मिट्टी की मोहब्बत में विदेश छोड़ देश आया 'ठेठ पहाड़ी' अस्पताल के इंतज़ार में दम तोड़ गया दिल्ली में

जब तुम्हारी सांस टूट रही थी तो हमारे मन में कई आशंकाएं घर करने लगी थी, लेकिन मोहन तुमने जिस तरह पूरी रात बहुत कम ऑक्सीजन लेबल के रहते भी मौत से लड़ने का साहस दिखाया, हम सोच रहे थे कि तुम इस जंग को जीत जाओगे, योद्धा की तरह....

Update: 2021-04-27 03:50 GMT

photo : facebook 

कल 26 अप्रैल को पहाड़ से ताल्लुक रखने वाले जनसरोकारों को समर्पित मोहन बिष्ट 'ठेठ पहाड़ी' का कोरोना से निधन हो गया। अस्पताल और ऑक्सीजन सिलेंडर के लिए 24 घंटों तक जद्दोजहद के बाद मुश्किल से अपोलो में बेड मिला, मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी और बिना ऑक्सीजन के उनकी मौत हो गयी। ठेठ पहाड़ी को याद कर रहे हैं उन्हें पिछले लंबे समय से करीब से जानने वाले वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता चारु तिवारी...

तुम समझते होगे कि दुनिया तुम्हारे बिना भी ऐसे ही चलती रहेगी। कुछ नहीं बदलने वाला है। लेकिन तुम सच नहीं कह रहे थे, सच को नहीं समझ रहे थे। हां, दुनिया फिर भी चलेगी तुम्हारे बिना भी, लेकिन उसकी खुशियां तुम्हारे बिना फीकी हैं। सबकुछ होगा। अच्छा भी, बुरा भी। तुम्हें हम बहुत कोमल समझते थे, सरल सझते थे। बहुत लड़ाकू समझते थे। हर मुसीबत को झेलने वाला समझते थे। बहुत ईमानदार, बहुत अपना समझते थे। लेकिन तुम बहुत बेईमान निकले, धोखेबाज निकले। निर्दयी निकले, बहुत कठोर निकले। अपने होते तो ऐसा दुःख नहीं देते। इस तरह हमें रुलाकर जाओेगे सोच भी नहीं सकते थे। कल्पना भी नहीं की थी। तुम हमारे थे कौन? न नातेदारी न रिश्तेदारी। न खून का रिश्ता और न गांव पड़ोस का। पता नहीं कहां के रिश्ते जोड़े तुमने? क्यों बेवजह हमारी जिन्दगी में दखल देने आये? कुछ दिनों के लिये। यह भी कोई साथ हुआ मोहन भाई! यह कौन सी प्रीत लगाई, कौन सी रीत निभाई तुमने। तुम क्या समझते थे कि तुम अकेले हो! देखा तुमने कभी पीछे मुड़कर! एक बड़ी जमात थी मोहन तुम्हारे पीछे! अब सब खामोश हैं। निरीह। बेबस। हताश। अपराधबोध से घिरे हुये कि हम तुम्हें बचा नहीं पाये। जीवनभर यह रंज रहेगा। हमने तुम्हें खो दिया। तुम्हें हमारा अंतिम सलाम! श्रद्धांजलि।

बहुत अपने से, भोले चेहरे के साथ तुमने हम लोगों के जीवन में दाखिला लिया। निश्छल, निःस्वार्थ, समर्पण, प्रतिबद्धता, अपनों का सम्मान, संगठनकर्ता और एक खुशमिजाज इंसान। तुमने सारी दुनिया को अपने में समेटे, हरेक के दुःख-दर्द को अपने में शामिल कर लिया था। सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना से भरपूर। तुम बहुत शांत और सुलझे मन से सभी समस्याओं का समाधान निकाल लेते थे। सबके साथ मिलकर, सबके साथ चलकर। अपने को उसी तरह से गढ़ने की कोशिश की। बहुत कम समय में तुम्हें पहाड़ के बहुत सारे लोग जानने लगे थे। बहुत जमीन से जुड़े, बहुत सुंदर कुमाउनी में बातचीत करते। बागेश्वर जनपद से चलकर दिल्ली और विदेश तक की तुम्हारी यात्रा के बहुत सारे आयाम, बहुत सारे पड़ाव थे। संघर्षो के संकल्पों के, सफलता के भी, विफलता के भी।

