सौरिया पहाड़िया : झारखंड की एक विलुप्त होती जनजाति जो 55 साल से ज्यादा नहीं जीती

Update: 2020-03-05 08:33 GMT

विश्व में कई जनजातियां लुप्त हो चुकी हैं और कई लुप्त होने के कगार पर हैं। आदिवासियों की बहुलता वाला राज्य झारखंड भी इससे अछूता नहीं है। झारखंड में करीब 30 प्रकार की जनजातियां हैं, जिनमें कई ऐसे हैं जिनकी आबादी एक प्रतिशत से भी कम है। झारखंड में सभी प्रकार की आदिम जनजातियों के साथ चुनौतियां हैं, लेकिन सौरिया पहाड़िया व सावर ऐसी आदिम जनजातियां हैं, जिनकी संख्या लगातार घट रही हैं...

झारखंड के गोड्डा से राहुल सिंह की ग्राउंड रिपोर्ट

जनज्वार। झारखंड के गोड्डा जिले के बोआरीजोर प्रखंड के छोटाकेरलोक गांव का रहने वाला लड़का मंगला मालतो इंटर तक पढा है। मोटइसाइकिल से चलता है और एक संस्था के साथ गांव-गांव घूम कर काम करता है। वह आदिम जनजाति पहाड़िया समुदाय प्रीमिटिव ट्राइव का एक लड़का है। वह पहाड़िया समुदाय के माल पहाड़िया उपवर्ग से आता है जो पहाड़िया समुदाय के तीन उपवर्गाें में एक है।

बातचीत के क्रम में वह बताता है कि उसके गांव में 45 के करीब घर हैं, जिसमें सात-आठ लड़के होंगे जो इंटर तक पढ़े होंगे। उसमें कुछेक लड़के पारा टीचर के रूप में या किसी एनजीओ में काम करते हैं। जब वह ऐसा कह रहा है तो उसके समुदाय के गांवों में उसके गांव को विकसित माना जा सकता है। इस समुदाय के सभी गांवों की ऐसी स्थिति नहीं है। हालांकि उसके साथ एक एडवांटेज यह माना जा सकता है कि वह माल पहाड़िया उपवर्ग का है, जो अपेक्षाकृत आदिम जनजातियों में थोड़ी बेहतर स्थिति में होते हैं। बेहतर का मतलब यह नहीं माना जाना चाहिए कि वे स्वस्थ, सुखी, संपन्न हैं। वे सिर्फ अपने दूसरे उपवर्ग सौरिया पहाड़िया से थोड़े बेहतर हैं।

सुंदरपहाड़ी के ही तिलाबाद पंचायत के डोमडीह में रह रहे पहाड़ियों की स्थिति इससे जुदा है। यहां हमारी भेंट दो पहाड़िया भाइयों से होती हैं जिनका नाम बड़ा पुरन देही व छोटा पुरन देही है। ये सौरिया पहाड़िया हैं। इनसे इनके बारे में पूछने पर भी यह अपना आधार कार्ड देख लेने की पेशकश करते हैं और दोपहर में परिवार के एक सदस्य के बारे में बताते हैं दादा दारू पीकर सोया है। सरकार से मिलने वाला 35 किलो चावल व केरोसिन इनके लिए बड़ा सहारा है और मजदूरी भी ये करते हैं।

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हाड़िया समुदाय में तीन उपवर्ग हैं: सौरिया पहाड़िया, माल पहाड़िया और कुमारभाग पहाड़िया। कुमारभाग पहाड़िया की स्थिति सौरिया व माल पहाड़िया से बेहतर होती है और कुछ पुराने सरकारी दस्तावेजों में इन्हें आदिम जनजाति माना भी नहीं गया है। वहीं, माल पहाड़िया की हैसियत सौरिया पहाड़िया से थोड़ी बेहतर होती है।

ए विकास माड्यूल में यूं तो सभी आदिवासी समुदायों पर संकट है, लेकिन आदिम जनजाति आदिवासियों के लिए भी आदिवासी हैं, लिहाजा उनके लिए हर स्तर पर संकट और अधिक घना है। ये जिन क्षेत्रों में निवास करते हैं, वहां भी खनन के लिए बड़ी कंपनियां पहुंच चुकी हैं और उनके प्रोजेक्ट पर काम आरंभ हो गया है।

