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राजनीति

UP Election 2022 : शुरुआती चरणों में कमजोर BSP अंतिम चरण आते-आते कैसे हुई मजबूत, जानें किसे होगा नुकसान?

Janjwar Desk
6 March 2022 10:50 AM GMT
UP Election 2022 : शुरुआती चरणों में कमजोर BSP अंतिम चरण आते-आते कैसे हुई मजबूत, जानें किसे होगा नुकसान?
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UP Election 2022 : मायावती ने किलर पॉलिटिशियन की भांति चुपचाप और बिना जोड़तोड़ के अपने प्यादे चले। साथ ही उसे भाजपा और सपा की सियासी मजबूरियों की वजह से ताकत मिली। उसी ताकत के बल पर मायावती की पार्टी बसपा सियासी रिंग में वापस लौट आई है।

यूपी विधानसभा चुनाव ताजा समीकरण पर धीरेंद्र मिश्र की रिपोर्ट

UP Election 2022 : उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के शुरुआती चरणों में मायावती ( Mayawati ) की पार्टी बसपा को बहुत कमजोर माना जा रहा था। सियासी विश्लेषक इसी में मशगूल रहे कि इस बार चुनावी मुकाबला भाजपा ( BJP ) और सपा-रालोद गठबंधन ( SP-RLD Alliance ) के बीच द्विध्रुवीय है, लेकिन छठे और सातवें चरण आते-आते सियासी समीकरण बदल गया। खास बात यह है कि बसपा का हाथी भी दहाड़ने लगा। आखिर ऐसा क्या हुआ कि बसपा ने धीरे-धीरे विरोधियों के खाद पानी से ताकत हासिल कर मुकाबले में आ गई। अब उसमें भी विश्लेषकों को सत्ता के गलियारे तक पहुंचने की संभावनाएं दिखाई देने लगी हैं। अगर ऐसा है, तो किसका होगा नफा और किसका होगा नुकसान। आइए, हम आपको इस लेख के जरिए बताते हैं यूपी ( UP ) का ताजा सियासी समीकरण।

दरअसल, इस बार किसान आंदोलन, बेरोजगारी, एनआरसी-सीएए, गरीबी, कोरोना महामारी, कानून व्यवस्था, योगी आदित्यनाथ ( Yogi adityanath ) के सख्त तेवर आदि की वजह से यूपी विधानसभा का चुनाव 2022 पांच साल पहले की तुलना में काफी उलटफेर वाला रहा। शुरुआती दो से तीन चरणों तक चुनाव पूरी तरह से द्विध्रुवीय यानि भाजपा बनाम सपा ( BJP vs SP ) रहा। लेकिन उसके बाद सीन में आंशिक बदलाव नजर आने लगा। ऐसा इसलिए कि बसपा प्रमुख मायावती का असर चुनाव प्रचार से लेकर मतदान तक में दिखाई देने लगा। इसकी वजह भी साफ है। भाजपा ने अपनी सुनियोजित रणनीति के तहत पहले तीन चरणों तक रालोद प्रमुख जयंत चौधरी ( Jayant Chaudhary ) की तारीफ की तो बाद के चरणों में मायावती की तारीफ के पुल बांधे। भाजपा ( BJP ) की इस रणनीति को जानते हुए सपा ( SP ) ने बसपा ( BSP ) पर गैर जाटव वोट हासिल करने के मकसद से सीधे मायावती पर हमला नहीं बोला। दोनों प्रमुख पार्टियों के इस रुख की वजह से बसपा के प्रति लोगों का रुझान बढ़ने लगा और वो कल यानि अंतिम चरण के मतदान से पहले मुकाबले में लौट आई।

शाह ने क्यों की मायावती की तारीफ

भाजपा के चाणक्य और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ( Amit Shah ) पहले ही भांप गए थे कि इस बार चुनाव 2017 वाला नहीं है। इस बार उन्हें सत्ता विरोधी लहर के साथ सपा की रिंग में दमदार वापसी का भी सामना करना है। फिर सपा ने रालोद से गठबंधन कर भाजपा के सामने कठिन चुनौती पेश कर दी थी। इस गठब्ंधन का असर पहले तीन चरणों तक दिखाई दिया। सपा के इस रणनीति को गंभीरता से लेते हुए न्यूज 18 को दिए एक साक्षात्कार में शाह ने कहा कहा था - यह सच नहीं है कि मायावती की प्रासंगिकता खत्म हो गई है। किसी की प्रासंगिकता ऐसे खत्म नहीं होती। इसके साथ ही उन्होंने तमाम राजनीतिक पंडितों के इस तर्क को खारिज करते हुए कहा था कि मुझे पूरा भरोसा है कि बसपा को वोट मिलेंगे। यह नहीं कह सकता कि इसका कितना हिस्सा सीटों में बदलेगा, लेकिन उसे वोट मिलेंगे। मुझे नहीं पता कि इससे भाजपा को कोई फायदा होगा या नहीं। यह सीट-विशेष पर निर्भर करता है। प्रशंसा से आश्चर्यचकित मायावती ने बदले में यह कहकर उनकी तारीफ की कि ये उनका बड़प्पन है कि उन्होंने सच को स्वीकर किया।

