Social Movement: सामाजिक बदलाव की संभावना वाले आन्दोलन सफल होते हैं
Social Movement: सामाजिक बदलाव की संभावना वाले आन्दोलन सफल होते हैं
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
Social Movement: सामाजिक बदलाव की संभावना वाले आन्दोलन अधिक सफल होते हैं| भले ही ऐसे आन्दोलन को समाज का कोई भी एक पीड़ित वर्ग शुरू करे पर धीरे धीरे सामाजिक बदलाव की संभावना का आकलन कर समाज का हरेक वर्ग ऐसे आन्दोलन से जुड़ जाता है| दरअसल अब तक आन्दोलनों पर सारे अध्ययन यह मान कर किये गए हैं कि लोग केवल भावनात्मक तौर या फिर आवेश में आन्दोलनों से जुड़ते हैं, पर हाल में ही स्टेनफोर्ड पब्लिक स्कूल ऑफ़ बिज़नस के समाजशास्त्रियों द्वारा किये गए अध्ययन से यह स्पष्ट है कि जब सामान्य लोगों को महसूस होता है कि किसी आन्दोलन का व्यापक असर समाज पर पड़ेगा, तब ऐसे आन्दोलनों से अधिक लोग जुड़ते हैं और ऐसे आन्दोलन लम्बे समय तक चलते हैं| इस अध्ययन को पर्सनालिटी एंड सोशल साइकोलॉजी बुलेटिन नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है|
इस अध्ययन का आधार अमेरिका के इतिहास के सबसे बड़े आन्दोलन, ब्लैक लाइव्ज मैटर, है पर इसके निष्कर्ष पूरी दुनिया के आन्दोलनों पर लागू होते हैं| इस आन्दोलन को अमेरिका के अश्वेतों ने जॉर्ज फ्लॉयड की एक पुलिस ऑफिसर द्वारा ह्त्या के विरोध में आरम्भ किया गया था, पर यह केवल अश्वेतों का आन्दोलन नहीं था| इसमें एशियाई, लैटिना और यहाँ तक कि गोरे लोगों ने भी बराबर की भागीदारी की| अमेरिका को हमेशा से ही सामजिक तौर पर दो वर्गों में विभाजित करके देखा जाता है – गोरे जो समृद्ध हैं और शासक हैं तो दूसरी तरफ अश्वेत एक शोषित वर्ग है, जिसपर गोरे अपनी हुकूमत चलाते हैं| जाहिर है, ब्लैक लाइव्ज मैटर आन्दोलन के मूल में अश्वेतों द्वारा सामाजिक बराबरी की मांग थी, पर इस आन्दोलन में गोरे लोग भी भारी संख्या में शामिल हुए| इस अध्ययन में बताया गया है कि बड़े आन्दोलनों में हरेक वर्ग के जुड़ने के अलग कारण हो सकते हैं, पर सार्थक सामाजिक बदलाव की भावना सबसे प्रबल रहती है|
सामाजिक बदलाव की सामूहिक प्रेणना ही अलग-अलग वर्गों को अपने मतभेद छोड़कर आन्दोलनों में एक साथ लाती है| स्टेनफोर्ड ग्रैडूएट स्कूल ऑफ़ बिज़नस में पीएचडी छात्रा प्रीती वाणी के अनुसार हरेक समूह की यह भावना की उसके योगदान से समाज का क्या भला हो सकता है, ही काम करती है| इस भावना को इस अध्ययन में प्रभावकारी मानसिकता, यानि इम्पैक्ट माइंडसेट, कहा गया है और यही भावना सामाजिक परिवर्तन में काम करती है| इसके अनुसार लोग केवल भावनात्मक जुड़ाव के कारण आन्दोलन में शामिल नहीं होते, बल्कि इसके पीछे एक लम्बी मानसिक रणनीति काम करती है और लोग एक निर्णयकर्ता की भूमिका निभाते हैं| इससे पहले आन्दोलनों पर काम करने वाले सभी विशेषज्ञ अपने अध्ययनों में वर्ग विशेष, बौद्धिक क्षमता, भावनाओं और पहचान विशेष के आधार पर आकलन करते रहे हैं| ऐसे अध्ययनों में हमेशा दो वर्ग होते हैं – एक पीड़ित और दूसरा सामान्य| प्रीती वाणी के अनुसार हरेक आन्दोलनों की व्याख्या परम्परागत पैरामीटर द्वारा करना कठिन है|