इस यात्रा में पहाड़ तुम्हारे साथ चलता रहा बिल्कुल 'दगड़ लगता हुआ'। तुमने भी उसे आत्मसात किया, कभी छूटने नहीं दिया। सात समंदर पार तक भी। अपना नाम भी रख लिया- 'ठेठ पहाड़ी'। हमारे लिये तुम सिर्फ मोहन ही थे। मोहन ही रहोगे। जब कल शाम से तुम्हारी सांस टूट रही थी तो हमारे मन में कई आशंकाएं घर करने लगी थी, लेकिन मोहन तुमने जिस तरह पूरी रात बहुत कम ऑक्सीजन लेबल के रहते भी मौत से लड़ने का साहस दिखाया, हम सोच रहे थे कि तुम इस जंग को जीत जाओगे, योद्धा की तरह।

तमाम कोशिशों के बावजूद हम तुम्हें बचा नहीं पाये। आज अपोलो अस्पताल में हम सबको छोड़कर जब तुम गये तो मुझे यकीन नहीं हुआ। तुम हार नहीं सकते। तुम यहीं कहीं हमारे बीच हो। वह तुम्हारा पहली बार मिलने का संबोधन तुम्हारे जाने के समय भी मेरे एकांत को झकझोर रहा है - चा...रु...दा...! तुम्हें भूल नहीं पा रहा हूं। तुम्हारा चेहरा मेरे सामने आ जाता है। तुम खड़े हो जाते हो। मोहन तुम गये नहीं हो्, यहीं हो कहीं आसपास।

यह कोई वर्ष 2006 की बात होगी। तुम मुझे पहली बार मिले थे। कुछ जानने-कुछ समझने के लिये। मैंने कभी तुम्हें उस रूप में नहीं देखा। तुमने एक रेखा खींची संबंधों की। अटूट, गहरी, कभी न मिटने वाली। मैंने भी तुम्हें छोटे़े भाई के रूप में स्वीकार लिया था। तुम ऐसा सबके साथ करते थे। सबका सम्मान रखने के लिये। बड़ों के साथ भी, छोटों के साथ भी। उस समय हम लोग 'क्रियेटिव उत्तराखंड-म्यर पहाड़' की ओर से पहाड़ और प्रवास में इतिहास, संस्कृतिबोध के आयोजनों के साथ साहित्य, भाषा, रंगमंच और सामाजिक सरोकारों के लिये नये लोगों में चेतना का अभियान चला रहे थे। तुम भी उसका हिस्सा बने। उसके सभी आयोजनों में चैबट्टाखाल से लेकर बागेश्वर और उत्तरकाशी, टिहरी तक साथ रहे। गैरसैंण को राजधानी बनाने की मांग को जिंदा रखते हुये हर साल अगस्त में दिल्ली से गैरसैंण तक की यात्रा भी साथ की।

बाद में तुमने एक संगठन बनाया 'म्यर उत्तराखंड'। बहुत सारे युवाओं को उसमें जोड़ा। कई आयोजन किये। संास्कृतिक कार्यक्रम किये। इस संस्था की स्मारिकायें भी 'बुरांस' नाम से प्रकाशित की। शायद उसके तीन अंक निकाले। बाद में 'नई उमंग' संस्था के साथ मिलकर भी एक स्मारिका 'विरासत' निकाली। गैरसैंण तक की यात्रा भी की। विदेश जाकर भी तुमने पहाड़ के लोगों को संगठित करना नहीं छोड़ा। मोहन तुममें लोगों को जोड़ने की अद्भुत प्रतिभा थी। होली, दिवाली और कोई भी पहाड़ी त्योहार ऐसा नहीं है जिसे तुमने दिल्ली में न मनाया हो। रामलीलाओं में प्रतिभाग किया। तुम गा भी लेने वाले हुये। तुम्हारी रंगमंचीय प्रतिभा से भी हम लोग परिचित हुये, जब तुमने 'रामी-बौराणी' गीत-नाटिका का सुंदर मंचन किया था। तुम्हारे जोगी (सिपाही) के अभिनय को कौन भूल सकता है। हम तो देख ही रहे थे, तुमने पर्दा गिरा दिया। अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि।

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