जयंत को बाबू बता साधा अपना हित

अमित शाह केवल मायावती की तारीफ तक सीमित नहीं थे। इससे पहले वो दिल्ली में भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा के आवास पर रालोद नेता और सपा के सहयोगी जयंत चौधरी के साथ 'नजदीकी' दिखाने की कोशिश करते हुए कहा था कि जयंत बाबू एक सही इंसान हैं, लेकिन गलत पाले में खड़े हैं। जयंत को लगता है कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव उनकी बात सुनेंगे। जयंत बाबू, आप गलत हैं, जो अपने पिता और चाचा की नहीं सुनता, वह आपकी क्यों सुनेगा? अगर सपा की सरकार बनी तो तीसरे दिन ही आप दरकिनार हो जाएंगे और आजम खान जेल से रिहा होकर आपकी जगह ले लेंगे।

शाह ने ऐसा क्यों किया?

शाह की ओर से जयंत और मायावती की तारीफ कई सियासी पंडितों के लिए चौंकाने वाला रहा। उनके इस तरह के बयानों के पीछे के उद्देश्यों और इरादों को लेकर अचरज हो रहा था। जबकि कुछ का तर्क है कि त्रिशंकु विधानसभा से पहले विरोधियों को दाना डालने का यह उनका तरीका है। वहीं भाजपा नेता मानते हैं कि यह चुनावी संदेश चुनाव-बाद के अंकगणित को ध्यान में रखकर नहीं, बल्कि चुनाव के बीच में समीकरणों पर असर डालने के लिए दिया गया है। तो क्या शाह ने जान बूझकर बसपा को मजबूत किया। अब तक के संकेतों से लगता तो यही है। कम से कम सात चरणों में उनके दिए गए बयानों से प्रवुद्ध मतदाताओं और राजनीतिक पर्यवेक्षकों के बीच संदेश तो यही गया है। रालोद प्रमुख जयंत चौधरी और बसपा प्रमुख मायावती की तारीफ के पीछे उन्हें पसंद करने से कहीं ज्यादा कुछ छिपा है, जिस राज से पर्दा चुनाव परिणाम आने पर ही खुल सकता है।

छठे और सातवें चरण इसलिए अहम

यूपी विधानसभा चुनाव ( UP Election 2022 ) के छठे यानि 3 मार्च को संपन्न मतदान और सातवें यानि कल होने वाला मतदान इन्हीं बदलावों की वजह से काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। फिर पूर्वी उत्तर प्रदेश की 164 सीटों में से इन दो चरणों में 111 सीटें शामिल हैं। भाजपा ने 2017 के राज्य चुनावों के अंतिम दो चरणों में मतदान वाली 111 सीटों में से 84 सीटों पर जबरदस्त जीत हासिल की थी। 2017 में सपा को 13, बसपा को कुल 19 में से 11 सीटें पूर्वी क्षेत्र में जीती थीं। पूरे यूपी में उसका वोट शेयर 21 फीसदी रहा था। अपना दल को 5, सुभासपा को 4 और निषाद पार्टी को एक सीट मिली थी। कांग्रेस और निर्दलीय ने एक-एक सीट पर जीत हासिल की थी।

खास बात यह है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में बसपा-सपा गठबंधन ने जौनपुर, आजमगढ़, गाजीपुर, घोसी और अंबेडकर नगर में भाजपा को मात दी थी। यानि पूर्वांचल इस बार भाजपा के लिए वेस्ट से ज्यादा महत्वपूर्ण है।