सौरिया पहाड़िया: एक लुप्त होती आदिम जनजाति

सौरिया पहाड़िया एक ऐसी जनजाति है जो लुप्त होने के कगार पर है। इस आदिम जनजाति की जनसंख्या विकास दर ऋणात्मक रही है। ऐतिहासिक रूप से इनके वर्चस्व व फैलाव का इलाका लगातार कम होता गया है।

झारखंड की बहुसंख्यक आदिवासी आबादी का खुद का जनसंख्या अनुपात हर 10 साल में होने वाली जनगणना में थोड़ा कम हो जाती है। जैसे 2001 की जनगणना में जनजातियों का प्रतिशत 26।3 था, जो 2011 में घटकर 26.2 प्रतिशत रह गया। इसकी वजह कम प्रजनन दर, खराब स्वास्थ्य, उच्च मातृ व शिशु मृत्यु दर, कुपोषण, वन आकार के कम होने से आजीविका पर असर और जनजातीय क्षेत्रों में कल कारखाने लगने, विद्युत परियोजनाएं एवं खनन कार्य होने से इनका पलायन को वजह माना जाता है। जब जनजातीय आबादी का यह हाल है तो आदिम जनजाति की स्थिति की कल्पना की जा सकती है।

2001 की जनगणना के अनुसार, झारखंड में जहां 61,121 सौरिया पहाड़िया थे, वहीं 2011 में इनकी संख्या घट कर 46, 222 रह गयी। यानी दस सालों में इस आदिम जनजाति की संख्या में करीब एक चैथाई कमी आयी। यह इस जनजाति के अस्तित्व की चिंता करने वालों के लिए भयभीत करने वाला आंकड़ा है।

सौरिया पहाड़िया ऐसी आदिम जनजाति है, जो मुख्य रूप से संताल परगना क्षेत्र के जिलों गोड्डा, साहेबगंज, पाकुड़ में रहती है। इसके अलावा ये पूर्वी सिंहभूम, सरायकेला व रांची जिले में कुछ मात्रा में पायी जाती है। साहेबगंज जिला व गोड्डा जिले का सुंदरपहाड़ी प्रखंड सौरिया पहाड़िया का केंद्रीय स्थल है, जहां इनकी बहुलता है।

पहाड़ से उतरने को तैयार नहीं

जैसा कि नाम से ही पता चलता है कि पहाड़िया वैसी आदिम जनजातियों को कहा गया जो परंपरागत रूप से पहाड़ पर ही रहते हैं। विभिन्न कोशिशों के बावजूद वे पहाड़ पर उतरने को तैयार नहीं हुए। इसकी ऐतिहासिक वजहें भी हैं। शोध से पता चला है कि पहाड़िया समुदाय ही संताल परगना के सबसे पुराने निवासी हैं। चंद्रगुप्ता मौर्य के समय में इस समुदाय को काफी विकसित माना जाता था और इस वन क्षेत्र में इनका शासन चलता था। संताल परगना में कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां इनके शासन के केंद्र रहे हैं। दुमका के पास तो पहाड़िया समुदाय का एक किला भी है।

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अंग्रेजों के आरंभिक समय में भी इस जाति का इस क्षेत्र में प्रभुत्व था, लेकिन अंग्रेजों को इनसे राजस्व वसूली में दिक्कत होती थी। इन्हें नियंत्रित करने के अंग्रेजों ने विभिन्न उपाय किए और आखिरकार इनके मुकाबले खड़ा करने के लिए दूसरी जगहों से लाकर संतालों को मैदानी इलाकों में बसाया। यह कदम अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति का हिस्सा था। हालांकि संताल भी बाद में अंग्रेजों की नीति के विरोधी हो गए और पहला संताल हूल 1855 में हुआ। इसे स्वतंत्रता संग्राम की पहली लड़ाई माना जाता है, जो 1857 की क्रांति से दो साल पहले ही हुई थी।

