सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर होंगे 11 लाख से अधिक आदिवासी अपनी जमीन से बेदखल
सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी को वन अधिकार अधिनियम की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के बाद आदिवासियों वनवासियों को बेदखल करने का यह आदेश दिया है, जबकि संसद ने वर्ष 2006 में ‘वन अधिकार कानून’ पारित किया था....
सुशील मानव की रिपोर्ट
जनज्वार। 13 फरवरी को तीन जजों जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस अरुण सिन्हा व जस्टिस इंदिरा बैनर्जी की पीठ ने एक एनजीओ की याचिका पर सुनवाई करते हुए आदेश दिया कि जिन परिवारों के वन अधिकार कानून के तहत पारंपरिक वनभूमि पर दावा खारिज कर दिया गया है, उन्हें निष्कासित कर दिया जाना चाहिए।
कोर्ट के फैसले का लिखित आदेश 20 फरवरी को जारी किया गया, जिसमें कह गया है, यदि मामले में निष्कासन नहीं हुआ है, जैसा कि पूर्वोक्त है, तो इस मामले को अदालत द्वारा गंभीरता से लिया जाएगा। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को कारण बताने के लिए कहा है कि क्यों दावों के अस्वीकार किए जाने के बाद भी उन मामलों में बेदखली नहीं की गई।
गौरतलब है कि याचिकाकर्ताओं ने याचिका में मांग की थी कि नए कानून के तहत पारंपरिक वनक्षेत्रों से संबंधित दावों को खारिज कर दिया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी को वन अधिकार अधिनियम की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के बाद आदिवासियों वनवासियों को बेदखल करने का यह आदेश दिया है, जबकि संसद ने वर्ष 2006 में ‘वन अधिकार कानून’ पारित किया था।
इस कानून के तहत पारंपरिक वनवासियों को गांव की सीमाओं के भीतर वन भूमि, संसाधनों तक पहुंचने, प्रबंधन और शासन करने के उनके अधिकारों को वापस दे दिये गए थे, जोकि औपनिवेशिक काल से वन विभाग द्वारा नियंत्रित किए थे। इस कानून के तहत ग्राम सभा को वनक्षेत्रों के प्रबंधन और उनकी सुरक्षा के लिए वैधानिक निकाय बनाया गया था। फॉरेस्ट एक्ट 2006 कहता है कि इन जंगलों में किसी भी गतिविधि को तब तक नहीं किया जाना चाहिए जब तक कि व्यक्ति और समुदाय के दावों का निपटारा नहीं हो जाता।
जबकि सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को उन आदिवासियों को बेदखल करने का स्पष्ट निर्देश दिया है जिनके दावे खारिज कर दिए गए हैं। जस्टिस अरुण मिश्रा, नवीन सिन्हा और इंदिरा बनर्जी वाली तीन-जजों की बेंच ने राज्यों को माले की अगली सुनवाई यानि 27 जुलाई तक का समय दिया है। इसने सरकारों से इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट एक रिपोर्ट प्रस्तुत करने को भी कहा।
इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (FSI) को आदेश दिया है कि वो सेटलाइट सर्वे करे और अतिक्रमण के स्थानों का रिकार्ड तैयार करे। कोर्ट ने कहा है कि FSI उन स्थानों को भी दर्शाए जहां से आदिवासियों और वनवासियों को बेदखल कर दिया गया है।
16 राज्यों में से लगभग 11,27,446 आदिवासी और अन्य वनवासियों के दावों को अस्वीकार कर दिया गया है। इन 16 राज्यों के अलावा जिन राज्यों ने विवरण प्रदान नहीं किया है, सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें भी अपने यहां के डाटा जमा करने को कहा है। अन्य राज्यों द्वारा अपना डेटा जमा करने के बाद ये संख्या और भी बढ़ सकती है।