दलित फैक्टर पूर्वांचल में ज्यादा कारगर

इस क्षेत्र में दलितों की आबादी सबसे अधिक है। इसके बाद यादव, मुस्लिम, ब्राह्मण, कुर्मी, राजपूत और बनिया हैं। आजमगढ़, जौनपुर और मऊ सपा के गढ़ हैं। संत कबीर नगर बसपा का गढ़ माना जाता है। सपा ने इस बार अपना दल कृष्णा पटेल, सुभासपा के ओपी राजभर, महान दल, स्वामी प्रसारद मौर्य समर्थक आठ विधायकों सहित कई स्थानीय पार्टियों को अपने गठबंधन में शामिल कर लिया। मुख्तांर अंसारी फैक्टर भी इस बार सपा के पक्ष में है। यानि भाजपा को पता था कि पूर्वांचल में केवल अपना दल सोनेलाल और निषाद पार्टी के भरोसे किला फतल करना संभव नहीं है। इसलिए जातिगत समीकरणों का ख्याल रखते हुए शाह ने यह सुनिश्चित करने की कोशिश की है कि भाजपा को इस बार भी लाभ मिले। ऐसा न होने पर सपा को न मिलकर बसपा को जातिगत समीकरणा का लाभ मिले। यानि सपा के वजूद का अहसास इस बार अमित शाह जैसे भाजपा के चाणक्य को भी है। यही वजह है कि भाजपा ने बसपा की तारीफ की। ताकि बसपा कैडर अंतिम चरण के मतदान तक सक्रिय रहे। अब देखना यह है कि बसपा परंपरागत वोट को बांधे रखने के साथ भाजपा से नाराज दलितों व गैर जाटवों को वोट उसे पाले में जाती है या नहीं। अगर ऐसा नहीं हुआ तो सपा को लाभ मिलेगा। पर भाजपा के रणीनति सफल हुई तो इसका उलटा असर भी हो सकता है।

केवल दो विरोधी नेताओं की ही प्रशांसा क्यों?

इस बात पर भी गैर फरमाने की है कि अमित शाह ने पूरे यूपी चुनाव से पहले और उसके दौरान सिर्फ दो नेताओं की प्रशंसा की है, इसमें एक हैं जयंत चौधरी जिनके बारे में उन्होंने पश्चिमी यूपी के पहले दो चरणों के मतदान से पहले कहा था कि उनके लिए भाजपा के दरवाजे खुले हैं। यह जाट मतदाताओं को भ्रम में डालने और भाजपा के प्रति उनकी नाराजगी घटाने की कोशिश थी। चौथे चरण की वोटिंग के बाद इस दूसरे बयान में मायावती की प्रशंसा के पीछे उद्देश्य सत्ता विरोधी और सपा के मुस्लिम वोटों को बांटना और जाटवों की सहानुभूति हासिल करना है। इसके बावजूद सपा की रैलियों में भारी संख्या में लोगों का जुटना ये दर्शाता है कि अखिलेश यादव ने अपने समर्थकों से बांधे रखने में सफल हुए हैं, लेकिन 2020 के चुनावों की बात करें तो आपको बता दूं कि तेजस्वी यादव की सभाओं में जुटी भीड़ को देखकर दावा करने लगे थे आरजेडी की सरकार बनेगी। ऐसे में अगर यूपी का समीकरण बिहार से इतर हुआ तो ही सपा को लाभ मिलेगा।

अखिलेश ने भी नहीं बोला MAYAWATI पर हमला

यूपी के पूरे चुनाव प्रचार के दौरान देखें तो अखिलेश यादव ( Akhilesh Yadav ) ने भी मायावती पर सीधे हमला नहीं किया। ताकि जाटवों के साथ सद्भाव दर्शाया जा सके। इससे सपा का मकसद गैर जाटव वोट हासिल करना रहा। मायावती की प्रशंसा करके भाजपा चाहती है कि उसके प्रति उदार रुख रखने वाले जाटव मतदाता एक साझे दुश्मन सपा को हराने में उसके लिए मददगार बनें। शाह के इस रणनीति की काट के लिए अखिलेश ने मायावती पर हमले को लेकर हमेशा सॉफ्ट रवैया बनाए रखा।

इस बार दलित नेता भी सपा के साथ

इस बार एक और खास बात यह है कि दल बदल करने वाले नेताओं का राजनीतिक ठिकाना और पहली पसंद समाजवादी पार्टी बनी। असलम राइनी, असलम अली, मुजतबा सिद्दीक, हाकिम लाल बिंद, हरगोविंद भार्गव, सुषमा पटेल, वंदना सिंह, बीएसपी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष दयाराम पाल, कोऑर्डिनेटर रहे मिठाई लाल, पूर्व मंत्री भूरेलाल, इंद्रजीत सरोज, कमलाकांत गौतम, बसपा के पूर्व सांसद त्रिभुवन दत्त, पूर्व विधायक आसिफ खान बब्बू जैसे नेताओं ने मायावती का साथ छोड़कर सपा खेमे में हैं। इसी तरह बसपा की तरह कांग्रेस नेताओं में पूर्व केंद्रीय मंत्री व बदायू से पूर्व सांसद सलीम शेरवानी, उन्नाव की पूर्व सांसद अन्नू टंडन, मिर्जापुर के पूर्व सांसद बाल कुमार पटेल, सीतापुर की पूर्व सांसद कैसर जहां, अलीगढ़ के पूर्व सांसद विजेन्द्र सिंह, पूर्व मंत्री चौधरी लियाकत, पूर्व विधायक राम सिंह पटेल, पूर्व विधायक जासमीन अंसारी, अंकित परिहार और सोनभद्र के रमेश राही जैसे नेताओं ने कांग्रेस छोड़कर सपा का दामन थामा। इसलिए यह दावा करना मुश्किल है कि सपा इस बार केवल एमवाई फार्मूले के भरोसे है। इस बार उसे ब्राह्मण और गैर जाटव वोट मिलेंगे।

