'कोरोना महामारी के बाद से हम झेल रहे हैं शैक्षणिक आपातकाल'
बिहार में दलित और महादलित बहुल इलाकों में बच्चों के घरों में खाने का नहीं है ठिकाना तो पढ़ाई की बात कहां से (photo : janjwar)
तनु कुलकर्णी के साथ अपने साक्षात्कार में शिक्षाविद् रिषिकेश बी.एस. मूलभूत चीजों पर पुन: ध्यान केंद्रित करने और बच्चों को विद्यालय वापस लाने के बारे में विस्तार से बात की...
मार्च 2020 से ही अध्यापन-अधिगम प्रक्रिया में बहुत बड़ा बदलाव हो चुका है। कम्प्यूटर पटल और मोबाइल फोन ने चाक और श्यामपट्ट की जगह ले ली है, किंतु इसने शिक्षा तक बहुत सारे विद्यार्थियों की पहुँच को रोकते हुए एक विशाल डिजिटल अंतराल पैदा कर दिया है।
अजीम प्रेमजी संस्थान में शिक्षा, कानून और नीति केंद्र की अगुवाई करने वाले रिषिकेश बी.एस. कहते हैं कि दूरस्थ विद्यालयी शिक्षा ने वंचित तबकों और कमजोर पृष्ठभूमि के विद्यार्थियों को बुरी तरह से प्रभावित किया है। एक शैक्षणिक मानचित्र की रूपरेखा तैयार करने और नई शिक्षा नीति के क्रियान्वयन के लिए गठित की गई बहुत सी सरकारी सलाहकार समितियों में काम करने वाले ये प्रोफेसर दूरस्थ विद्यालयी शिक्षा के विभिन्न नतीजों पर बात करते हैं।
दूरस्थ विद्यालयी शिक्षा शैक्षणिक पथ पर क्या प्रभाव डालेगी? क्या इंटरनेट कभी आमने-सामने वाली प्रत्यक्ष विद्यालयी शिक्षा को प्रतिस्थापित कर सकता है?
पिछला एक साल यह दिखा चुका है कि तकनीक का इस्तेमाल करने वाली दूरस्थ विद्यालयी शिक्षा न तो टिकाऊ है और न वांक्षित। अर्थपूर्ण शिक्षा विशेषत: विद्यालयी स्तर पर दूर से परोक्षत: सम्पन्न नहीं हो सकती। यू.एस. में महामारी से पूर्व हुए एक अध्ययन ने दिखाया था कि ऑन लाइन विद्यालयों के विद्यार्थी परंपरागत विद्यालयों के विद्यार्थियों की तुलना में मानकीकृत परीक्षणों पर 0.1 से 0.4 एसडी {स्टेंडर्ड डेविएशन्स (मानक विचलन)} पीछे थे। दुनिया भर से इसी प्रकार के शोध सामने आए हैं जो संकेत करते हैं कि दूरस्थ विद्यालयी शिक्षा ने अधिगम को नकारात्मक ढंग से प्रभावित किया है। इस विषय में मुझे साफ-साफ और जोर देकर यही कहना है कि तकनीक सबसे बेहतर स्थिति में भी सिर्फ एक सहायक ही हो सकती है और वह भी वास्तविक अध्यापन कक्ष में। आज हर बच्चा अपनी क्षमता से कुछ स्तर नीचे है और इस खोए गए वक्त की क्षतिपूर्ति में उन्हें लंबा समय लगेगा।
इसने बच्चों पर भावनात्मक स्तर पर और अध्यापन के संदर्भ में क्या प्रभाव डाला है?
