आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट के सवाल में बंगाल के भद्रलोक की झलकती है मानसिकता
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कांचा इलैया शेफर्ड का विश्लेषण
"और कितनी पीढ़ियों तक आरक्षण चलता रहेगा?"
मराठों को 13 फीसदी आरक्षण देने की वैधता की जाँच करने के लिए गठित पांच जजों की खंडपीठ इस बात पर भी विचार करेगी कि क्या मंडल कमीशन के सन्दर्भ में दिए गए निर्णय में आरक्षण पर जो 50 फीसदी की सीमा लगा दी गई थी वो उचित थी या नहीं?
यह सवाल इस बात की ओर इशारा करता है कि भारतीय न्यायपालिका अपनी वर्तमान सोच के चलते जातिगत-सांस्कृतिक असमानता को समाप्त करने में आरक्षण की सकारात्मक भूमिका को ले कर सशंकित है। लेकिन आज तक सुनवाई कर रही सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ के किसी भी जज ने यह सवाल कभी नहीं उठाया कि "कितनी और पीढ़ियों तक जातिगत असमानता जारी रहेगी?"
चलिए शूद्रों और अति पिछड़े लोगों के हालत उन जगहों में देखें जहां आरक्षण का मखौल यह कह कर उड़ाया जाता रहा है कि आरक्षण प्रतिभा का सम्मान करने के और समाजवादी समता के विचार के खिलाफ है। उदाहरण के लिए बंगाल में।
पूरे बंगाल ने और ख़ास कर बंटवारे के बाद बने पश्चिम बंगाल ने भारत को अनेक महत्वपूर्ण बुद्धिजीवी दिए हैं। यहाँ तीन जातियाँ ब्राह्मण, कायस्थ और वैद्य सबसे ज़्यादा पढ़ी-लिखी जातियां थीं। इन्हीं जातियों को बंगाल नवजागरण के लिए ज़िम्मेदार बताया जाता है।
अपने राष्ट्रीय नवजागरण की प्रक्रिया में उन्होंने खुद को "भद्र लोक" की उपाधि दे डाली। बाकी शूद्र और नामशूद्र के लोगों को "छोटो लोक" (छोटी जाति) का नाम दिया गया। "भद्र' और "छोटो" का यह विभाजन जाति प्रथा की प्रताड़ना और शोषण को अधिक गहराता है। लेकिन बंगाल के ब्राह्मणवादी नवजागरण द्वारा इसे सामान्य रूप में लिया गया।
जब तमिलनाडु में आरक्षण संबंधी युद्ध की शुरुआत हुई तो बंगाली भद्रलोक में शामिल बुद्धिजीवियों ने इसे आधुनिकतावाद विरोधी और योग्यता विरोधी कहना शुरू कर दिया। ब्राह्मण विरोधी किसी भी तरह की चेतना को विकसित होने का मौका बंगाल में नहीं दिया गया। सभी तरह की विचारधाराओं (राज्य मुख्यतः दो विचारधाराओं उदारवाद और साम्यवाद में बंटा था) को आत्मसात करने वाला बंगाली भद्रलोक दक्षिण भारत से आ रही आरक्षण की विचारधारा से घृणा करता था।
छोटोलोक ने कभी भद्रलोक से नहीं कहा कि ऐतिहासिक रूप से कृषि और कुटीर—धंधे करने का कार्य सौंपे गए उन लोगों को शिक्षा और रोज़गार में आरक्षण चाहिए। भद्रलोक तो आज भी हल पर हाथ तक नहीं लगाता है। भद्रलोक की सामाजिक एवं उदारवादी विचारधाराओं ने जाति आधारित काम के बंटवारे को नहीं रोका।
जिस समय अंग्रेज़ भारत में आए, बंगाली भद्रलोक (मुग़ल शासन के दौरान) संस्कृत और फ़ारसी में सबसे ज़्यादा शिक्षा पाए हुए लोगों में शुमार था। अंग्रेज़ों द्वारा राज स्थापित किये जाने के बाद वे अंग्रेज़ी में शिक्षित पहले-पहल भारतीय थे। शुरुआत राजा राम मोहन रॉय से हुई थी। बंगाली भद्रलोक समुन्दर पार जाने वाले शुरुआती लोगों में से थे, हालांकि ऐसा कर के उन्होंने ब्राह्मणों के आदेश का उल्लंघन किया था। राम मोहन रॉय शायद पहले आधुनिक ब्राह्मण थे जिनकी मृत्यु इंग्लैण्ड में हुई थी।
अभी तक छोटोलोक की कोई भी महिला या पुरुष बंगाल का मुख्यमंत्री नहीं बन सका है। बंगाल वो राज्य है जिसने शूद्रों, अतिपिछड़ों, दलितों और आदिवासियों को सबसे कम आरक्षित नौकरियां दी हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि बंगाल अपने इस बुनियादी सिंद्धांत को मानता है कि आरक्षण परम पावन 'बंगाली प्रतिभा' को नष्ट कर देगा।
