Begin typing your search above and press return to search.
विमर्श

संविधान की जीवन वार्षिकी की बारहमासी की तरह हैं ये बारह संविधान मर्मज्ञ

Janjwar Desk
3 April 2021 3:30 PM IST
संविधान की जीवन वार्षिकी की बारहमासी की तरह हैं ये बारह संविधान मर्मज्ञ
x
संविधान ने नहीं सोचा होगा कि उसे कुछ कूढ़मगज, संकीर्ण और मनुष्य विरोधी साजिशकर्ता लोग बहुमत के सामने लाचार बनाकर खड़ा करने की जुगत भी बिठाएंगे, यह तो ठीक है कि उसके कुछ वफादार और पारदर्शी स्वभाव के अस्तित्वरक्षकों ने कई कर्मठ किसानों, मज़दूरों, छात्रों, महिलाओं, वंचितों और परेशान दिमागों से मिलकर उसके यश को हिफाजत में रखा है...

कनक तिवारी की टिप्पणी

पचास साल हो रहे हैं संविधान की पोथी में खोपड़ी धंसाए दिमाग की वर्जिश करते बोलते, लिखते, पढ़ते और संविधान को दी गई चुनौतियों से जूझते। लगातार महसूस होता रहा है 'हम भारत के लोग' जिसे सामूहिक रूप से अपने प्रतिनिधियों के जरिए लिख चुके। उस किताब के केन्द्रीय संदेश और अमलकारी ताकत को महफूज़ और जीवंत रखना चाहिए। पता नहीं क्यों भारत में पिछले सत्तर वर्षों में अब बूढ़े हो चले लेकिन अनंत युवा संविधान की इबारतों का दम कई बार फूलता हुआ दिखाई देता है। उसकी देह के हर अंग पर नफरत, खूंरेजी, गफ़लत, मतिभ्रम और दुर्भावनाओं की चोटें ही चोटें झिलमिलाती हैं।

संविधान ने नहीं सोचा होगा कि उसे कुछ कूढ़मगज, संकीर्ण और मनुष्य विरोधी साजिशकर्ता लोग बहुमत के सामने लाचार बनाकर खड़ा करने की जुगत भी बिठाएंगे। यह तो ठीक है कि उसके कुछ वफादार और पारदर्शी स्वभाव के अस्तित्वरक्षकों ने कई कर्मठ किसानों, मज़दूरों, छात्रों, महिलाओं, वंचितों और परेशानदिमागों से मिलकर उसके यश को हिफाजत में रखा है। हमलावरों के पैने नाखून और तेज नश्तर किसी करुणा की फैक्टरी के उत्पाद नहीं होते इसलिए जब जैसा जो बन पड़ा, लिखते, सोचते संविधान की मानवधर्मी पैरवी करने यह एक किताब लिख देने का जज़्बा अंदर ही अंदर उत्तेजित करता स्याही के रास्ते कागजों पर आखिर छपे बिना मान नहीं सका।

संविधान के जनवादी और सर्वसुलभ सफर के साथ उसके इतिहास की बानगी और भविष्य की अनुकूलता के तेवर सैकड़ों लेखकों, अध्यापकों, वकीलों, न्यायविदों और पत्रकारों सहित छात्रों की जहीन और पैनी बुद्धि में सवाल उठाते, जवाब देते कर्तव्यनिष्ठ रहे हैं। वकील होने के नाते एक लंबी फेहरिस्त में कई महत्वपूर्ण नामों में से कुछ नाम किसी कारण से लिखते, सोचते वक्त कौंधते रहे हैं। उनके नाम जनता के सवालों के प्रतीकों, प्रवक्ताओं और प्रस्तोताओं के रूप में दर्ज करने से किताब की अहमियत और विश्वसनीयता में इजाफा होने का अहसास मुझे महसूस हुआ है।

उम्र के लिहाज़ से संविधान यात्रा में ए.जी. नूरानी को बिना पढ़े अंदर कौंध होना मुमकिन ही नहीं हुआ। उनकी किताबें और सैकड़ों लेख जेहन में फकत भले नहीं हैं, बल्कि जज़्ब हो गए हैं। हटेंगे नहीं। नूरानी का ज्ञान-संसार विविधताओं, अनोखेपन, गम्भीरता और बहुविध सामाजिक विज्ञानों को अपनी असाधारण भाषा में नदी के जल की तरह प्रवाहित करता रहता है। वे शलाका पुरुष हैं।

असाधारण उर्वर बुद्धि के उपेन्द्र बक्शी से एक बार की ही रूबरू मुलाकात और चर्चा आज तक उत्तेजना पैदा करती है। अनुसूचित जातियों और जनजातियों के संरक्षण के लिए बना अधिनियम उनकी सलाह से लिखे गए पत्र के कारण प्रधानमंत्री विश्नाथ प्रताप सिंह के वक्त अधिसूचित हुआ था। वे विचार सरोवर, वटवृक्ष और उपजाऊ खेत एक साथ हैं।

इंदिरा जयसिंह द्वारा संपादित 'लाॅयर्स कलेक्टिव' के एक से एक प्रखर अंक और उनकी जहीन बुद्धि के मुद्दों की पैरवी का मैं पाठक, दर्शक तथा श्रोता रहा हूं। इंदिरा का साहस उनकी हर विपरीत चुनौती के लिए आत्मिक पूंजी है। कभी कभी लगता है इंदिरा नाम से ही समझदार साहस की पारम्परिक पहचान होती है।