शिक्षा एक सामाजिक-मानवीय उद्यम है, और इसीलिए कोई भी दूरस्थ माध्यम अच्छी शिक्षा के मूलभूत मर्म को ही छीन लेता है। बच्चे तथ्यों से भरे जाने वाले खाली बर्तन मात्र नहीं हैं। विद्यालयी शिक्षा से बच्चों के समग्र विकास की उम्मीद की जाती है। इस समग्र विकास में सामाजिक और भावनात्मक विकास के साथ-साथ विभिन्न विषयों की परस्पर संबद्ध अवधारणाएँ शामिल रहती हैं। किसी वयस्क द्वारा सुलभ कराए गए माहौल में सहपाठियों के साथ जुड़कर ही अधिगम सम्पन्न होता है। इंटरनेट आधारित प्रत्यक्ष सत्रों के उपलब्ध होने पर भी परस्पर जुड़कर सीखने का सीधा-सरल सा कार्य सम्पन्न नहीं हो पाता है। 'ब्रेक आउट रूम' जैसे विकल्प उपलब्ध होने और सत्र को परस्पर संवादात्मक बनाने के शिक्षकों के गंभीर प्रयासों के बावजूद मुख्यत: उपदेशपरक शिक्षण शास्त्र पर आधारित यह शिक्षण दिशाहीन ही बना रहता है।
कुछ बच्चे गजटों पर जरूरत से ज्यादा आश्रित बन गए हैं, जबकि दूसरों की तकनीक तक कोई पहुँच ही नहीं है?
मैकेन्से का सबसे हालिया अध्ययन बताता है कि अधिगम विषयक क्षति वैश्विक है और यह एक महत्वपूर्ण क्षति है। वे यह भी जोड़ते हैं कि 'बहुत ही ज्यादा निर्धन विद्यालयों के शिक्षकों ने आभासी कक्षाओं को विशेषत: निष्प्रभावी पाया। इस चीज ने इस चिंता को बल प्रदान किया है कि महामारी ने शैक्षणिक असमानता को और ज्यादा बढ़ा दिया है।' इसके सबूत साफ हैं। तकनीक अंतराल को बढ़ा ही सकती है, पाट नहीं सकती है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय के 75वें दौर के आंकड़े इस अंतराल को तीखे ढंग से प्रस्तुत करते हैं - 5 प्रतिशत से भी कम ग्रामीण घरों में कम्प्यूटर हैं। यह संख्या शहरी इलाकों में भी मुश्किल से ही 25 प्रतिशत को छूती है। अत: शहर में रहने वाली आबादी के भी एक बड़े हिस्से के पास कम्प्यूटर नहीं है। इसका मतलब है डिजिटल पहुँच का एकमात्र जरिया मोबाइल फोन ही है। इस प्रकार के अप्रभावी माध्यम को देखते हुए डिजिटल अधिगम के लिए धकेला जाना एक त्रुटिपूर्ण नज़रिया है।
इसी दौरान, तकनीक तक पूरी पहुँच रखने वाले ठीक दूसरी ओर के बच्चों को बहुत ज्यादा स्क्रीन टाइम की ओर धकेला जा रहा है। इसका जो दुष्प्रभाव उनके स्वास्थ्य या सामाजिक कौशलों के विकास पर होगा, उसे लेकर ऐसा करते हुए कोई चिंता ही नहीं है। मतलब यह कि असल में फायदा किसी भी बच्चे को नहीं हो रहा है।
महामारी के दौरान स्कूल छोड़ने की दर बढ़ गई प्रतीत होती है, क्यों?
असल बात तो यह है कि पहले लॉकडाउन के दौरान चाइल्ड हेल्पलाइनों पर अधिक संख्या में फोन आने लगे थे जो एक चेतावनी थी किंतु जिसे हमने पर्याप्त गंभीरता से नहीं लिया। हमें यह पहचानना चाहिए कि बच्चों की एक बहुत बड़ी संख्या ऐसी है जिसके लिए विद्यालय न सिर्फ सीखने का माहौल मुहैया कराते हैं बल्कि उन्हें घेरे रहने वाली पारिवारिक और सामाजिक बुराइयों से सुरक्षा प्रदान करने वाला तंत्र भी वे होते हैं। भयानक गरीबी में फंसे इन बच्चों को थोड़े से अतिरिक्त पैसों के लिए घरेलू कार्यों में धकेल दिया जाता है या खेत मजदूरी के लिए बाध्य किया जाता है। बाल विवाह और बाल तस्करी के बढ़े हुए मामले भी देश भर में दर्ज़ किए गए हैं। विद्यालयों के लगातार बंद रहने से बच्चों द्वारा विद्यालयी शिक्षा बीच में छोड़ देने के मामलों में न सिर्फ बढ़ोतरी हुई है अपितु इससे कहीं ज्यादा बदतर भी कुछ हुआ है।
विद्यार्थियों को वापस विद्यालयों में लाने के लिए क्या किया जा सकता है?
