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विमर्श

मोदी सरकार की संपत्ति मुद्रीकरण योजना का सबसे बड़ा नुकसान दलितों-वंचितों को : उदित राज

Janjwar Desk
16 Sept 2021 2:10 PM IST
मोदी सरकार की संपत्ति मुद्रीकरण योजना का सबसे बड़ा नुकसान दलितों-वंचितों को : उदित राज
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कांग्रेस प्रवक्ता राज ने संपत्ति मुद्रीकरण योजना पर मोदी सरकार को किया कटघरे में खड़ा

नोटबंदी (demonetisation) से ही अर्थव्यवस्था पटरी पर से उतर गयी थी, उसकी बाद लगातार गलतियां होती ही जा रही हैं. आश्चर्य होता है की इतने बड़े देश में क्या सरकार को अर्थशास्त्री नहीं मिल पा रहे जो सही सलाह दे सके....

पूर्व सांसद और कांग्रेस प्रवक्ता उदित राज की टिप्पणी

जनज्वार। आर्थिक जगत में नेशनल मानेटाईजेशन पाइप लाइन {national monetization pipeline} कहीं नही सुना होगा. यह मोदी सरकार (Modi Govt.) में ही संभव है. सरकार 26700 किलोमीटर रेल, 400 रेलवे स्टेशन, 90 पैसेंजर ट्रेन, 4 हिल रेलवे पावर ट्रांसमिशन , टेलीकाम, पेट्रोलिम प्रोडक्ट और गैस आदि का राष्ट्रीय मुद्रीकरण की अनोखी योजना लायी है, जिसके द्वारा व्यापारियों को राजस्व अधिकार बेचा गया. निजी क्षेत्र इन सम्पत्तियों का प्रबंधन ज्यादा प्रभावी ढंग से करके अतिरिक्त राजस्व जुटाएगा.

जान-बूझकर बिक्री, विनिवेश, निजीकरण जैसे शब्दों से बचाया गया है. कोई भी व्यक्ति यदि ईमानदारी की नजर से देखेगा समझने में मुश्किल नहीं होगा कि किस तरह से जनता की सम्पत्ति को लुटाया जा रहा है. तर्क यह गढ़ा जा रहा है कि सरकार चलाने के लिए राजस्व में लगभग 6 लाख करोड़ इस तरह से जुटाया जायेगा.

इन संपत्तियों को 60 साल में जनता की गाढ़ी कमाई से बनाया गया है. भले ही आम जनता को इस बात का बोध हो कि रेल का मालिक वो नहीं है, लेकिन पैसा उसी का लगा हुआ है. रेहडी, पटरी , छोटा कारोबारी, मजदूर, किसान सभी टैक्स देते हैं. कपडा, साईकिल, लोहा , अनाज, तेल, छाता, टार्च आदि जीवन में उपयोग करने वाली वस्तुओं को जब भी आम आदमी खरीदता है तो टैक्स भी देता है. यही पैसा संग्रहित होकर बड़े व्यापारी के पास जाता है और वह अपना खर्च काट करके आय या टैक्स चुकाता है. कभी-कभी बड़े उद्योगपति चिंघाड़ मारते हुए सुने जायेंगे की उनके टैक्स के पैसे का दुरूपयोग हो रहा है, लेकिन आम आदमी जो उपभोक्ता है, बेचते तो उसी को हैं इस तरह से टैक्स सभी लोग देते हैं. यह कम या ज्यादा हो सकता है.

सरकार जब इनका संचालन करती है तो मुनाफा कमाना उनका उद्देश्य नहीं होता है, बल्कि नौकरी देना आपूर्ति इत्यादि लक्ष्य होता है. जब इनका संचालन निजी क्षेत्र द्वारा किया जाएगा तो उनका उद्देश्य अधिक से अधिक मुनाफा कमाना होगा. ऐसे में न केवल वेतन में कटौती करेगा बल्कि सामाजिक उद्देश्यों से भी दुरी बनाएगा. बेहतर सेवा देने के लिए निजी क्षेत्र बैंक से क़र्ज़ लेकर निवेश करेगा. उस क़र्ज़ पर ब्याज भी निरंतर रूप से देना पड़ेगा.