महिष्य समुदाय बंगाल में सबसे बड़ा खेती करने वाला शूद्र समूह है। यह समुदाय आरक्षण के पक्ष में है और इसीलिये भाजपा की और इसका झुकाव बढ़ रहा है। भाजपा ने एक शूद्र दिलीप घोष को पार्टी की राज्य इकाई का अध्यक्ष बनाया है।
महाराष्ट्र और तमिलनाडु
बंगाल के विपरीत महाराष्ट्र में किया गया प्रयोग एक दूसरा ही रास्ता दिखाता है। इसमें भी ना केवल ब्राह्मणों और बनियों ने बल्कि शूद्रों और अतिशूद्रों ने भी अंग्रेज़ी तालीम पाई थी और बाल गंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, वीर सावरकर और महात्मा ज्योतिराव एवं सावित्री फुले जैसे प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों को जन्म दिया था।
यहाँ शूद्रों और अतिशूद्रों के लिए आरक्षण और बेहतर व्यवहार की मांग बहुत पहले उठ गई थी।
कोल्हापुर के सम्राट छत्रपति साहू महाराज ने शुरुआत में ही आरक्षण प्रक्रिया शुरू की जिसने बाबा साहेब अंबेडकर को दलित समुदाय से उभर कर बहुजन समाज की आकांक्षा की आवाज़ बनने में मदद की। आज तो वे मराठा भी, जो 1990 में आरक्षण के पक्ष में नहीं थे, इसकी ज़रुरत महसूस कर रहे हैं। अब तो साहू महाराज के नाती-पोते भी इसकी मांग कर रहे हैं। आरक्षण के चलते महाराष्ट्र में सभी जातियों के बीच में से एक मजबूत मध्यम वर्ग और शिक्षा को ले कर एक महत्वाकांक्षी सामाजिक शक्ति का उभार हुआ है और दूसरे लोग इसका हिस्सा बनना चाहते हैं।
इसी तरह तमिलनाडु द्वारा किये गए आरक्षण के प्रयोग ने सभी जातियों के हालात सुधारे हैं। आरक्षण के आगोश से बाहर रखे गए ब्राह्मणों और छेतिहारों को मज़दूरी हासिल करने के लिए श्रम बाज़ार का रुख़ नहीं करना पड़ा। एक बेहतर ज़िंदगी जीने के उन्होंने नए तरीक़े निकाल लिए।
भारतीय न्यायपालिका को सभी जातियों और समुदायों द्वारा जीवन के हर क्षेत्र में सामंजस्यता और विविधता बनाये रखने वाले महाराष्ट्र और तमिलनाडु के तरीकों की रोशनी में आरक्षण को देखना चाहिए। दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल आरक्षण और शैक्षणिक प्रेरणा के प्रति उत्साह की कमी के चलते हो रहे सामाजिक ठहराव का एक नकारात्मक उदाहरण है।
ठहराव से ग्रस्त एक ऐसे राज्य में जहां नामशुद्रों और शूद्रों के बीच से मध्यम वर्ग का उभार न के बराबर है, भारतीय जनता पार्टी शूद्रों और अति पिछड़े वर्गों को अपनी ओर आकर्षित करती दिखाई दे रही है। वाम-उदारपंथियों का (बंगाल में कोई जाति नहीं) का सिद्धांत सबसे अधिक पिछड़ी विचारधारा का कदम माना जाता है
इस भद्रलोक के वैचारिक प्रवाह से उपजी पहचान विरोधी राजनीति को बड़ा नुकसान उठाना पड़ रहा है। प्रत्येक संस्था में आरक्षित अभ्यार्थियों ने समुदाय की पहचान और इसके सामाजिक रुतबे को केंद्र बिंदु बना दिया है और इसने आमूल-चूल बदलाव लाने की भूमिका रच डाली है। लेकिन बंगाल के वामपंथी-उदारवादियों ने अम्बेडकर की बस को छूट जाने दिया और वे मार्क्स तथा टैगोर का अध्ययन करने में ही व्यस्त रहे।
भद्रलोक के वामपंथी बुद्धिजीवी इस सोच के साथ मजबूती से चिपके रहे कि आरक्षण सभी के लिए समाजवादी और लोकतांत्रिक बराबरी के अवसरों को ख़त्म कर देगा।