डाॅ. राजीव धवन चलता फिरता ज्ञान-विश्वविद्यालय हैं। एक प्रमुख मुकदमे में उनके साथ जुड़कर पैरवी करते वक्त मैंने उनके स्वभाव, हावभाव और तर्कशक्ति के दांव देखते महसूस कर लिया था कि यह मेरे जीवन का अच्छा ज्ञाननिवेश हुआ। राजीव धवन मौलिकता की खुर्दबीन के आविष्कारक ही हैं। वे मेरे सबसे प्रिय विचार वैज्ञानिक भी हैं।

भाई दुष्यंत दवे तो मिले भी हैं। उन्हें सुना, देखा, समझा और बात की है। उनमें समुद्र के ज्वार की तरह उफनता उद्दाम न्यायप्रियता को लेकर जिस तरह सुप्रीम कोर्ट की समझ की बद्धमूल अवधारणाओं के खिलाफ भूचाल लाता है, वह मेरे लिखते रहने का एक कारण भी है। दुष्यंत दवे के कारण वकालत का व्यवसाय 'बोनलेस चिकन चिली' नहीं समझा जा सकता। चाहे हमलावर कितना ही ताकतवर साजिशी क्यों न हो!

मित्र और भाई प्रशांत भूषण ने अपने छात्र जीवन से संविधान को बचाने के नाम पर जोखिम ही उठाए हैं। उसके कारण उन पर लगे और पटा दिए गए एक रुपए जुर्माने का एक पेचीदा समीकरण भविष्य हल करेगा। उनके साहस की संविधान को ज़रूरत है। प्रशांत भूषण मेरे लिए जिद, जिरह, जिच और जिजीविषा के राष्ट्रीय रोल माॅडल हैं। योद्धा प्रशांत के कारण संविधान अपनी रीढ़ पर डटा रहना महसूस करता है।

कामिनी जायसवाल से कभी साथी वकील होने के नाते मिला भी हूं। उन्हें याद क्यों होगी क्योंकि वे सौजन्य मुलाकातें देखने भर की रही हैं। एक याचिकाकार और वकील के रूप में अपनी साथी अधिवक्ताओं के साथ मिलकर या अन्यथा अकेले भी कामिनी ने जो तेवर अपनी वाग्मिता में दिखाए हैं, वे महिला सशक्तिकरण का नहीं संविधान के सशक्तिकरण का उदाहरण हैं।

विधि विशेषज्ञ और संविधान मर्मज्ञ फैज़ान मुस्तफा से दो ढाई बरस पहले हुई सार्थक बातचीत के बाद उनसे कोशिश करने पर भी संपर्क नहीं हो पाया। संवैधानिक ज्ञान और उसकी आत्मा को जनसुलभ भाषा में परोसकर फैज़ान साहब पूरे देश के नागरिकों को अपनी तरफ जो तोहफा दे रहे हैं। वह घरों के दीवानखानों में सजाने की वस्तु नहीं है। लोगों के जे़हन में पैठते जाने से एक नए भारत के उठ खड़े होने की संभावनाओं की बुनियाद चुनी जा रही है।

वृन्दा ग्रोवर मेरी फेसबुक फ्रैंड हैं। मैं उनकी ओर गहरे से आकर्षित हूं। उनसे हालांकि उम्र में बड़ा नागरिक हूं। संवैधानिक अधिकार छीने जा रहे निज़ाम-पीड़ित लोगों के प्रहरी के रूप में उनके प्रयत्नों के लिए भविष्य की भी मुबारकबाद देना चाहता हूं। वृन्दा ग्रोवर का तर्क समुच्चय करुणा की कोख से पैदा होकर कानून के जंगल को जंगल का कानून बनाने से रोकता है।

काॅलिन गोन्ज़ालवीज़ तो मेरे छोटे भाई और दोस्त हैं। हमारे छत्तीसगढ़ से कई तथाकथित मानव अधिकार कार्यकताओं को सरकारी खिताब (?) 'अर्बन नक्सल' देने को लेकर संघर्ष करने की हमारी साझा विरासत है। चाहे विनायक सेन हों, सुधा भारद्वाज हों, तमाम पीड़ित हों या बहुत पहले कभी शंकर गुहा नियोगी भी रहे हों। काॅलिन की ईमानदारी और प्रामाणिकता को किसी प्रमाणपत्र की ज़रूरत नहीं है।

यही हाल संजय हेगड़े का है। उनसे जब भी मिला, लगा कोई बेहद सरल व्यक्ति अपनी मुस्कराहट में उन तमाम जिजीविषाओं को छिपाकर संघर्षधर्मी तेवर कभी भोथरा नहीं होने देगा, जो संविधान की केन्द्रीय आवाज़ 'हम भारत के लोग' का निश्चय और भवितव्य है। संजय को देखने सुनने से उनके अन्दर खदबदाते मनुष्य-धर्मी इरादों को संविधान तुरन्त समझ लेता है।

गौतम भाटिया का नाम चुन लेना मेरे लिए रोमांचकारी अनुभव है। यह युवा अधिवक्ता और लेखक संविधान की अभिधारणाओं को लेकर नीचे कहीं गहरे अतल में डूबकर वे रहस्य खोज लेना चाहता है जिन्हें न्यायिक व्यवस्था भी अपने सात्विक अहंकार में खारिज करती रहती है। गौतम इक्कीसवीं सदी के युवा संविधान का भविष्य हैं।

ये बारह संविधान मर्मज्ञ संविधान की जीवनवार्षिकी की बारहमासी की तरह हैं। वे हर मौसम में संविधान और 'हम भारत के लोग' का एक ज़िंदा फलसफा बनाए रखने में अपने कर्म में कुछ भी बचाकर नहीं रख रहे हैं।

Next Story

विविध