लचर ही रहा भारत में यौन उत्पीड़न निषेध कानून का पालन, पीड़ित महिला को नहीं मिलता है वकील
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अनु भुइयां और श्रेया खेतान की रिपोर्ट
जयपुर/नई दिल्ली। इण्डिया स्पेंड ने अपनी समीक्षा में पाया कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की रोकथाम सम्बन्धी दिशा-निर्देशों को भारत सरकार द्वारा सर्वप्रथम जारी करने के लगभग 24 सालों बाद और इस दिशा में सरकार द्वारा क़ानून बनाने के 8 साल बाद भी इन उपायों की कार्यकुशलता के बारे में बहुत कम आंकड़े उपलब्ध हैं। सच तो यह है कि जुलाई 2019 में सरकार द्वारा संसद को बताया गया कि कार्यस्थल पर महिला उत्पीड़न की घटनाओं के बारे में सरकार किसी भी तरह के केंद्रीकृत आंकड़े नहीं रखती है। जानकारों ने 'इंडिया स्पेंड' को बताया कि भारत की महिला कामगारों में से 95 फीसदी अनौपचारिक क्षेत्र में काम करती हैं और उन्हें कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के बारे में रिपोर्ट करने के लिए क़ानूनी तौर तरीकों की जानकारी हासिल कर पाना मुश्किल होता है।
17 फरवरी को दिल्ली के एक कोर्ट ने पूर्व संपादक और वर्तमान सांसद एम जे अकबर द्वारा दायर मानहानि के मुकदमें में पत्रकार प्रिया रमानी को बरी कर दिया। गौरतलब है कि रमानी ने अकबर पर 1993 में यौन उत्पीड़न करने के आरोप लगाए थे।
मानहानि के आरोप से रमानी को बरी करते हुए अपने निर्णय में जज रविंद्र कुमार पांडे ने कहा, 'एक महिला को यह अधिकार है कि वो अपने पसंदीदा पटल पर अपनी शिकायत पेश करे और ऐसा वो दशकों बाद भी कर सकती है।'
जज ने इस बात का भी उल्लेख किया कि 1993 में रमानी के पास कोई भी ज़रिया नहीं था अपने तथाकथित उत्पीड़न से निदान पाने का क्योंकि भारत में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न रोकने सम्बन्धी विशाखा दिशा-निर्देशों को तैयार करना और महिलाओं को शिकायत का एक मंच उपलब्ध कराना 1997 में ही संभव हो सका। 16 साल बाद दिशा-निर्देश बनकर आए जिन्हें कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (निवारण,निषेध एवं निदान)अधिनियम,2013 के नाम से जाना गया। हालाँकि इसे लागू होने के 8 साल बाद भी अभी तक सरकार ने यह जानकारी प्रकाशित नहीं की है कि यह क़ानून और इसकी समितियां कितने प्रभावी ढंग से काम करती हैं।
जबकि मानहानि के केस से रमानी का बरी होना उन महिलाओं की जीत है जो यौन उत्पीड़न की शिकायत करने की कोशिश करती रही हैं, फिर भी यह आम परंपरा नहीं रही है। अक्सर महिलाओं की क़ानून तक पहुँच नहीं हो पाती है। जो क़ानून का सहारा लेती भी हैं उन्हें तमाम संस्थागत एवं सांस्कृतिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। अनौपचारिक क्षेत्र के कामगारों जैसी सैकड़ों हजारों महिलाओं को यौन उत्पीड़न निषेध क़ानून की पहुँच से बाहर ही रखा जाता है। कोई सरकारी एजेंसी क़ानून के लागू किये जाने की खबर नहीं रखती है।
इस बीच स्वतंत्र शोध में यह बात सामने आयी है कि क़ानून कम स्तर पर लागू किया जाता है। 655 ज़िलों में से ज़्यादातर (56 %) ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को देखने के लिए बनाई गईं समितियों के कामकाज संबंधी आंकड़ा उपलब्ध कराने से मना कर दिया और 2015 में किये गए कम्पनी सर्वेक्षण में यह बात सामने आयी कि 31 फीसदी कंपनियां कानून का पालन नहीं कर रही थीं।
रमानी ने इण्डिया स्पेन्ड से कहा, 'इसमें दो राय नहीं कि महिलाओं की सच्चाई को पीछे धकेल दिया जाता है।'
