वह है अंत्योदय परिवार के लिए मिलने वाला 35 किलो अनाज, जिसकी सूखी रोटी आसानी से गले में नहीं उतरती। स्थानीय स्वयंसेवी कार्यकर्ता हीरालाल बताते हैं कि रोजाना की दिहाड़ी से 100-120 रुपए कमाने वाले इन आदिवासियों के सामने सबसे बड़ी समस्या रोज ''महंगाई डायन'' से जूझने की है। वे तेल खरीदें, दाल खरीदें या सब्जियां खरीदें।
वे कहते हैं- शायद इसीलिए शिवराज सरकार ने शराब सस्ती कर दी है, ताकि पहले ही कुपोषण से अधमरे सहरिया पेट में एक पौव्वा डालकर बेसुध सो जाएं और उन्हें भूख ही न लगे। यह पूछने पर कि इससे आगे क्या? हीरालाल कहते हैं- सरकार को जहर भी आसानी से उपलब्ध करा देना चाहिए, ताकि उसे खाकर वे भुखमरी से हमेशा के लिए आजाद हो जाएं।
शिवपुरी भुखमरी से जीत रहा है। सरकारी बाबुओं और एनजीओ के दौरे शायद यह देखने के लिए हैं कि आदिम जनजाति का दर्जा प्राप्त सहरिया आदिवासी भुखमरी से कब आजाद होंगे।