विद्यालय खोलने की अनुशंसा करने वाली सबसे हालिया रिपोर्ट देवी प्रसाद शेट्टी समिति की आई है। इस समिति ने जहाँ कहीं संक्रमण की दर कम है, वहाँ विद्यालय खोलने की अनुशंसा करने के लिए वैश्विक उदाहरणों के साथ-साथ भारतीय और अमेरिकी बाल चिकित्सा संगठनों के दिशा-निर्देशों का इस्तेमाल किया है। वास्तव में विशेषज्ञों के बीच इसे लेकर कोई असहमति नहीं है कि जब हम लॉक डाउन लगाना शुरु करते हैं तो विद्यालय सबसे अंत में बंद होने चाहिए और 'अनलॉक' वाले चरण में ये सबसे पहले खुलने चाहिए। लॉकडाउन के दौरान पढ़ाई छोड़ चुके बच्चों की वास्तविक संख्या और महामारी की शुरुआत से ही लाखों बच्चों तक विद्यालयी शिक्षा का पूर्ण अभाव देखते हुए कह सकते हैं कि हम आज 'शैक्षणिक आपातकाल' झेल रहे हैं। इस विषय में लिया गया केंद्रीयकृत निर्णय काम न करेगा। आदर्श स्थिति तो यह है कि राज्य सरकार या शिक्षा मंत्रालय द्वारा निर्धारित मानदंड के आधार पर ग्राम पंचायत को ही यह निर्णय लेना चाहिए।
महामारी की शुरुआत से अब तक हुई अधिगम क्षति को आप कैसे आंकते हैं?
कुछ लोग इसे अधिगम क्षति कहना पसंद नहीं करते क्योंकि इसे अधिगम क्षति न कहने से न सीखने का सारा बोझ बच्चों पर आ जाता है। किंतु मतैक्य यह है कि हम बच्चों को सीखने के अवसर मुहैया कराने में असफल हुए हैं। मैकिन्से रिपोर्ट कई सारे देशों में हुए अध्ययनों का उल्लेख करती है जो सुझाती है कि '2020 की दूसरी तिमाही में विद्यालय बंदी ने बच्चों को अपने साथियों से अकादमिक पथ पर उस मील के पत्थर से छह महीने पीछे ठेल दिया है, जहाँ तक पहुँचना आम तौर पर उनसे अपेक्षित था। यह रिपोर्ट यह भी बताती है कि यह क्षति पठन-पाठन से ज्यादा गणित में हुई है और वंचित आबादी के बच्चों ने सभी विषयों में कहीं ज्यादा गंभीर गिरावट झेली है।' हमारे देश के 44 जिलों और पाँच राज्यों में अजीम प्रेमजी संस्थान की ओर से किए गए एक अध्ययन में भी इसी प्रकार की निष्पत्ति दिखलाई पड़ी है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी के द्वारा भी लगाए गए पूर्वानुमान की तुलना में अधिगम क्षति बहुत बड़ी रही है और सह सतत जारी है। अगर हम इसे अभी संबोधित नहीं करते हैं तो यह तेजी से बढ़ती जाएगी।
पिछले साल से हासिल मुख्य सीखें क्या रही हैं और आगे बढ़ते हुए क्या बदलाव किए जाने जरूरी हैं ?
