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शिक्षा

बिहार में बर्बाद होता सरकारी स्कूलों का निजाम, मगर फिक्र किसको

Janjwar Desk
29 Nov 2020 6:25 AM GMT
बिहार में बर्बाद होता सरकारी स्कूलों का निजाम, मगर फिक्र किसको
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file photo
RTI के आने के बाद छात्र और शिक्षक का अनुपात 1:35 तय किया गया है लेकिन बिहार में ये 1:52 है. इसमें से अगर गैर शैक्षणिक कार्यों में लगे हुए शिक्षकों को भी घटा दिया जाये तो ये और ज़्यादा बढ़ जायेगा...

सलमान अरशद की रिपोर्ट

जनज्वार, पटना। बहुत दिन नहीं हुए जब शिक्षा का अधिकार कानून पारित हुआ था, पूरे देश में बड़े जोर शोर से कहा गया था कि अब शिक्षा हर बच्चे का मौलिक अधिकार हो गया है और किसी भी पार्टी की सत्ता हो, इसे हर बच्चे को देना ही होगा। लेकिन आज सालों बाद भी कहीं कोई सकारात्मक बदलाव दिखाई नहीं देता।

इस कानून के आने के बाद देश भर में एक लाख से ज़्यादा सरकारी स्कूल बंद हो चुके हैं, और मर्जिंग के ज़रिये ये सिलसिला अभी भी जारी है। आज सरकारी स्कूलों में पढाई का ये आलम है कि कोई भी माँ बाप जो किसी भी प्राइवेट स्कूल की फ़ीस भर सकते हैं, अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में नहीं भेजते, वो अध्यापक भी जो सरकारी स्कूलों में पढ़ाते हैं, उनके बच्चे भी सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ते।

वैसे तो पूरे भारत में सरकारी स्कूली तंत्र लगातार ख़राब हो रहा है और शासन-प्रशासन कहीं भी इसके लिए कोई कारगर उपाय करता हुआ नज़र नहीं आता, बिहार की हालत इन सबसे ज्यादा खराब है। यहाँ अभी अभी नयी सरकार का गठन हुआ है । हो सकता है ये रिपोर्ट उन तक भी पहुंचे। बिहार में कुल 72,663 स्कूल हैं, जिनमें- 42,573 प्राइमरी स्कूल हैं. 25,587 अपर प्राइमरी स्कूल, 2286 सेकंड्री स्कूल, और 2217 सीनियर सेकंड्री स्कूल हैं.

शिक्षा विभाग के रिकार्ड्स के मुताबिक बिहार में शिक्षकों की संख्या 4.40 लाख है. प्राइमरी और माध्यमिक विद्यालयों में 3.39 लाख नियोजित शिक्षक और 70 हज़ार नियमित शिक्षक हैं. जबकि उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में 37 हजार नियोजित शिक्षक हैं और 7 हज़ार नियमित शिक्षक हैं. मानक शिक्षक छात्र अनुपात जो कि 1:35 है, के अनुसार बिहार में अभी भी 1.25 लाख शिक्षकों की और ज़रूरत है. नयी सरकार इस पर ध्यान देगी या नहीं ये तो भविष्य ही बताएगा. हालाँकि सरकार जनता को सरकारी नोकरी देगी, ऐसा कोई संकेत उसने दिया नहीं है.

बिहार में 3.56 लाख शिक्षक सामान कार्य के लिए लिए सामान वेतन की मांग को लेकर सड़क से लेकर कोर्ट तक लड़ रहे हैं, ये लड़ाई कब तक चलेगी, इस बारे में अभी कुछ कहा नहीं जा सकता है. इन नियोजित शिक्षकों में से 74 हज़ार शिक्षकों के नियोजन से जुड़े दस्तावेज़ गायब हैं, इन पर कभी कार्यवाही होगी या वोटो के गुणा-गणित में इसे ऐसे चलता रहने दिया जायेगा, ये कोई नहीं जानता. लेकिन जिस तरह इतने बड़े पैमाने पर नियोजन सम्बन्धी दस्तावेज़ गायब हैं, इससे शिक्षकों की भरती सम्बन्धी प्रक्रिया में भारी गड़बड़ी की आशंका को बल मिलता है.

इन सब कारणों से स्कूलों में नामांकन लगातार कम होता जा रहा है, और जो बच्चे नामांकित हो भी जाते हैं, वो स्कूल में लम्बे समय के लिए ठहरते नहीं हैं. लेकिन नीरज जी, जो कि खुद एक शिक्षक हैं, शिक्षकों के प्रशिक्षक हैं और स्कूल से जुड़े प्रशासनिक कामों को भी देखते हैं, कहते हैं कि सरकारी स्कूलों में मिलने वाले कई प्रकार के प्रोत्साहन राशियों की लालच में छात्र एक साथ कई स्कूलों में नामांकन करवा लेते थे, लेकिन 2010 के बाद जब नामांकन को ऑनलाइन किया गया तो ये संभव नहीं रहा और इसके परिणाम स्वरूप एकदम से स्कूल में बच्चों की संख्या कम दिखाई देने लगी.

