पत्रकार-कवि फिरोज खान की कविताएं
यूँ होता...
फिल्मों की तरह
ज़िन्दगी में भी होता कोई इंटरवल
सुस्ताते कुछ देर
ज़िन्दगी के सिनेमाहॉल से निकलकर बाहर
दालान में बैठते किसी अजनबी की मुस्कुराहट को जज़्ब करते हुए
निकल जाते कुछ देर को समंदर के किनारे
आती हुई लहरों को देखते
डूबते सूरज की तरफ जाते परिंदों को सलाम कहते
या कि उनके साथ परवाज़ करते
पहुँच जाते सरहदों के पार
न पासपोर्ट, न वीजा की होती दरकार
न सियासत रोकती लाहौर की गलियों में घूमने से
लेनिन की शीशे की क़ब्र के सामने बैठे रहते
लाल चौक पर गाते प्रेमगीत
किसी शिकारे में किसी पंडत से सुनते कव्वाली
कोई नमाजी लौटकर आता मस्जिद से और रामलीला में निभाता लक्ष्मण का किरदार
मैं नास्तिक ही रहता
और चूम लेता किसी नमाजी का माथा
किसी पुजारी के हाथ चूमता और खेलता कोई खेल नींद आने तक....
मर्द रोते नहीं हैं
मर्द रोते नहीं हैं
मूंछों पर ताव देते हुए यही कहते थे दादा
दादी के इंतकाल के बाद जब रो रही थीं घर की औरतें
और नहीं रोक पाया था मैं भी खुद को
गमगीन दादा तब भी यही बोले थे
मर्द बच्चे हो तुम
मर्द रोते नहीं हैं
गांवभर का यही किस्सा था
किसी मर्द की आंखों में भूले से भी नहीं आते थे आंसू
और गर ऐसा हो गया तो
तो मर्दों की बिरादरी से बाहर कर दिया जाता था वह आदमी
क्योंकि मर्द रोते नहीं हैं
कुछ ऐसी ही कहानी उस औरत की होती थी
जो नहीं रोती थी
गांव में किसी के भी मर जाने पर
पति के बीमार होने या बच्चे के ठोकर खाकर गिरने पर
गांवभर के आंसू उधार होते थे उस औरत पर
औरत की आंख के गहने होते हैं आंसू
मर्द रोते नहीं हैं
दादा के साथ गांवभर के लोग यही मानते थे
फौलादी होते हैं मर्दों के सीने
चिंगारी निकलती है आंखों से उनकी
पिता, भाई और दोस्तों को फख्र है अपने गांव पर
गांव की मर्दानगी पर
सीने में धधकती आग पर
फख्र है कि मर्द रोते नहीं हैं
वे रोते नहीं हैं तब भी जब मर रही होती है वह औरत
जिसने जिंदगीभर किया था उन्हें प्यार
बहन ससुराल से आती है तो मां की आंखें गीली हो जाती हैं
उसका हिलक-हिलक कर रोना सुनकर
मां धीरे से कहती है उससे
जी भर कर रो ले
रोने से जी हल्का हो जाता है
एक दिन मैंने पूछ ही लिया रीना से
औरतों का जी भारी क्यों हो जाता है
मुस्कुराते हुए उन्होंने बस इतना कहा
मर्द नहीं समझ पाएंगे
औरतों का जी औरत होकर ही समझा जा सकता है
बहुत बाद में एक दिन
रीना ने कहा था
मर्द रोते नहीं हैं
उनके सीने की आग
सुखा देती है आंखों का पानी
औरत अपनी आग से चूल्हा जलाती है
और आंखों के समंदर से
मुहब्बत के दिए
कितना अच्छा होता कि मर्द भी रो लेते कभी खुलकर
बचा लेते आग अपनी और कोई चूल्हा जलाते वे
लव जेहाद
(एक)
वे घने ऊँचे लहराते दरख़्तों वाले शहर थे
टोलों और मुहल्लों वाले
मुहल्लों में घर थे
घरों की छतें थीं
छतों पर मुंडेरें
मुंडेरों के दरमियाँ से उठती थीं पतंगें
और आसमान में बना देती थीं कोई इंद्रधनुष
माँजों की बाहें थामे तैरती रहती थीं आसमानों में
देर तलक
पतंगें दोस्त थीं
दुश्मन भी
दुश्मनी ऐसी न थी कि काट दें किसी का मांजा तो धड़ाम से गिरा दें नीचे
हारी हुई पतंगें ऐसे लहराके गिरती थीं
जैसे कोई मीरा अपने किशन की मूरत के सामने तवाफ़ करती आती हो
(दो)
शहर में मुहल्ले थे
मुहल्लों में जातियाँ थीं, धरम थे
मस्जिदें थीं, मंदिर थे मुहल्लों में
घर थे, घरों की छतें थीं
छतों पर मुंडेरें थीं
लेकिन मुंडेरों के कोई मजहब नहीं थे
मुंडेरों पर थे दीवाने
और थीं सपनीली आँखों वाली लड़कियाँ
लड़कियों की मुंडेरों पर गिरती थीं पतंगें
और जब चूम लेती थीं उनके क़दम
तो जीत जाते थे हारे हुए दीवाने पतंगबाज
पतंगें जो बन जाती थीं प्रेमपत्र
प्रेम में इस तरह गिरने को ही शायद कहते होंगे
फॉल इन लव
गिरना हमेशा बुरा नहीं होता
(तीन)
वे अब झुलसे हुए वीरान दरख़्तों वाले शहर हैं
शहरों में मुहल्ले हैं
हिन्दू मुहल्ले हैं
और मुसलमान मुहल्ले
मुहल्लों में घर हैं
घरों में हिन्दू हैं या मुसलमान
छतों पर मुंडेरें हैं
मुंडेरों पर पतंगों का खून
माँजों से बंधी हैं तलवारें
और आसमानों में चल रहा है क़त्लेआम
माशूक लड़कियों की आंखों में अब चमकीले बेखौफ़ सपने नहीं हैं
दीवाने बदहवास हैं
वे जेहादी हैं या हैं रोमियो
लड़कियों के लिए ये दुनिया अब क़त्लगाह है
(चार)
इससे पहले कि मेरी गर्दन आपकी कुल्हाड़ी के निशाने पर हो
तड़प रही हो धड़ से अलग किसी विडियो में
इससे पहले कि आपकी नफ़रत
मेरे मरे जिस्म की बोटी करदे
नारों के बीच आपकी राष्ट्रभक्ति जला दे मुझको
इससे पहले कि हरी घास लहू में डूबे
मेरी चीख तैर जाए फिज़ा में
तुम्हारा अट्टहास सुने और सहम जाए भेड़िया भी
इससे पहले कि तुम दौड़ो मेरी ओर कुल्हाड़ी लेकर
मैं बता देना चाहता हूँ कि मेरी पार्टनर का नाम रीना है
मैं बता देना चाहता हूँ कि रीना हिंदू नहीं हैं...
(पत्रकार फिरोज खान नवभारत टाइम्स, मुंबई से जुड़े हैं।)