यह गारंटी नहीं है वह राजस्व निकाल कर के सरकार को दे ही. हो सकता है कि बैंक का लोन न दे सके और ऐसी स्थिति में दिवालिया घोषित करा ले. इसके अतिरिक्त जो भी सेवा जनता को देगा उसको वो और महंगा होगा. जब महगाई बढ़ेगी तो लोगों का जीवन स्तर में परिवर्तन होगा और सरकार को कुछ न कुछ किसी रूप में भरपाई करनी पड़ेगी. अंत में सारा बोझ भारत सरकार के ऊपर ही आना है. निजी क्षेत्र जब कम वेतन देता है तो खर्च करने की क्षमता घटती है. वैसी परिस्थिति में अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ जाती है अप्रैल 20-21 में जब कोरोना का दौर था तो राहुल गांधी ने बार–बार कहा था कि सरकार लोगों के हाथ में नकदी दे, लेकिन वो न किया जा सका. उसके दुष्परिणाम अब ज्यादा देखने को मिल रहे हैं. लघु और मझोले उद्योग लगभग समाप्त हो गए हैं.

नोटबंदी (demonetisation) से ही अर्थव्यवस्था पटरी पर से उतर गयी थी, उसकी बाद लगातार गलतियां होती ही जा रही हैं. आश्चर्य होता है की इतने बड़े देश में क्या सरकार को अर्थशास्त्री नहीं मिल पा रहे जो सही सलाह दे सके. जीएसटी भी गलत तरीके से लागू किया गया. देश की अर्थव्यवस्था पर यह दूसरी बड़ी चोट थी. होना यह चाहिए था की इसका प्रयोग करके लागू करना चाहिए था. तीसरा झटका अर्थव्यवस्था को तब लगा जब देश को अचानक लॉकडाउन कर दिया गया.

चौथे के बारे में चर्चा की जा चुकी है. वो ये है की लॉकडाउन (Lockdown) के दौरान सरकार को लोगों के हाथ में नगदी पहुंचाना था. जोर-शोर से कहा गया कि 20 लाख करोड़ का पैकेज दिया जा रहा है. सच ये है की उसमे से दो लाख करोड़ भी सीधे जनता के हाथ में नहीं पहुच पाया. तानाशाही से सरकार जब चलेगी और चंद पूंजीपतियों को आगे बढाया जायेगा तो आर्थिक उन्नति कहा से आएगी? सरकार एक के बाद दूसरी गलती करती जाए और बेची जाय जनता के खून पसीने से निर्मित सम्पत्ति.

सरकार को खर्चा चलाने के लिए राजस्व अर्जित करने का यह तरीका अव्यवहारिक और जनता की सम्पत्ति लुटाने का है. हालत ऐसी है की 50 हजार रूपये का फोन चोरी करने वाला 5 हजार में बेचकर भी खुश हो जायेगा. मोदी सरकार ने तो खुद कुछ बनाया नहीं है. सरकारें सम्पत्ति जितने में भी बिक जाए वह भी ठीक है. 8 लाख करोड़ रुपया बैंकों का पूंजीपतियों पर कर्जा है. क्यों नहीं सरकार सख्ती से उसे वसूल पा रही है?

ज्यादातर बड़े व्यापारी क़र्ज़ लेकर के उससे अर्जित सम्पत्ति या मुनाफा चोर दरवाजे से परिवार के नाम या काले धन के रूप में छुपा देते हैं और खुद को दिवालिया घोषित कर देते हैं. इमानदारी से जांच किया जाय तो ये सब पकड़ में आ जायेंगे. तो 8 लाख का एनपीए भले ही पूरा रिकवर न हो लेकिन 5-6 लाख करोड़ तो जरुर वसूला जा सकता है. तमाम शहरों में इनकम टैक्स के कार्यालय तक नहीं हैं और बहुत लोग ऐसे हैं जो टैक्स देते ही नहीं हैं. अगर उसे जुटाने का प्रयास किया जाय तो 10 लाख करोड़ से ज्यादा का राजस्व लाया जा सकता है.

काला धन लाने का प्रयास किया गया होता तो भी राजस्व की कमी कुछ पूरा हो पाता. हजारों करोड़ फौरन फंडिंग के ऊपर रोक लगाकर राजस्व की हानि ही हुयी है. सबसे बड़ी हानि निजीकरण से दलित-आदिवासी–पिछड़ों को होगी, क्योंकि निजीकरण में आरक्षण नहीं होता है. अंधविश्वास, पाखण्ड और हिन्दू- मुस्लिम की नफरत की चपेट में आने वाले लोग समझ नहीं पा रहे हैं और यह भी एक कारण है कि सत्ता ऐसे लोगों के हाथों में सौंप दी है जो आम जनता के बारे में न सोंचे.

(उदित राज पूर्व सांसद और कांग्रेस प्लानिंग कमिटी के सदस्य एवं राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।)

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