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जो बाइडन की जीत से वामपंथियों का लौटेगा आत्मविश्वास, भारत पर भी पड़ेगा गहरा असर
वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। भारत में नरेंद्र मोदी और अमेरिका में ट्रम्प के आने के बाद से दुनिया के अधिकतर देशों में वामपंथ को नीचा दिखाकर पूंजीवादी व्यवस्था को और मजबूत किया जाने लगा था। ये दोनों नेता साम्यवाद या फिर वामपंथ को अपशब्द जैसा इस्तेमाल करते रहे हैं। इसमें कुछ समस्या वामपंथी नेताओं की भी रही है। मेक्सिको के राष्ट्रपति अन्द्रेस मनुएल लोपेज़ ओब्रदोर वामपंथी विचारधारा के लिए जाने जाते हैं, पर ट्रम्प के मुखर समर्थक हैं।
अन्द्रेस मनुएल लोपेज़ ओब्रदोर इस हद तक ट्रम्प का समर्थन करते रहे हैं कि इस वक्त जब दुनिया के लगभग सभी राजनेता अमेरिका के अगले राष्ट्रपति जो बाइडन को बधाई दे रहे हैं, मेक्सिको के राष्ट्रपति ने यह कहते हुए बधाई सन्देश भेजने से इनकार कर दिया कि जब सारी चुनावी प्रक्रिया और इससे जुडी कानूनी अड़चन समाप्त होगी, तभी वे बधाई देंगें।
ट्रम्प दुनिया के पटल पर सबसे बड़े और फूहड़ जोकर के तौर पर भले ही नजर आते हों, पर उन्होंने विश्व की राजनीति के पटल पर बहुत कुछ बदल दिया है, और इनमें से एक बड़ा प्रभाव यह है कि अधिकतर देश फासिस्ट विरोधी जनता और संगठनों को वामपंथी का तमगा देकर उन्हें राजद्रोही और देशद्रोही के समकक्ष खड़ा कर देते हैं।
ट्रम्प ने अमेरिका के एक फासिस्ट विरोधी संगठन, एंटीफा को लगातार देश की सारी समस्याओं और नस्लभेदी समेत सारे आन्दोलनों का कारण बताते रहे और इसे गैरकानूनी करार देने की बात करते रहे। एंटीफा के साथ ही सभी वामपंथी संगठनों के बारे में ट्रम्प ऐसा ही प्रचार करते थे।
राष्ट्रपति के इस प्रचार के कारण उनके समर्थक वामपंथियों की खुलेआम ह्त्या करने में भी संकोच नहीं करते थे। हमारे देश में भी सभी सरकार की नीतियों की आलोचना करने वाले अर्बन नक्सल और वामपंथी बताये जाते हैं, फिर भी इस बार के बिहार विधानसभाओं के चुनाव के दौरान वामपंथी उम्मीदवारों के विरुद्ध प्रधानमंत्री मोदी किसी भी ऐसी लहर को पैदा करने में असफल रहे हैं। ट्रम्प ने चीन के साम्यवादी सरकार की भी लगातार आलोचना की है।
इस समय दुनिया में सामाजिक सरोकार के सन्दर्भ में जितने भी देश सबसे आगे हैं, लगभग सारे ऐसे देशों में सरकार में अनेक दल शामिल हैं और उनमें वामपंथी दल भी है। उदार वामपंथ से दुनियाभर में बड़ी संख्या में पढ़े-लिखे युवा जुड़ रहे हैं और इसे नई दिशा में ले जा रहे हैं। हमारे देश में कन्हैया कुमार इसका बड़ा उदाहरण हैं, जिन्हें बड़ी संख्या में युवा सुनने जाते है। अमेरिका में भी ऐसा ही हो रहा है।
John B. Judis और Ruy Teixeira ने वर्ष 2002 में एक पुस्तक प्रकाशित की थी, इमर्जिंग डेमोक्रेटिक मेजोरिटी। इसमें बताया गया था कि अमेरिका में सामाजिक बदलाव के कारण समाज में विविधता बढ़ रही है, शहरी आबादी बढ़ रही है और अब पहले से अधिक शिक्षित युवा राजनीति में दिलचस्पी दिखा रहे हैं – ये सभी लक्षण जनता का झुकाव डेमोक्रेटिक उम्मीदवारों की तरफ बढ़ा रहे हैं और रिपब्लिकन पार्टी से दूर ले जा रहे हैं। यही कारण है कि अमेरिका में पिछले 8 राष्ट्रपति चुनावों में से केवल एक चुनाव रिपब्लिकन पार्टी ने जीता है।
रिपब्लिकन पार्टी के इस कार्यकाल को ट्रम्प ने अमेरिकी जनता को दरकिनार कर केवल अपना एजेंडा पूरा किया। कोविड 19 और ब्लैक लाईव्स मैटर आन्दोलन ने ट्रम्प के खोखलेपन को जनता के सामने पूरी तरह से उजागर कर दिया। इस दौरान ट्रम्प ने अमेरिका की हरेक समस्या के लिए केवल वामपंथियों और एंटी-फ़ासिस्ट संगठनों को जिम्मेदार ठहराया।
ट्रम्प ने स्पष्ट शब्दों में अपने समर्थकों को वामपंथियों और एंटीफा के सदस्यों पर हिंसा का सन्देश भी दिया। दूसरी तरफ ट्रम्प अपने भाषणों में अपनी हरेक बेवकूफियों को कानूनी जामा पहनाने का प्रयास करते रहे, और लगभग अधिकतर न्यायालयों में उनकी याचिका पर हार का सामना करना पड़ा।
इन सबके बीच वामपंथी हताश और निराश थे और अपने अस्तित्व और विचारधारा पर ही प्रश्न करने लगे थे। वर्ष 2016 के बाद से अधिकतर वामपंथी विचारधारा वाले संगठन लगभग निष्क्रिय हो चले थे। उनकी नजर में ट्रम्प को 2020 के चुनाव में हरा पाना असंभव था। चुनाव के ठीक पहले भी अधिकतर वामपंथी यही समझ रहे थे और अब वे कहने लगे हैं कि ट्रम्प अपनी हार स्वीकार नहीं करेंगे और यदि स्वीकार कर भी लिया तो भी जो बाइडन के लिए बहुत सारी समस्याएं खड़ी कर जायेंगे।
जाहिर है, लगभग सभी वामपंथी और एंटी-फासिस्ट संगठनों का साथ जो बाइडन को मिला, इसके साथ ही लगभग सभी मानवाधिकार संगठन भी समर्थन दे रहे थे। अब जो बाइडन की जीत के बाद जाहिर है इन संगठनों का आत्मविश्वास वापस लौटेगा और ये सभी संगठन केवल अमेरिका में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में वामपंथी और मानवाधिकार वाली विचारधारा का प्रसार करेंगे और इसका असर हमारे देश पर भी पड़ेगा। पूंजीवाद के चंगुल से दुनिया को बचाने के लिए साम्यवाद को नए सिरे से खड़ा होना ही पड़ेगा।