आन्दोलनों की सफलता में भागीदारियों की सामरिक सोच, प्रतिस्पर्धा और इसका व्यापक असर बहुत महत्त्व रखता है| आन्दोलनों में सार्थक भागीदारी निभाने वाले लोगों या समूहों में चार मौलिक प्रश्नों के उत्तर ढूंढे जाते हैं – इस आन्दोलन से हमें क्या लाभ होगा, हमसे समाज को क्या लाभ होगा, समाज से हमें क्या लाभ होगा और आन्दोलन से समाज को क्या लाभ होगा| इन प्रश्नों के उत्तर के लिए मस्तिष्क में एक सामरिक और प्रभावकारी विचारधारा पनपती है| केवल आत्मकेंद्रित आन्दोलन कभी सफल नहीं होते| सामरिक और प्रभावकारी विचारधारा के सन्दर्भ में यदि ब्लैक लाइव्ज मैटर आन्दोलन का आकलन करें तो अश्वेतों के लिए यह अपने अधिकार और समाज में बराबरी का मसला था| एशियाई और लैटिना आबादी का समर्थन इसलिए था कि जब अश्वेतों को समाज में बराबरी का दर्जा मिलेगा तब इन लोगों को अपने आप ही बराबरी का दर्जा मिल जाएगा| श्वेत आबादी, जो समाज में सबसे सशक्त तबका है, उन्हें आन्दोलन से उम्मीद थी कि जब समाज से भेदभाव ख़त्म हो जाएगा तब जाहिर है समाज में अमन-चैन कायम होगा और समाज में स्थिरता बढेगी| इस आन्दोलन में शामिल लोगों से बातचीत में अधिकतर प्रतिभागियों ने व्यापक सामाजिक बदलाव की आशा जताई थी|
इस अध्ययन में आन्दोलनों की सफलता की कुंजी खोजने का प्रयास किया गया है, पर वैश्विक स्तर पर एक ऐसे अध्ययन की जरूरत है जो यह बता सके कि सफल आन्दोलन कितने सार्थक होते है और समाज पर इनका प्रभाव सार्थक होता है या फिर प्रभाव पहले की स्थितियों से भी बुरा होता है| हमारे देश में व्यापक जन समर्थन वाले दो व्यापक आन्दोलन हुए हैं – एक की अगुवाई जयप्रकाश नारायण ने की थी, जिसके जवाब में देश पर इमरजेंसी थोपी गयी थी, और दूसरे आन्दोलन की अगुवाई अन्ना हजारे ने की| समाजवादी जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन के बाद सामाजिक बदलाव तो नजर नहीं आया, समाजवाद भी नजर नहीं आया – पर कट्टरपंथी दक्षिणपंथी और छद्म राष्ट्रवादी का उदय हो गया| इसके बाद अन्ना हजारे के आन्दोलन के बाद तो लोकतंत्र को निरंकुश तानाशाही में बदलने वाली शक्तियां ही सत्ता पर काबिज हो गईं और जनता से आन्दोलनों का अधिकार भी छिन गया| जाहिर है हमारे देश में तो जिन आन्दोलनों को सफल कहा जा सकता है, उन आन्दोलनों का असर ही उल्टा हो गया| एक साल से भी अधिक चले किसान आन्दोलन के बाद भी किसानों को कोई फायदा नहीं हुआ, उलटा सरकारी तौर पर सामाजिक तौर पर भी किसान पहले से अधिक उपेक्षित हो गए| पहले कभी-कभी किसानों की समस्याओं से सम्बंधित कुछ समाचार प्रकाशित भी होते थे, पर आन्दोलन ख़त्म होने के बाद तो मीडिया ने भी उनको भुला दिया| जाहिर है, आन्दोलन बड़ा होना एक बात है और बड़े आन्दोलनों का प्रभाव के सन्दर्भ में सफल होना बिलकुल दूसरी बात है| इस सन्दर्भ में देखें तो पायेंगे कि अधिकतर तथाकथित सफल आन्दोलन सामाजिक तौर पर असफल रहे हैं|