क़ानून के दायरे से बहुत सी महिलाओं को बाहर रखा जाता है -
यौन उत्पीड़न निषेध क़ानून कहता है कि 10 से ज़्यादा कर्मचारियों वाली हर कंपनी को एक अंदरूनी शिकायत समिति बनानी होगी। इस समिति में एक वरिष्ठ महिला कर्मचारी, 2 दूसरे कर्मचारी और ग़ैर-सरकारी संगठन से एक ऐसा सदस्य रखना होगा जो यौन उत्पीड़न के मुद्दों से वाक़िफ़ हो। हर एक ज़िले को भी एक अंदरूनी शिकायत समिति का गठन करना होगा। इस समिति को 10 से कम कर्मचारियों वाली कंपनी और अनौपचारिक क्षेत्र के कामगारों की शिकायतों को सुनना होगा। अनौपचारिक क्षेत्र में जो कामगार शामिल हैं वे हैं घरेलू कामगार, फेरीवाले, निर्माण क्षेत्र के कामगार, घर में रह कर बुनाई-कढ़ाई करने जैसे काम करने वाले, आशा और सामुदायिक स्वास्थ्य से जुड़े कामगार। भारत की 95 फीसदी कामगार महिलाएं (195 मिलियन) अनौपचारिक क्षेत्र में ही काम करती हैं।
क़ानून कहता है कि कोई भी महिला यौन उत्पीड़न की घटना होने के 3 से 6 महीने के भीतर अंदरूनी या स्थानीय शिकायत समिति को लिखित शिकायत दे सकती है। 'समझौते के माध्यम' से महिला और प्रतिवादी के बीच सुलह कराई जा सकती है या फिर शिकायत समिति जाँच बैठा सकती है और जाँच से मिली जानकारियों के आधार पर उचित कार्रवाई की सलाह दे सकती है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की Sexual Harrasment Electronic-Box (SHeBox) सुविधा के माध्यम से भी महिलाएं शिकायत दर्ज़ करा सकती हैं। यह सुविधा सभी महिला कामगारों के लिए ऑन लाइन शिकायत मंच है जिसे सरकार ने नवम्बर 2017 में लॉन्च किया था। इस मंच के माध्यम से दर्ज़ की गई शिकायतों को या तो अंदरूनी या फिर स्थानीय शिकायत समितियों को सौंप दिया जाता है।
लेकिन भारत में ज़्यादातर महिला कामगार शिकायत निवारण के इस तरह के तरीकों की मदद लेने में मुश्किलों का सामना करती हैं। इसीलिये इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाली महिलाओं की संख्या भारत मे कम है। वैसे महिलाओं द्वारा इंटरनेट का इस्तेमाल करने का प्रचलन राज्यों में एक दूसरे से अलग है। भारत के ताज़ा National Family Health Survey के आंकड़ों के अनुसार सिक्किम की 77 फीसदी महिलाओं ने इंटरनेट इस्तेमाल करने की बात स्वीकार करी जबकि बिहार में 21 फीसदी महिलाओं ने ही ऐसा किया।
पेशे से वकील और Criminal Justice and Police Accountability Project की संस्थापक निकिता सोनावने ने कहा, 'वर्तमान क़ानूनी ढाँचे अभी तक उन्हीं महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करते हैं जिनके पास पहले से ही सुविधाएँ है ,उदाहरण के तौर पर उन्हें जो औपचारिक क्षेत्र में काम करती है।वहीं अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली महिलाएं विभिन्न जाति और वर्ग के हाशिये पर पड़े समुदायों से आती हैं। क़ानून या महिला आंदोलनों में उनके लिए कोई जगह नहीं होती है।'
कभी-कभी औपचारिक क्षेत्र की महिलाओं के लिए भी संस्थागत प्रक्रियाएं अस्पष्ट होती हैं। 2019 में जब तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के कार्यालय में काम करने वाली एक महिला ने उनके ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न का केस दर्ज़ करने की कोशिश करी तो उन लोगों के बीच असमंजस की स्थिति देखी गई जिन्हें इस शिकायत पर विचार करना था। इस केस ने भारत के वर्तमान नियमों की कलई खोल दी : जबकि सुप्रीम कोर्ट का कोई कर्मचारी अपने सह-कर्मियों और वरिष्ठों(जजों समेत) के खिलाफ यौन उत्पीड़न की शिकायत कर सकता है, लेकिन भारत के मुख्य न्यायाधीश के ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज़ करवाने की कोई व्यवस्था नहीं है। इस तरह के अपराध के शिकार किसी व्यक्ति के लिए मौजूदा नागरिक एवं आपराधिक दिशा-निर्देश अंधी सुरंग माफ़िक हैं।