ये तीन फैक्टर अहम

पूर्वी यूपी चुनाव में इस बार दो तीन बड़े फैक्टर काम कर रहे हैं। जौनपुर, आजमगढ़, मऊ, गाजीपुर इन जिलों में राजभर का फैक्टर थोड़ा बहुत काम करेगा। इन जिलों में करीब 50 फीसदी सीटों पर राजभर समुदाय है। दूसरा ये है कि मुस्लिम एकजुट हैं क्योंकि इस बार मुख्तार अंसारी का पूरा समर्थन सपा के साथ है। तीसरा ये कि मुस्लिम और राजभर मिलकर यादव के साथ ठीक-ठाक सियासी समीकरण बनाते हैं। बीजेपी के साथ जो प्लस था वो राजभर, माइनस राजभर हुआ है तो वो पूर्वी यूपी में हुआ है न कि पश्चिमी में। पश्चिमी यूपी में कुछ माइनस नहीं हुआ है। पश्चिमी में तो जितना जाट को जिधर जाना था वो पहले से ही तय था।

क्या कहते हैं चुनावी समीकरण

छठे और सातवें चरण में मतदान वाली सीटों के लिए भाजपा ने 24 दलित और एसटी उम्मीदवारों को टिकट दिया है। जबकि बसपा ने 26 और सपा ने 25 ऐसे उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं। बसपा ने 16 मुस्लिम उम्मीदवारों को भी टिकट दिया है। सपा ने 11 मुस्लिम प्रत्याशी उतारे हैं। यहां तक कि कांग्रेस ने भी इन दोनों चरणों में 17 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है।

पहले दो चरणों में पश्चिमी यूपी में चुनाव के दौरान बसपा ने 28 से अधिक मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था। माना जा रहा है कि बसपा के इस रुख से सपा को उतना लाभ नहीं मिला जितना चुनावी माहौल के हिसाब से लग रहा था। शुरुआती चरणों में मिली बढ़त को बरकरार रखने के लिए भाजपा को उम्मीद है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में बसपा अपने गढ़ माने जाने वाले जिलों में सपा के मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाकार अच्छा प्रदर्शन करेगी। इसी तरह यूपी की 403 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव में सपा के 61 की तुलना में बसपा ने 88 मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं। ऐसा कर मायावती ने मुस्लिमों पर भरोसा जताते हुए उनके वोट बैंक को अपने पाले में करने की कोशिश की है। इसका लाभ 2007 में मायावती को मिल चुका है। जब मुस्लिम वोट छिटककर मायावती के पाले में चली गई थी। फिर वेस्ट यूपी में मायावती ने इस बार दलित, मुस्लिम और जाट का कार्ड खेला है, जबकि सपा रालोद ने जाट-मुस्लिम कार्ड खेला है।

UP Election 2022 : कुल मिलाकर यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा और सपा ने ही इस बार सियासी बिसात बिछाने का काम किया है। कांग्रेस तो शुरुआती चरणों में ही हार मानकर मैदान से बाहर हो गई थी। प्रियंका गांधी और राहुल गांधी की बहुत कम और अप्रभावी उपस्थिति इस बात के संकेत हैं कि उन्होंने पश्चिम बंगाल की तरह यूपी में सपा को वाकओवर देने जैसा काम किया है। मायावती ने किलर पॉलिटिशियन की भांति चुपचाप और बिना जोड़तोड़ के अपने प्यादे को चले। भाजपा और सपा की सियासी मजबूरियों की वजह से बसपा को ताकत मिली है। उसी ताकत के बल पर मायावती की पार्टी बसपा सियासी रिंग में वापस लौट आई है। यानि चुनाव में नुकसान भाजपा का हो सपा का, दोनों ही स्थिति में बसपा के दोनों हाथ में लड्डू हैं। इतना तय है कि सपा पहले से बेहतर स्थिति में रहेगी, पर क्या वो सरकार बना पाएगी या नहीं, इसके लिए 10 मार्च तक का इंतजार करना होगा। उसी दिन ये साफ होगा कि किसको क्या मिला और किसने क्या खोया।

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