समकालीन हिंदी कहानी में जिन नए कहानीकारों ने अपनी कहानियों से पाठकों का विशेष ध्यान खींचा है, उनमें आकांक्षा पारे एक उल्लेखनीय नाम है। पेशे से आउटलुक में पत्रकार आकांक्षा ने हिंदी कहानी में चुपके से अपनी जगह बना ली है। उसने अपनी कहानियों में बहुत सहज सरल तरीके से अपनी बात कह जाती है। उनके दो संग्रह आ चुके हैं। उन्हें हंस कथा सम्मान और रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार मिल चुके हैं। वह अपनी कहानियों में निम्न मध्यवर्गीय जीवन और महानगर की विडम्बनाओं को बिना किसी तामझाम और शोर के प्रस्तुत करती हैं। आकांक्षा बहुत विस्तार से नहीं बल्कि दोटूक ढंग से बिना किसी प्रदर्शन के अपनी बात रखती हैं। 'जादूगर' एक ऐसी ही छोटी सी कहानी है जिसका पात्र समाज के हाशिये से वंचित वर्ग से आता है। हिन्दी कहानी में अब ऐसे पात्र दुर्लभ हो गए हैं। रचनाकार ने इस पात्र को जादूगर बताकर समाज में एक आम आदमी के जीवन संघर्ष को चित्रित किया है। आइये पढ़ते हैं आकांक्षा पारे की कहानी — विमल कुमार, वरिष्ठ पत्रकार और कवि
जादूगर
आकांक्षा पारे
'भैया ये पेचकस कैसा दिया?’
‘पांच रुपये का।’
‘और ये घड़ी का पट्टा?’
‘अलग-अलग हैं जी। कुछ बारह के हैं, कोई पंद्रह का है, पचास का भी है, दिखाऊं?’
‘नहीं फिलहाल ये हीटर का पिन लगा दो।’
‘यहां कब से यहां बैठ रहे हो?’
‘जब से भूख महसूस करना शुरू की।’
‘भूख तो तुम्हें पैदा होते ही लगी होगी।’
‘पता नहीं। तब का याद नहीं। जब से याद है, तब बाप था।’
‘अब वो कहां हैं?’
‘पता नहीं।’
‘मतलब?’
‘एक दिन सुबह उठा तो वो घर पर नहीं था। तब से उसकी कोई खबर नहीं है।’
‘तुमने यह सब कहां से सीखा?’
‘क्या?’
‘यही सब, प्लग जोड़ना, हीटर के पिन लगाना...।’
‘जरूरत सब सिखा देती है मैडम।’
'हां शायद।' मैंने सोचा और चल पड़ी। मेरे दफ्तर की बगलवाली सडक़ पर नीला प्लास्टिक बिछाए उस पर ढेरों सामान रखे वो लड़का हमेशा लोगों से घिरा रहता था। उसकी खासियत थी कि उसकी जुबान और हाथ दोनों एक साथ चलते थे। देखकर ऐसा लगता मानो कोई मशीन है, जिसे इतनी अच्छी तरह सिंक्रोनाइज किया गया है। बल्ब, प्लग, पेचकस, घड़ी के पट्टे, साबुन, कैंची, वायर, प्लग बोर्ड और ना जाने क्या-क्या उसके सामने करीने से जमा रहता था।
नीले प्लास्टिक पर बैठा हुआ वह मुझे अलादीन की तरह लगता था, जो अपने जादुई कालीन पर बैठा हो। मैं जब भी उसके पास गई हूं, उसे हमेशा बतियाते ही पाया है। कभी उदास या गुस्से में नहीं देखा। पर्स की खराब चेन सुधारना हो या ताले की नकली चाबी बनाना वह हर काम में माहिर है। उससे काम कराने वाले अकसर कहा कहते हैं, ‘अरे यार तुम तो जादूगर हो।’ बदले में वह हंसता और कहता, ‘पुरानी चेन न चलने पर ही तो मेरी जिंदगी चलती है।’
‘तुम इतने तालों की चाबी बनाते हो, किसी बड़े ताले की चाबी क्यों नहीं बना लेते?’ कोई चुटकी लेकर पूछता। बदले में वह अपने हाथ दिखाता और कहता, ‘जब तक यह दोनों हाथ सलामत हैं, तब तक किसी ताले को बेईमानी से नहीं खोलूंगा। यदि किस्मत में होगा, तो किसी दिन मुझे भी वह ताला मिल जाएगा जिसकी चाबी मैं बना लूंगा।’ यह कहते हुए उसकी छोटी-छोटी भूरी आंखों में चमक आ जाती थी।