ज़िला शिकायत समितियां ठीक से काम नहीं करती हैं
लैंगिक मुद्दों पर काम करने वाले नई दिल्ली के एक संगठन Martha Farrell Foundation द्वारा 2016-2017 में सूचना के अधिकार के तहत लगाई गई अर्ज़ियों के जवाब में यह जानकारी दी गई कि ज़िला स्थानीय शिकायत समितियां सार्थक कार्य नहीं कर रही हैं।
फ़ाउंडेशन ने ये जानकारी हासिल करनी चाही थी कि प्रत्येक राज्य में कुल कितनी स्थानीय समितियां बनाई जाती हैं,उनमें कुल कितने सदस्य होते हैं,सदस्यों के ब्यौरे क्या हैं,समितियों के काम करने का समय क्या है, समिति के पास कुल कितने केस आए और कितनों का निवारण किया गया ? लेकिन उनके द्वारा संपर्क किये गए 655 ज़िलों में से 56 फीसदी ने कोई जवाब नहीं दिया। केवल 29 फीसदी ने कहा कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मामलों को देखने के लिए उनके यहाँ स्थानीय समितियां हैं और 15 फीसदी ने कहा कि उन्होंने अभी तक कोई समिति नहीं गठित की है।
Martha Farrell Foundation को यह भी पता चला कि हालाँकि क़ानून हिदायत देता है कि इन समितियों की मुखिया महिला होनी चाहिए और एनजीओ सहित इसमें कम से काम पांच सदस्य होने चाहिए लेकिन हक़ीक़त में ऐसा नहीं था।
क़ानून की निगरानी किस तरह होनी चाहिए
यौन उत्पीड़न निवारण क़ानून के तहत अंदरूनी और स्थानीय समितियों को हर साल ज़िला अधिकारी को रिपोर्ट देनी होती है। इस रिपोर्ट में दाखिल किये गए केसों की संख्या और उनके निवारण का ब्यौरा दिया जाता है। क़ानून कहता है, 'वाजिब सरकार इस क़ानून के क्रियान्वयन पर निगरानी रखेगी और कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से जुड़े कुल दर्ज़ किये गए और निष्पादित किये गए केसों के आंकड़ों का हिसाब रखेगी।'
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अनुसार ज़िला अधिकारी को कानून के अनुपालन सम्बन्धी कंपनियों की वार्षिक रिपोर्ट्स पर संक्षिप्त टिप्पणी राज्य सरकार को भी भेजनी चाहिए ताकि वे आंकड़ों का हिसाब-किताब रख सकें।
महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने इस साल फरवरी में संसद को बताया, 'जिला और राज्य स्तर पर राज्य द्वारा स्थापित,चलाये जा रहे,नियंत्रित किये जा रहे,या राज्य द्वारा उपलब्ध कराये जा रहे फंड से पूर्ण या अधिकांश रूप में सीधे अथवा परोक्ष तरीके से वित्तीय सहायता प्राप्त कर रहे कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न के सभी मामलों में कुल दर्ज़ किये गए और निपटाए गए केसों के आंकड़ों का हिसाब-किताब रखने की ज़िम्मेदारी सम्बंधित राज्य सरकारों की होगी।'
कौन से आंकड़े उपलब्ध हैं
केंद्र या राज्य सरकारें इस बारे में आंकड़ें इकट्ठे या प्रसारित नहीं करती है कि कितनी कम्पनियाँ और ज़िले दिशा-निर्देशों का पालन करती हैं और अपने यहाँ समितियों का गठन किया है,कितनी शिकायतें दर्ज़ की हैं और इनका परिणाम क्या रहा है। ये आंकड़े इधर-उधर सार्वजनिक स्त्रोतों में बिखरे हुए मिलेंगे।
