गांधी के नाम पर जहां दर्जनों विश्वविद्यालय हैं भगत सिंह के नाम पर एक भी नहीं, बल्कि पहले जिस चंडीगढ़ एयरपोर्ट का नाम भगत सिंह के नाम रखना था उससे भी पीछे हटा जा रहा है...
उमेश चंदोला
आज पूरी दुनिया खासकर भारत में अहिंसा के पुजारी माने जाने वाले गांधी को याद किया जा रहा है। अखबारों में विज्ञापनों की भरमार है। क्या इसकी चौथाई शिद्दत से भी भगत सिंह को याद किया गया? गांधी के नाम पर जहां दर्जनों विश्वविद्यालय हैं भगत सिंह के नाम पर एक भी नहीं है। बल्कि पहले जिस चंडीगढ़ एयरपोर्ट का नाम भगत सिंह के नाम रखना था उससे भी पीछे हटा जा रहा है।
सम्पूर्ण गांधी वांग्मय हो या कुछ और उस दिशा में सरकारों ने खूब काम किया, पर असेम्बली में बम फेंकने वाले बटुकेश्वर दत्त से स्वतंत्रता सेनानी का प्रमाणपत्र मांगा जाता है। राम प्रसाद बिस्मिल की मां को बिस्मिल की कमीज़ के सोने के बटन बेचने पड़ते हैं, मकान भी। आजाद की मां का भी यही हाल था।
सवाल उस बात को रोने का नहीं। सवाल ये है कि अहिंसा का विचार स्थापित है तो क्या ये इसी समाज विज्ञान के नियम की पुष्टि नहीं करता कि हर युग में शासकीय विचार ही प्रभुत्वशाली होते हैं, जैसे सामन्ती दुनिया में राजा के भगवान का प्रतिनिधि होने का विचार।
आज पूरी दुनिया में मार्क्स, एंगेल्स, लेनिनवादी विचारों का प्रसार शासकों ने नहीं किया। भगत सिंह के साथ यही भारतीय शासक आज भी कर रहे हैं। उनकी मूर्ति पूजा करो विचारों को मत जानो। भगत सिंह की जेल डायरी भी निजी प्रयासों से ही प्रकाशित हुई है। नेहरू तो रहने दें क्या भगत सिंह के दो पत्र साम्प्रदायिक दंगे ओर उनका ईलाज तथा धर्म औऱ हमारा स्वतंत्रता संग्राम ही मोदी सरकार कभी प्रकाशित कर सकती है?
क्या उनके विचारों पर शोध केवल एक अदद विश्वविद्यालय भी चलेगा। केवल एक। ये काम गांधी जूनियर यानी राहुल भी क्यों करेंगे। दरअसल पूरी दुनिया के शासकों के हीरो गांधी इसीलिए हैं कि शासकों को जनता के 1917 जैसे बोल्शेविक विद्रोह डराते हैं। आज जब 2008 से जारी संकट को दस साल होने को हैं तब तो और ज़्यादा! वर्ना सिर्फ़ बाजारों तथा कच्चे मालों के लिए 6 करोड़ बेकसूर लोगों की जानें दो विश्वयुद्ध में ले चुके शासकों का अहिंसा से क्या लेना देना। क्या आज भी भारत में किसानों, मजदूरों आदिवासियों, दलितों पर हिंसा में यहां तक हत्या में राज्य सीधे या परोक्षतः शामिल नहीं?
भगत सिंह औऱ साथी जहां गांधी का भारत की जनता को जागृत करने के लिए शुक्रिया अदा करते हैं वहीं न्यायिक हिंसा (याद रखें चन्द्र सिंह गढ़वाली की पेशावर में अहिंसक भूमिका की गांधी आलोचना करते हैं) तथा अन्याय के लिए की जाने वाली हिंसा में फ़र्क करने पर ज़ोर डालते हैं। क्या कृष्ण का 5 गांव देने का प्रस्ताव भी दुर्योधन द्वारा ठुकराया नहीं गया। विडंबना है कि उसी कृष्ण की गीता गांधी की आदर्श पुस्तक थी।
रही बात आज़ादी की तो दूसरे विश्वयुद्ध ने अंग्रेजों की कमर तोड़ दी थी, रही सही कसर 18 फरवरी 1946 के नेवी विद्रोह ने पूरी कर दी। फरवरी में ही पहली बार अंग्रेजों ने आजादी की बात की। हां ये अलग बात है कि सत्ता अपने ही वर्ग बन्धुओं यानि काले अंग्रेजों को दी गयी। तभी तो आज़ादी के सालों साल बाद भी अंग्रेजी पूंजी खूब मुनाफ़ा निचोड़ रही थी।
अगर आम जनता के लिए आज भी गांधी प्रासंगिक हैं तो इसीलिये कि अभी करोड़ों जनता को संगठित औऱ वर्गीय राजनीति से लैस होना है, ताकि वक़्त आने पर वास्तविक समाजवाद, जो आज भी संविधान में दर्ज है, भारत में लाया जा सके।