हरहाल, इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के कारण पहाड़िया व संताल दोनों दो अलग-अलग छोर पर आज भी खड़े हैं। पहाड़िया समुदाय को संताल अपने से कमतर मानते हैं। एक संताली व्यक्ति ने बताया कि जैसे सामान्य वर्ग में एससी को दूसरे लोग देखते हैं, वैसे ही जनजातीय समुदाय में हमलोग पहाड़िया समुदाय को देखते हैं। अगर दो-चार पहाड़िया परिवार पहाड़ से नीचे उतर कर मैदान में बसता भी है, तो संतालों के गांव में उनका घर आखिरी छोर पर होता है। गांव की मुख्य आबादी व पहाड़ियों के टोले के बीच में कुछ खाली जगह रहती है, जैसा उत्तर भारतीय गांवों में दलितों के साथ होता है।

सौरिया पहाड़िया की खेती, आजीविका

हाड़िया समुदाय का जीवन जल, जंगल, जमीन और जानवर पर आधारित होता है। वे प्रकृति प्रेमी होते हैं और बाजार, मकई, बरबट्टी, अरहर की खेती करते हैं। बरबट्टी, मकई व बाजरा ये इनकी तीन मुख्य फसलें हैं, जिसमें बरबट्टी सबसे अहम है।

नके पास खतियानी जमीन होती है, लेकिन उसकी कोई उचित व्यवस्था नहीं होती। यह भी सही ढंग से चिह्नित नहीं होता कि किसकी कौन सी जमीन है और कौन किस भूमि पर खेती करेगा। पहाड़ पर निवास करने के कारण ये धान की खेती नहीं के बराबर ही करते हैं। हालांकि सरकार के द्वारा प्रतिमाह मिलने वाला 35 किलो चावल वर्तमान में इनके भोजन का मुख्य आधार है। इसके अलावा मकई, बाजरा इनके प्रमुख भोजन हैं। औसत पहाड़िया परिवार चार से पांच लोगों का होता है और इनकी आय सालाना 10 से 25 हजार के बीच होती है।

दुधारू पशु ये रखते हैं, लेकिन उनका दूध निकालने का कोई व्यवस्थित तरीका नहीं होता और उनके दूध उनके बच्चे ही पी जाते हैं। लिहाजा इनके बच्चों को दूध नहीं मिलता। जमीन होने पर भी इनके पास अपनी उपज से दो से तीन महीने से अधिक समय के लिए अनाज नहीं होता। ये सरकारी सहायता, मजदूरी या अन्य माध्यमों से बाकी समय में भोजन के लिए निर्भर होते हैं।

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नके बीच काम करने वाली शालगे मनी हेंब्रम कहती हैं कि ये ठीक से यह भी नहीं बता पाते कि जमीन में कितना बीज डाले थे और कितनी उपज हुई। वहीं, एक अन्य व्यक्ति कृष्णा जी कहते हैं कि सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद पहाड़ियों का विकास नहीं हो सका, वे ऐसी दुर्गम जगहों पर रहते हैं, जहां प्रशासन के लोग भी नहीं पहुंच पाते हैं।

महाजनी प्रथा

झारखंड का जनजातीय समुदाय महाजनी प्रथा के खिलाफ संघर्ष को लेकर ही राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में रहा है। राज्य का मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व भी महाजनों के खिलाफ संघर्ष से ही खड़ा हुआ है। दूसरे जनजातीयों में इसका असर थोड़ा कम हुआ है, लेकिन इस प्रथा से पहाड़िया समुदाय आज भी मुक्त नहीं हो सका है। महाजन के लिए मिडिल मैन शब्द यहां अशिक्षितों के बीच भी लोकप्रिय है।

पनी आर्थिक जरूरतों की पूर्ति के लिए ये महाजनों के बीच जाते हैं और कर्ज लेते हैं। अगर ये दो हजार रुपये कर्ज लिए रहते हैं तो बरबट्टी होने पर उन्हें दोगुना कीमत की फसल देनी होती है। यानी तीन-चार महीने में ही उनका पैसा दोगुना हो जाता है। अक्सर ऐसा भी होता है कि महाजन के कर्ज से ये मुक्त ही नहीं हो पाते और उनका ब्याज चुकाते ही जिंदगी गुजर जाती है। महाजन कर्ज के बदले इनसे हासिल फसल का कारोबार करते हैं। आसपास के इलाके में महाजनों के कई संपन्न गांव जैसे धमनी, सरौनी, चंदना, रामपुर आदि हैं।