केंद्र सरकार ने जानकारी तभी उपलब्ध कराई है जब कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को ले कर संसद में सवाल उठाया गया है। लेकिन इण्डिया स्पेन्ड की जांच ने पाया कि ये आंकड़े टुकड़े-टुकड़े में बिखरे हैं और इन्हें हासिल कर पाना मुश्किल होता है। संसद में दिया गया जवाब यह भी नहीं स्पष्ट करता है कि कितने ज़िलों और/या कंपनियों से आंकड़ा जुटाया गया है।
जुलाई 2019 में सरकार द्वारा राज्य सभा में दिए गए जवाब के अनुसार SHeBox को 612 शिकायतें मिली थीं- इनमें 196 केंद्र सरकार से,103 राज्य सरकारों से और 313 निजी संगठनों से। लेकिन साल-दर-साल इन शिकायतों पर नज़र बनाये रखने का कोई तरीक़ा नहीं है। उदाहरण के लिए पिछले साल फरवरी में सरकार द्वारा संसद में दिए गए एक अन्य जवाब में कहा कि नवम्बर 2017 और फरवरी 2020 के बीच दर्ज़ की गई 539 शिकायतों में से लगभग 70 फीसदी का निपटारा बकाया है।
भारत सरकार द्वारा गठित स्वायत्त इकाई राष्ट्रीय महिला आयोग को भी कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न की शिकायतें मिलती हैं। 2018-19 में राष्ट्रीय महिला आयोग के पास इस तरह की 88 शिकायतें आई थीं।
यौन उत्पीड़न पर अपराध रिकॉर्ड डेटा
यौन उत्पीड़न निषेध क़ानून के तहत ना तो पीड़ित महिला और ना ही अपराधी को वकील मिलता है, जांच में और किसी अपराध का संज्ञान लेने में न्यायालय शामिल नहीं होते हैं। लेकिन महिलाएं अलग से पुलिस केस दर्ज़ करा सकती हैं।
2019 में National Crime Records Bureau ने 'कार्यस्थल या कार्यालय परिसर में महिलाओं की लाज पर हमला करने वाले' 505 केस दर्ज़ किये थे। यह आंकड़ा 2017 की तुलना में 5 फीसदी ज़्यादा था और 2014 के 57 केसों की तुलना में 800 फीसदी ज़्यादा था।
पुलिस के पास यौन उत्पीड़न के आंकड़ों की कमी
भारत में 2013 और 2014 में कार्यस्थल पर पुलिस महिलाओं के यौन उत्पीड़न सहित काम करने के आम हालात का जायजा लेने के लिए एक संसदीय समिति के गठन के बावजूद इस बारे में बहुत काम आंकड़े उपलब्ध हैं। समिति की 2013 की रिपोर्ट कहती है कि सरकार से कहा गया था कि वो पुलिस में कार्यरत महिलाओं के यौन उत्पीड़न की शिकायतों के निदान के आंकड़े जमा करे और उन्हें पेश करे। उस समय सरकार ने जवाब में कहा था कि शिकायतें सूनी जा रहीं हैं लेकिन कोई आंकड़ा पेश नहीं किया था। सरकार ने यह भी कहा था कि वो यौन उत्पीड़न प्रकोष्ठों को अच्छी तरह स्थापित करने में नाकाम रही है।
समिति ने सरकार से यौन उत्पीड़न पर और अधिक आंकड़ा जमा करने को कहा लेकिन की गई कार्रवाई सम्बन्धी रिपोर्ट इसकी पुष्टि नहीं करती है कि पुलिस ने आंकड़ा जमा करने की पहल की। सरकार ने राज्यों को परामर्श दिया था कि वे यौन उत्पीड़न के मामलों में कड़ाई से पेश आएं लेकिन नए आंकड़े या जानकारी जमा करने या पेश करने के लिए नहीं कहा।
यौन उत्पीड़न पर केवल Central Industrial Security Force (CISF) ने संसद में आंकड़े जमा किये। इनके अनुसार 2012 में यौन उत्पीड़न की 19 शिकायतें दर्ज़ की गई थीं। इसके आलावा 2007 से 2014 के बीच यौन उत्पीड़न के आरोप लगने के बाद 4 CISF कर्मचारियों को नौकरी से बर्खास्त किया गया, 2 को जबरन रिटायर किया गया और 20 लोगों का या तो ओहदा कम कर दिया गया या उनकी तनख्वाह घटा दी गई।
आंकड़ों की कमी के बावजूद,संसदीय पैनल इस निष्कर्ष पर पहुँच गया कि यौन उत्पीड़न सम्बन्धी सभी दिशा-निर्देश 'पुलिस महकमों में ईमानदारी के साथ लागू किये जा रहे हैं।'
बेहतर आंकड़े कैसे मदद कर सकते हैं