लेकिन छोटोलोक को इस बात की इजाज़त ही नहीं थी कि वे यह सोचें कि आखिर उन्हें छोटोलोक कहा क्यों जाता है। वैसे भी छोटोलोक कहलाया जाना अपने आप में ही अपमानजनक और अमानवीय है। इस तरह का अलंकरण छोटोलोक को किसी भी संस्थान में भद्रलोक के साथ बैठने की इजाज़त नहीं देता है। किसी भी बड़े केन्द्रीय विश्वविद्यालय या आईआईटी और आईआईएम में बंगाली भद्रलोक बुद्धिजीवियों की तुलना में अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे छोटोलोक की महिलाओं-पुरुषों की संख्या बहुत कम है।
जब बंगाल में मंडल आरक्षण लागू करने का सवाल उठा था तो ज्योति बसु का यह कथन बहुत मशहूर हुआ था-"बंगाल में एक भी जाति नहीं है।" हमें इस राज्य से अति पिछड़ी जाति (ओबीसी) का एक भी चर्चित नेता या बुद्धिजीवी राष्ट्रीय स्तर पर दिखाई नहीं देता है।
बंगाल में छोटोलोक से उभरा ऐसा मध्यम वर्ग मिल पाना मुश्किल है जो बराबरी का, प्रतिस्पर्धी और पढ़ा-लिखा हो। मोटा-मोटी भारत के शूद्रों को देश भर में आज भी आरक्षण की ज़रुरत है।
अब तो भारत का दक्षिणपंथी भद्रलोक भी वामपंथी भद्रलोक के साथ कदमताल करता हुआ यह सवाल उठाने लगा है कि आखिर कितनी पीढ़ियों तक भारत का छोटोलोक आरक्षण का फायदा उठाता रहेगा।
लेकिन वे यह सवाल नहीं उठाते कि आधुनिक पूंजीवादी भारत के किसी भी क्षेत्र में बराबरी का दर्ज़ा हासिल किये बिना छोटोलोक को और कितनी पीढ़ियों तक हल चलाना होगा और भद्रलोक का पेट भरना होगा।
वो ये सवाल नहीं करते कि कितने समय तक भद्रलोक अनाज पैदा करने से भागेगा और इसके इतर प्रतिभा के सिद्धांतों को पढ़ाता रहेगा। या फिर कॉलेज और विश्वविद्यालय केवल इम्तिहान में हासिल किये नंबरों की चर्चा ही क्यों करते हैं,अनाज उत्पादन की योग्यता की बात क्यों नहीं करते हैं।
भारतीय न्यायतंत्र की मानसिकता शिक्षा, रोज़गार और जाति के सवाल पर आँख मूँद लेने के इसी भद्रलोक की देन है।
भारत का सुप्रीम कोर्ट यह सवाल कभी नहीं पूछता कि दिल्ली के आसपास ज़मीन जोतने वाले कितने जाट, कुर्मी और यादव जेएनयू, दिल्ली यूनिवर्सिटी, आईआईटी, आईआईएम में प्रोफ़ेसर बने हैं। इन समुदायों में से कितने उच्च पदों को सुशोभित करने वाले नौकरशाह केंद्रीय सचिवालय में तैनात हैं?
अशोका, एमिटी और ओपी जिंदल जैसे उच्च कोटि के निजी विश्वविद्यालय हरियाणा में जाटों की ज़मीनों पर बने हैं, लेकिन इन विश्वविद्यालयों की कक्षाओं में जाटों के कितने बच्चे पढ़ते हैं? सच तो ये है कि अनेक पीढ़ियों तक इनके युवा बैल गाड़ियां और ट्रैक्टर चलाते रहे हैं। दिल्ली और उसके आस-पास भद्रलोक के कितने बच्चे हैं जो अनाज पैदा करने के लिए ज़मीन जोतते हैं?
यही वो बिंदु है जहां न्यायालय में सामाजिक न्याय का कोण महत्व रखता है। अगर भद्रलोक से आये न्यायाधीश छोटोलोक के लिए उतनी सहानुभूति भी नहीं रखेंगे जितनी अमेरिका में श्वेत न्यायाधीश अश्वेतों के लिए रखते हैं तो भारत दरक जायेगा।
न्यायतंत्र जो सवाल खड़े करता है वो पढ़े-लिखे भारतीयों की चेतना जगाने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। किसी कोर्ट की बेंच से उठाये गए सामाजिक न्याय विरोधी सवाल को आने वाले फैसले के रूप में देखा जाने लगता है
यह सवाल कि 'कितनी पीढ़ियों तक आरक्षण चालू रहेगा" ठीक इस सवाल की तरह है कि 'मुस्लिम तुष्टिकरण कितने सालों तक चालू रहेगा।" भद्रलोक का प्रतिभा सिद्धांत शूद्र, दलित और आदिवासियों को एक भारतीय के रूप में देखता हुआ नहीं दिखाई देता है। और ऐसा तब है जबकि उनकी जड़ें प्राचीन समय से ही भारत की मिट्टी में गहराई तक फ़ैली हैं।
(राजनीतिक सिद्धांतकार और सामाजिक कार्यकर्ता कांचा इलैया शेफर्ड का यह लेख मूल रूप से द वायर में प्रकाशित। उनकी नवीनतम पुस्तक का नाम है : The Shudras : Vision For a New Path.)