शादी विवाह, संस्कृति

हाड़िया समुदाय में शादी विवाह आपसी रजामंदी से होता है। दहेज चलता है, लेकिन वह लड़की वाले को ही लड़के वाले देते हैं। लड़की वाले दहेज में मिले पैसों को अपने गांव समाज में आपस में बांट लेते हैं। ऐसा भी मामला दिखता है कि साथ रहने के बाद किसी जोड़े को बच्चे हो गए तो बाद में वे औपचारिक रूप से विवाह कर लेते हैं। यानी आधुनिक दौर में जिसे लिव इन कांसेप्ट कहा जाता है, वह इनके यहां परंपरागत रूप से मौजूद है। अगर किसी औरत को उसका पति छोड़ देता है तो वह दूसरे किसी पुरुष से विवाह कर लेती है या उसके साथ रह सकती है। विधवा विवाह व पुनर्विवाह इनमें बहुत सामान्य है। यह इतनी जल्दी होता है कि यह अहसास भी नहीं होता कि कोई महिला विधवा हुई थी। इनके यहां विवाह में चांदी का जेवर चलन में है।

हाड़िया समुदाय अपने धर्म व परंपराओं के लेकर अधिक प्रतिबद्ध होते हैं। इसी कारण ईसाई मिशनरी की इनके बीच उपस्थिति कम दिखती है, जबकि सामान्य जनजातीय समुदाय में उनकी अच्छी उपस्थिति है। यह भी माना जाता है कि ईसाई मिशनरी इनकी मान्यताओं के कारण इनके करीब नहीं आ सके, इसलिए भी दूसरे आदिवासी समुदायों की तुलना में ये विकास में पिछड़ गए। पहाड़िया समुदाय के लोग सामान्य आदिवासियों के लिए लोकप्रिय पर्व त्यौहारो ंमें हिस्सा नहीं लेते। इनकी अपनी मान्यताएं व परंपराएं हैं। बांसुरी व सारंगी जैसा वाद्य इनके प्रमुख वाद्य यंत्र हैं।

पहाड़ियों का स्वास्थ्य, नशाखोरी

हाड़िया समुदाय का स्वास्थ्य एक बड़ी चिंता का सबब है। विकास के नए मॉडल के साथ इनका स्वास्थ्य इनकी कम होती जनसंख्या की वजह है। पहाड़िया समुदाय में टीबी, कालाजार, मलेरिया, चर्म व पेट संबंधी रोग प्रमुखता से होते हैं। काफी प्रयासों के बाद एक दशक मंे टीबी का एक हद तक नियंत्रित किया जा सका है, लेकिन अब भी वह प्रमुख समस्या है। इस समुदाय में अच्छे व पौष्टिक भोजन के अभाव, सीमित दायरे में विवाह भी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं उत्पन्न करते हैं।

हाड़िया समुदाय अन्य जनजातीयों से अधिक बीमार होता है। इसकी कुछ प्रमुख वजहांें एक पानी से जुड़ी समस्याएं हैं। पहाड़िया समुदाय पहाड़ पर रहता है और वहां के झरने, तालाब व अन्य खुले जल का प्रयोग करते हैं। ऐसा भी होता है कि इन्हें पानी के लिए पहाड़ से नीचे उतरना पड़ता है। जिस पानी का ये उपयोग करते हैं वे पत्तों के सड़ने से प्रदूषित होते हैं, गंदले या पशुओं द्वारा दूषित किए गए रहते हैं। ऐसे में इनसे वे संक्रमित हो जाते हैं और पेट संबंधी बीमारी के शिकार हो जाते हैं।