निजी कम्पनियां सार्वजनिक रूप से सूचीबद्ध कंपनियों की वार्षिक रिपोर्टों को पढ़ कर आंकड़े जमा करती हैं। उदाहरण के लिए, यौन उत्पीड़न निषेध कानून को लागू करने में संगठनों की मदद करने वाली कंपनी Complykaro को पता लगा कि 44 निफ़्टी कंपनियों की अंदरूनी समितियों को रिपोर्ट किये गए केसों में 2019-2020 में 2.6 फीसदी की गिरावट आई यानी 2018-19 के 675 केसों की तुलना में 2019-20 में 657 केस ही रिपोर्ट किये गए। यह खबर मिंट अखबार में सितम्बर 2020 में छपी थी। लेकिन ये आंकड़े आम लोगों के लिए उपलब्ध नहीं हैं।
2015 में फिक्की और परामर्शदाता अर्नस्ट और यंग द्वारा किये गए सर्वे में यह बात सामने आई कि 31 फीसदी कम्पनियाँ यौन उत्पीड़न निषेध कानून का पालन नहीं कर रही हैं जबकि 35 फीसदी इस बात से अवगत नहीं हैं कि लागू ना करने से दंड मिलेगा और 40 फीसदी ने तो अंदरूनी समिति के सदस्यों को प्रशिक्षित ही नहीं किया था।
व्यापारिक संस्थानों में यौन उत्पीड़न निषेध कानून लागू करवाने में मदद करने वाली बेंगलुरु की कंपनी TrustIn की सीईओ मेघना श्रीनिवास का कहना है कि क़ानून का पालन करने वाली कंपनियों में भी लागू करने का स्तर अलग-अलग होगा। उनका अनुमान है कि 'केवल 9 से 12 फीसद कम्पनियाँ ही क़ानून का पूरी तरह से पालन कर रही होंगी।'
वे कहती हैं, 'नेक इरादों वाली कम्पनियाँ भी नहीं जानती हैं कि क़ानून को किस तरह लागू किया जाये, समिति में शामिल अपने कर्मचारियों को कैसे प्रशिक्षित किया जाये और यौन उत्पीड़न के केसों में कैसे निर्णय लिया जाए। संसाधन संपन्न बड़ी कंपनी यौन उत्पीड़न निषेध क़ानून पर एक समर्पित व्यक्ति की तैनाती कर सकती है लेकिन एक छोटी कंपनी ऐसा नहीं कर सकती है।' यहां तक कि अंदरूनी समिति के लिए बाहरी सदस्य की योग्यता में भी अंतर हो सकता है क्योंकि सदस्य बनाने के लिए कोई तय योग्यता नहीं है।
इसके अलावा विभिन्न स्थानीय समितियां कंपनियों से यौन उत्पीड़न निषेध क़ानून को लागू करने सम्बन्धी जानकारियाँ अलग-अलग प्रारूपों में चाहती हैं और अलग-अलग तरह की जानकारियाँ मांगती हैं।
न्यूयॉर्क स्थित Human Rights Watch सगठन ने सिफारिश की है कि सरकार को स्थानीय ज़िला समितियों द्वारा प्राप्त और निपटाए गए यौन उत्पीड़न के मामले के आंकड़ों को प्रकाशित करना चाहिए और इन समितियों के प्रभावी होने सम्बन्धी एक ऑडिट भी करना चाहिए। Human Rights Watch ने 2020 में एक रिपोर्ट छापी है जिसमें बताया गया है कि किस तरह भारत में अनौपचारिक क्षेत्र की महिलाओं को यौन उत्पीड़न से निजात नहीं मिलती है।
श्रीनिवास का कहना है कि बेहतर प्रकार के आंकड़े प्रचलन को विश्लेषित करने में मदद करेंगे और इन केसों के लिए मानक संचालन प्रक्रियाओं की जानकारी देंगे जो क़ानून को बेहतर तरीके से लागू करने में मदद करेंगे। वे आगे कहती हैं कि आंकड़े यौन उत्पीड़न पर जिला स्तर की नीतियों की जानकारी दे सकते हैं और संसाधनों के सही आबंटन में सरकार की मदद भी कर सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, अगर स्थानीय समिति से ज़्यादा ज़रुरत जिला समिति की है तो उसके लिए ज़्यादा धन आबंटित किया जाना चाहिए।
श्रीनिवास बोलीं, 'प्रिया रमानी केस में दिया गया फ़ैसला पूरे भारत में तरंगित असर छोड़ेगा क्योंकि इसने ऐसी महिलाओं को ज़्यादा वैधता प्रदान की है जो किसी भी मंच पर बोलने की हिम्मत रखती हैं और संभवतः कानून को महिलाओं के मानसिक आघात के प्रति ज़्यादा जागरूक बनाया है और इसलिए उस समय सीमा को भी बढ़ा दिया है जिसके भीतर कोई महिला केस को रिपोर्ट कर सके।'