अस्वीकार किए गए दावों का राज्यवार आंकड़ा
—मध्य प्रदेश में 2,04,123 आदिवासियों और 1,50,664 वनवासियों के दावे खारिज किए गए हैं।
—उड़ीसा में 1,22,250 आदिवासियों और 26,620 वनवासियों के क्लेम खारिज किए गए हैं।
—आंध्र प्रदेश में 1,14400 एकड़ जमीन से 66351 दावों को खारिज किया गया है।
—तेलंगाना में 82,075 आदिवासियों के क्लेम खारिज किए गए हैं।
—त्रिपुरा में 34,483 आदिवासियों और 33,774 वनवासियों के दावे खारिज किए गए हैं।
—पश्चिम बंगाल में 50, 288 आदिवासियों और 35,856 वनवासियों के क्लेम खारिज किए गए हैं।
—महाराष्ट्र में 13,712 आदिवासियों और 8,797 वनवासियों के दावे खारिज़ किए गए हैं।
—कर्नाटक में 35,521 आदिवासियों और 1,41,019 वनवासियों के दावे खारिज किये गए हैं।
—असम में 22398 आदिवासी और 5136 पांरपरिक जंगल निवासियों के दावों को खरिज किया गया है।
—बिहार में 4354 दावों को खारिज किया गया है।
—छत्तीसगढ़ में 20,095 लोगों के दावों को खारिज किया गया है जबकि 4830 पर कार्रवाई भी की जा चुकी है।
—गोवा में 6094 आदिवासी और 4036 पारंपरिक वनवासियों ने क्लेम किया था।
—गुजरात में 1,68,899 आदिवासी और 13970 वनवासियों ने क्लेम किया है।
—हिमाचल प्रदेश 2131 आदिवासी और 92 पारंपरिक वनवासियों ने क्लेम किया था।
—झारखंड में 27,809 आदिवासी और 298 वनवासियों के दावे खारिज कर दिए गए।
—उत्तर प्रदेश में 20,494 आदिवासियों और 38,167 वनवासियों के क्लेम खारिज़ किए गए हैं।
—राजस्थान में 36,492 आदिवासियों और 577 वनवासियों के क्लेम खारिज किए गए हैं।
—तमिलनाड़ु 7,148 आदिवासियों और 1881 वनवासियों के क्लेम खारिज किए गए हैं।
—केरल में 893 आदिवासियों के दावे खारिज किए गए हैं।
—उत्तराखंड में 35 आदिवासियों और 16 वनवासियों के दावे खारिज किए गए हैं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले में सरकार की भूमिका
चाहे शिक्षामित्रों की नियुक्ति मामला रहा हो, चाहे केंद्रीय विश्वविद्यालयों कॉलेजों में अध्यापकों की भर्ती में आरक्षण का मामला, चाहे एट्रोसिटी एक्ट, कई मामलों में कोर्ट में सरकार का रवैया बेहद गैरजिम्मेदाराना और दोषपूर्ण रहा है। सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला न सिर्फ आदिवासियों वनवासियों के खिलाफ़ है, बल्कि सरकार की आदिवासी-विरोधी कार्पोरेट नीतियों को विस्तार देता है।
आदिवासी और वनवासियों के आंदोलनों का एक समूह, ‘अभियान फॉर सर्वाइवल एंड डिग्निटी’ का आरोप है कि सुनवाई के समय केंद्र सरकार का वकील कोर्ट में मौजूद ही नहीं था।
वहीं कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि जब इस अधिनियम को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी जा रही थी, भारतीय जनता पार्टी एक "मूकदर्शक" के रूप में खड़ी थी। "यह जंगलों से लाखों आदिवासियों और गरीब किसानों को बाहर निकालने के उनके (भाजपा के) इरादे का संकेत दे रहा है।
जबकि कई आदिवासी समूह जिनके दावों को खारिज कर दिया गया है, उन्होंने मांग की है कि उनकी समीक्षा की जाए। उन्होंने तर्क दिया है कि कई मामलों में दावों को खारिज करना दोषपूर्ण है।
अच्छा होता कि सुप्रीम कोर्ट ये भी स्पष्ट कर देती की बेदखल करने के बाद इन 11 लाख लोगों का क्या किए जाए।