हाड़िया समुदाय के लिए पानी के महत्व को आप इस बात से समझिए कि अगर किसी को एक ग्लास पानी पीने देंगे और उस व्यक्ति ने या खुद इन्होंने आधा ही पीया तो शेष आधा ग्लास फिर अपने मटके या पानी के बरतन में उड़ेल देंगे ताकि बाद में उसका उपयोग हो सके। पानी के संकट के कारण ये हर दिन स्नान भी नहीं करते।

यूं तो जनजातीय आबादी में ही देसी महुआ शराब पीने की लत अधिक है, लेकिन पहाड़िया समुदाय में यह और अधिक है। यह इनके स्वास्थ्य पर बेहद प्रतिकूल असर डालता है। सुंदर पहाड़ी हो या अन्य घोर पहाड़िया इलाका वहां आपको जगह-जगह हड़िया दारू की बिक्री दिखेगी जिसे पीकर पेड़ के नीचे, जंगल में या कहीं भी लुढकेे लोग भी दिख जाएंगे। स्थानीय लोग बताते हैं कि प्राकृतिक हड़िया अपेक्षाकृत कम खतरनाक होता है, लेकिन उसे अधिक नशीला बनाने के लिए उसमें कैमिकल, डेंड्राइड आदि मिलाया जाता है जो उसे अधिक नुकसानदेह बना देता है।

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सुंदर पहाड़ी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के प्रभारी डाॅ अनिल कुमार सोरेन कहते हैं कि अधिक शराब पीने से पहाड़िया समुदाय का इम्युन सिस्टम कमजोर हो जाता है, जिससे बीमारियों से लड़ने की शक्ति कम हो जाती है। ये हल्की बीमारी के भी तुरंत शिकार हो जाते हैं। डाॅ सोरेन के अनुसार, पहाड़िया समुदाय की औसत आयु 50 से 55 साल होती है। जबकि दूसरे समुदाय के लोग 60 से 70 साल औसतन जीते हैं। डाॅ सोरेन के अनुसार, उनके पास मलेरिया व कालाजार के रोगी बहुत आते हैं और पहाड़िया में टीबी की समस्या अब भी है। गांव में अगर 55 साल से अधिक उम्र का कोई पहाड़िया व्यक्ति मिल जाए तो यह उसी तरह के आश्चर्य की बात होती है, जैसे अभी सामान्य वर्ग में 95-100 साल से अधिक उम्र के व्यक्ति के मिलने पर।

शिक्षा

हाड़िया समुदाय में शिक्षा की स्थिति बेहद बुरी है। इनकी मोटे अध्ययन के अनुसार, इनकी साक्षरता दर चार प्रतिशत के आसपास है। औसतन पांच प्रतिशत पुरुष व तीन प्रतिशत महिलाएं साक्षर हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक, गोड्डा जिले की साक्षरता दर 56।40 प्रतिशत थी, जबकि सुंदरपहाड़ी की आधी यानी 27 प्रतिशत। सुंदरपहाड़ी पहाड़िया बहुल इलाका है, ऐसे में यहां की साक्षरता दर को गिराने में इस समुदाय की निरक्षरता बड़ी वजह है।

हालांकि पहाड़िया अपने परंपरागत दायरे से बाहर आएं तो उनके बच्चे बेहतर कर सकते हैं। सुंदरपहाड़ी के प्लस टू हाइस्कूल के प्रिंसिपल नवीन कुमार सिंह कहते हैं: पहाड़िया बच्चे बेहतर होते हैं, लेकिन आर्थिक वजहों से आगे की कक्षा में उनका पढना मुश्किल होता है। उनके सहयोगी शिक्षक रंजीत कुमार सिंह का कहना है कि बच्चे जैसे ही बड़े होने लगते हैं, वे मजदूरी कर परिवार की आर्थिक मदद करने लगते हैं और पढाई छूट जाती है। इस विद्यालय में नौवीं से लेकर 12वीं तक की कक्षा में 70 के करीब बच्चे हैं, जिसमें आधे लड़के व आधी लड़कियां हैं और उनमें 10 पहाड़िया बच्चे हैं। इस विद्यालय में स्मार्ट क्लासेज की भी सुविधा है, ताकि बच्चों को अधिक आकर्षित किया जा सके।

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