मैंने उससे एक दिन यूं ही पूछ लिया, ‘पहले तुम इतना सामान घर से लाते हो, फिर एक-एक सामान रखते हो और फिर उसे समेटते हो, कितनी परेशानी है दुकान के बारे में क्यों नहीं सोचते।’
‘यहां पुराने ग्राहक हैं न मैडम। और फिर आसपास इतने दफ्तर हैं, किसी न किसी को कोई न कोई काम आ ही पड़ता है। लोग दफ्तर के समय में ही अपना भी काम करना चाहते हैं। आप देखती ही हैं, कितने लोग लंच में टहले हुए यहां आ जाते हैं। इसलिए मैं कहीं और जाने की नहीं सोचता। बिना किराए का इससे अच्छा ठिकाना मुझे कहां मिलेगा।’
एक लंबा अरसा बीत गया। मेरे जीवन में इतनी चीजें बिगड़ गई थीं कि मुझे घर के बिगड़े सामान की सुध ही नहीं रही। जब भी टूटे हुए प्लग को मशक्कत के बाद बोर्ड में लगाती उसकी याद आ जाती। लेकिन व्यस्तता इतनी थी कि चाहकर भी उसके पास जाना नहीं हो पा रहा था। शनिवार समय निकाल कर उसके पास पहुंची, तो वह सामान समेटने की तैयारी कर रहा था। पहली बार मैंने उसे खड़े हुए देखा था।
लंबे कद का वह लड़का किसी कंकाल से कम नहीं लग रहा था। मुझे देखते ही मुस्कुराया और बोल पड़ा, ‘आप तो यहां का रास्ता ही भूल गईं। आजकल कोई सामान खराब नहीं होता क्या?’ आवाज वही थी, लेकिन अंदाज बिल्कुल बदल गया था। कंचे की तरह छोटी आंखें चेहरे में धंस गई थीं। चेहरे की चमक पर स्याहपन हावी था।
‘अरे तुम्हें क्या हो गया। बीमार थे क्या? आज जल्दी क्यों जा रहे हो।’
‘बीमार? कौन मैं नहीं तो। मैं तो बिल्कुल ठीक हूं। आज बहन के ससुराल जाना है। आप इतने दिन से आई नहीं, इसलिए बता नहीं पाया। मैंने बहन की शादी ठीक कर दी है। आज उसी के ससुराल टीका लेकर जाना है। दस हजार पर बात बनी है मैडम।’
‘दस हजार! बहुत ज्यादा नहीं हैं? सारी बचत दे दोगे क्या उन्हें?’
‘ज्यादा तो है, मगर क्या करता बहन को वह बहुत पसंद है और उसी से शादी करना चाहती है। इससे कम में लड़के की मां मानने को तैयार ही नहीं थी। बचत होती कहां है जो उन्हें दे देता।’
‘तब, कहां से लाए?’
‘मेरे घर के पास एक अस्पताल है। वहां की नर्स दीदी से मेरी अच्छी जान-पहचान हो गई है। वहीं कभी-कभी खून देता हूं। अच्छे पैसे मिल जाते हैं। कुछ कर्जा भी लिया है।’
‘तुम पागल हो? किसी ने मना नहीं किया तुम्हें?’
‘किसी को पता ही नहीं चला मैडम। जब मेरा बाप हमें छोड़कर चला गया था न तब एक बार मां बहुत बीमार हो गई और काम पर नहीं जा पाई। मेरे दोनों छोटे भाई और बहन बहुत भूखे थे। जब रोटी का कहीं इंतजाम नहीं हुआ तो उसी नर्स दीदी के कहने पर मैंने पहली बार खून दिया था। जब मैं रोटी लेकर घर पहुंचा, तो मेरे भाई-बहन ने कहा कि किशन तो जादूगर है, कैसे झटपट रोटी ले आया। वो लोग अभी भी मुझे जादूगर ही समझते हैं मैडम। मैं उनके सारे काम कर देता हूं। अब इकलौती बहन को भी यही विश्वास है, तो मैं उसका ये विश्वास कैसे तोड़ सकता हूं।’
जादूकर के हाथ बराबर काम कर रहे थे। उसे वायर को प्लायर से छीला, अंदर से तांबे के तार को कस कर उमेठा और मजबूती से स्क्रू में कस दिया। तभी किसी ने अपना पैर आगे बढ़ाते हुए पूछा, ‘जूते में आई बटन लगा दोगे क्या?’
‘बिल्कुल लगा दूंगा साहब, बस पांच मिनट रुकिए।’
‘मुझे पता था तुम कर दोगे। आखिर मैं तुम्हें यूं ही जादूगर नहीं कहता।’