इस वक्त हमारे आसपास चीजें कुछ भिन्न हैं, कारण कि विभिन्न परिदृश्यों के लिए पहले से योजना बनाने के लिए राज्य सरकारों और शिक्षा विभागों को खूब वक्त मिल गया था किंतु इससे जमीनी धरातल पर बदलाव आएगा या नहीं, इसे देखा जाना है। पिछले साल से हासिल मुख्य सीखें जिनका इस्तेमाल आगे बढ़ते हुए किया जाना चाहिए, वे मेरी दृष्टि में ये हैं: पहली बात तो यह कि पिछले एक साल में बहुत ही कम अर्थपूर्ण और योजनाबद्ध अधिगम हुआ है और बच्चों में सभी स्तरों पर यह अधिगम क्षति बहुत बड़ी है।
दूसरी बात, अधिगम तभी सम्पन्न होता है जब शिक्षक बच्चों के साथ स्वयं उपस्थित रहता है, अत: शिक्षकों और बच्चों को यथासंभव लंबे वक्त के लिए एक साथ लाने हेतु सभी प्रयास किए जाने चाहिए। तीासरी बात, पिछले साल की या दो सालों की मूल संकल्पनाओं को समाविष्ट करने के लिए पाठ्यक्रम को फिर से समायोजित किया जाना चाहिए। पहले से तय एक निश्चित ग्रेड वाले पाठ्यक्रम के साथ शुरुआत करना व्यर्थ होगा। चौथी बात, यह महत्वपूर्ण है कि विभिन्न राज्यों के शिक्षा विभाग आधारभूत साक्षरता और संख्या ज्ञान तथा उच्च कक्षाओं की मूल संकल्पनाओं हेतु शैक्षणिक सामग्री तैयार करने में अपनी निधि का इस्तेमाल करते हैं। इस समुचित शैक्षणिक सामग्री में अध्यापकों और शिक्षा सहायकों के लिए छपी हुई सामग्री के साथ-साथ बच्चों के स्वाध्याय हेतु ढेर सारी सामग्री शामिल होनी चाहिए। अगर विद्यालय बंद हो या बच्चा क्वारंटाइन हो, तब भी इसे हासिल किया जा सकता है। अंत में, सतत और व्यापक मूल्यांकन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। बच्चों ने अभी तक क्या ग्रहण किया है और अंतराल कहाँ है, इसे समझते हुए मूल्यांकन को क्रियान्वित करने में अध्यापकों को छूट दी जानी चाहिए।
क्या मूल्यांकन प्रारूप में कोई सुधार अपेक्षित है?
मूल्यांकन में सुधार समय की जरूरत है। मानकीकृत बोर्ड परीक्षाओं से कोई लक्ष्य पूरा नहीं होता है और ये बच्चों को उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण के साथ नत्थी कर देने के प्रतिगामी विचार पर आधारित रहती हैं। उनके अधिगम में सुधार लाए के लिए मूल्यांकन को प्रतिपुष्टि (फीडबैक) के साथ-साथ रचनात्मक बनाया जाना चाहिए। शिक्षकों के साथ-साथ बच्चों की मदद भी करने वाली एक कहीं ज्यादा उपयोगी कवायद है - 'शिक्षक के नेतृत्व में संचालित कक्षा आधारित' मूल्यांकन। बोर्ड परीक्षाएँ कैसे आयोजित हों, इसका समाधान खोजने की चेष्टा में शिक्षा विभागों का अपनी ऊर्जा व्यय करना दुर्भाग्यपूर्ण है। विद्यालय छोड़ने का प्रमाणपत्र एक बार ली जाने वाली परीक्षा पर आधारित नहीं होना चाहिए क्योंकि परीक्षा विद्यालय से बच्चों को निकालने की कवायद तो होती नहीं है। बिना बोर्ड परीक्षाओं वाले इन दो सिलसिलेवार सालों के साथ अब बहुत ही ज्यादा अपेक्षित बन चुके मूल्यांकन सुधारों की अगुवाई करने की जरूरत है। इससे न सिर्फ बच्चों पर दबाव घटेगा बल्कि यह 'इम्तहान के लिए अध्यापन' वाली प्रणाली से भी शिक्षा तंत्र को दूर ले जाएगा।
(मूल रूप से द हिंदू के लिए तनु कुलकर्णी द्वारा लिये गये इस इंटरव्यू का अनुवाद डॉ. प्रमोद मीणा ने किया है। वे महात्मा गाँधी केंद्रीय विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं।)