पूरा देश ही हो गया जलियांवाला बाग, CAB के खिलाफ प्रदर्शनरत छात्रों से पुलिस निपट रही है किसी आतंकी की तरह

Update: 2019-12-18 08:25 GMT

लड़कियों से पुलिस वाले बदसलूकी करते हैं तो दूसरी तरफ जामिया में लाइब्रेरी में पढ़ रहे बच्चों पर लाठियां बरसाई जाती हैं और आंसू गैस के गोले दागे जाते हैं....

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

द्धव ठाकरे ने जामिया की घटना के सन्दर्भ में ठीक ही कहा है कि इससे जलियांवाला बाग़ घटना की याद ताजा हो गयी। इसी वर्ष 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग नरसंहार की 100वीं बरसी थी। वर्ष 1919 का 13 अप्रैल का दिन था, जब जलियांवाला बाग में एक शांतिपूर्ण सभा के लिए जमा हुए हजारों भारतीयों पर अंग्रेज हुक्मरान ने अंधाधुंध गोलियां बरसाई थीं। ये सभी जलियांवाला बाग में रौलट एक्ट के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे। शांतिपूर्ण प्रदर्शनों पर आज तक गोलियां बरस रहीं हैं और आंसू गैस के गोले भी दागे जा रहे हैं।

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ब से अब तक कुछ नहीं बदला है, उस समय भी भारतीय सैनिक जो अंग्रेजों के लिए काम कर रहे थे, भारतीयों पर गोलियां चला रहे थे और आज भी निहत्थे भारतीयों पर भारतीय ही गोलियां चला रहे हैं। अंतर केवल इतना है कि उस समय आदेश जनरल डायर, जो अंग्रेज था, का था और अब आदेश उन भारतीय हुक्मरानों का है जो लगातार जनता की समस्याओं को सुलझाने का दावा करते रहते हैं।

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स सरकार और पुलिस के निशाने पर विश्वविद्यालय शुरू से ही रहे हैं। जेएनयू, हैदराबाद और जामिया यूनिवर्सिटी से शुरू होता हुआ ये सिलसिला लगभग हरेक यूनिवर्सिटी तक पहुँच गया है। नई दिल्ली की सबसे मुख्य सड़कों में से एक सड़क जो आईटीओ से कनाट प्लेस तक जाती है, वह दिव्यांगों के प्रदर्शन के कारण कई दिनों से बंद है, पुलिस सड़क बंद कर रही है और दूसरी तरफ जब जेएनयू के छात्र शांत प्रदर्शन करते हैं तब उन पर लाठियां बरसाई जातीं हैं।

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ड़कियों से पुलिस वाले बदसलूकी करते हैं तो दूसरी तरफ जामिया में लाइब्रेरी में पढ़ रहे बच्चों पर लाठियां बरसाई जाती हैं और आंसू गैस के गोले दागे जाते हैं। छात्रों के साथ पुलिस का बर्ताव इस तरह से हो गया हो मानो वे किसी आतंकवादी से निपट रही हो।

कुछ समय पहले जब पटियाला हाउस कोर्ट में वकीलों ने पुलिस को सबक सिखाया था, तब पुलिस वाले भी सड़कों पर आ गए थे, पूरे दिन धरने पर बैठे रहे और फिर जब यह निश्चित हो गया कि उन्हें जनता का साथ नहीं मिलेगा तब आनन्-फानन में वह धरना ख़त्म हो गयाl इतना तो तय है कि एक दिन क्या, अगर पुलिस महीनों प्रदर्शन करे तब भी सामान्य जनता का साथ उसे नहीं मिलेगाl अंग्रेजों के समय भी पुलिस लगातार अपराधियों को संरक्षण देने का काम और सामान्य जनता को कुचलने का काम नहीं करती थी, पर अब तो लगता है कि पुलिस का यही काम ही है।

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मारे हुक्मरान भी पुलिस का यही काम समझते हैं और ऐसी हरेक हरकत पर शाबाशी देते हैं और पुरस्कार भी। पूरे देश की यही हालत हो गयी है, कश्मीर के बारे में तो बहुत कुछ लिखा गया है, पूर्वोत्तर राज्यों में पुलिस कभी भी और किसी को अपना निशाना बनाने के लिए स्वतंत्र हैं। तमिलनाडु में वेदांता समूह के स्टरलाईट कॉपर के विरुद्ध प्रदर्शन करते लोगों को गोलियों से भून दिया जाता है।

तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड जैसे राज्यों में निहत्थे और निर्दोष लोगों का एनकाउंटर पुलिस विभाग में प्रमोशन की गारंटी है। पुलिस वाले अजीब सी और अविश्वसनीय कहानियां भी गढ़ते है, और अब तो भाड़े की जनता इन्ही कहानियों के आधार पर उन पर फूल भी बरसाती है और हमारे सांसद उन्हें राष्ट्रीय नायक करार देते हैं।

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बैसाखी के दिन 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक सभा रखी गई, जिसमें कुछ नेता भाषण देने वाले थे। शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था, फिर भी इसमें सैकड़ों लोग ऐसे भी थे, जो बैसाखी के मौके पर परिवार के साथ मेला देखने और शहर घूमने आए थे और सभा की खबर सुन कर वहां जा पहुंचे थे। जब नेता बाग में पड़ी रोड़ियों के ढेर पर खड़े होकर भाषण दे रहे थे तभी जनरल डायर ने बाग से निकलने के सारे रास्ते बंद करवा दिए।

बाग में जाने का जो एक रास्ता खुला था, जनरल डायर ने उस रास्ते पर हथियारबंद गाड़ियां खड़ी करवा दी थीं। डायर करीब 100 सिपाहियों के सीथ बाग के गेट तक पहुंचा। उसके करीब 50 सिपाहियों के पास बंदूकें थीं। वहां पहुंचकर बिना किसी चेतावनी के उसने गोलियां चलवानी शुरू कर दी। गोलीबारी से डरे मासूम बाग में स्थित एक कुएं में कूदने लगे। गोलीबारी के बाद कुएं से 200 से ज्यादा शव बरामद हुए थे।

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स सरकार के आने के बाद से ही स्वतंत्रता संग्राम से जुडी सभी घटनाएँ बदली जा रही हैं, पर जलियांवाला बाग की घटना को बदलना मुश्किल है क्योंकि देश की पुलिस इसे भूलने नहीं देगी। इस घटना में जितने लोग मारे गए, उससे अधिक तो एक वर्ष में पुलिस एनकाउंटर में निर्दोषों को मार गिराती है।

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