दरअसल ये नामांकन नहीं बल्कि फेक एडमिशन के कैंसिल होने के कारण छात्रों की संख्या कम दिखाई दी है. नीरज जी के साथ ही डॉ. विद्यार्थी विकास, असिस्टेंट प्रोफेसर, अर्थशास्त्र, ए. एन. सिन्हा इंस्टिट्यूट, पटना, जो कि स्कूल से सम्बंधित कई अध्ययनों का हिस्सा रहे हैं, का भी मानना है कि पिछले कुछ सालों में बिहार के सरकारी स्कूलों में नामांकन बढ़ा है. नीरज जी तो ये भी मानते हैं कि ड्राप-आउट रेट भी कम हुआ है.

इन सबके अतिरिक्त स्कूल में जो नामांकित बच्चे दिखाए जाते हैं, उनमें से के बड़ी संख्या स्कूल में आती ही नहीं. माध्यमिक शिक्षा निदेशालय, बिहार द्वारा माध्यमिक/ उच्च माध्यमिक विद्यालयों का निरीक्षण 16 अगस्त 2018, 27 अगस्त 2018, 01 सितम्बर 2018, 11 सितम्बर 2018, 15 सितम्बर 2018 एवं 27 सितम्बर 2018 को कराया गया.

निरीक्षण के दौरान मालूम हुआ कि राज्य में माध्यमिक/ उच्च माध्यमिक विद्यालयों में छात्र/छात्राओं की औसत उपस्थिति महज़ 28 प्रतिशत है. इस अध्ययन में ये भी पाया गया कि छोटी कक्षाओं में उपस्थिति ज़्यादा है और क्रमशः ऊपरी कक्षाओं में उपस्थिति घटती जाती है. उदाहरण के लिए, प्राइमरी में औसत उपस्थिति 41%, अपर प्राइमरी में 36%, सेकंड्री में 20% और हायर सेकंड्री में 4%. ये अपने आप में बहुत हैरान करने वाली बात है कि कक्षाओं के बढ़ते कर्म में नामांकित बच्चों की संख्या घटती क्यों चली जाती है.

इन आंकड़ो से नीरज जी की सहमति नहीं है, वो उपस्थिति के प्रतिशत को 60 प्रतिशत से अधिक बताते हैं, और कुछ पुराने आंकड़े भी इसकी पुष्टि करते हैं, लेकिन ऊपर जिन आंकड़ो का ज़िक्र किया गया है ये औचक निरीक्षण के दौरान हासिल किये गये हैं और डॉ. विद्यार्थी विकास के अनुसार ये 380 स्कूलों के सैम्पल टेस्ट पर आधारित हैं. उनका ये भी कहना है कि अगर इस तरह का अध्ययन पूरे राज्य में किया जाये तो हो सकता है कि परिणाम कुछ और हो.

डॉ. विद्यार्थी ने अपने अध्ययन में पाया कि जिन स्कूलों में गणित, विज्ञान और अंग्रेजी के शिक्षक नहीं हैं वहां छात्रों की उपस्थिति अपेक्षाकृत कम मिली, लेकिन ये अलग से शोध का विषय है, क्यूंकि ये अध्ययन इस पहलु पर आधारित नहीं था, लेकिन इस पहलु को ध्यान में रखकर भी स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति को समझने की कोशिश की जानी चाहिए. हालाँकि गायत्री जो लम्बे समय से लड़कियों की शिक्षा और महिलाओं के मुद्दों पर काम कर रही हैं, इस तथ्य से सहमत हैं.

नीरज जी का कहना है कि सरकारी स्कूलों की बिगडती हालत के लिए शिक्षा नीतियाँ ही जिम्मेदार हैं. वो कहते हैं 1980 के बाद लगातार शिक्षा निति में जो भी बदलाव किये गये उसके परिणामस्वरूप प्राइवेट स्कूल लगातार बढ़ते चले गये, ये स्कूल खूब फूले-फले, लेकिन इसी क्रम में सरकारी स्कूल गुणवत्ता और संसाधन दोनों में पिछड़ते चले गये.

डॉ. विद्यार्थी ने अपने अध्ययन के दौरान पाया कि 25 प्रतिशत शिक्षक बिना किसी पूर्व सूचना के स्कूल से गायब थे. एक और शिक्षिका कमला (बदला हुआ नाम) कहती हैं कि बड़े पैमाने पर शिक्षक गैर शैक्षणिक कार्यों में लगाये गये हैं, इनकी गिनती तो शिक्षकों में होती है लेकिन ये पढ़ाने का कोई कार्य नहीं करते, कमला ये भी कहती है कि मिड डे मील भले ही बहुत ज़रूरी है लेकिन इसमें भी लगातार एक शिक्षक लगा ही रहता है, इससे कक्षा-कार्य प्रभावित होता है.

इस तरह स्कूल अपने ह्यूमन रिसोर्स का पूरा उपयोग नहीं कर पाते. RTI के आने के बाद छात्र और शिक्षक का अनुपात 1:35 तय किया गया है लेकिन बिहार में ये 1:52 है. इसमें से अगर गैर शैक्षणिक कार्यों में लगे हुए शिक्षकों को भी घटा दिया जाये तो ये और ज़्यादा बढ़ जायेगा. ऐसे में ये अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि स्कूलों में पढ़ाई कैसी होगी.

देश में शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र हो जिसे भ्रष्टाचार ने न जकड रखा हो. कम से कम भारत में भ्रष्टाचार सर्वव्यापी है. स्कूलों में विकास कार्य के लिए भी पैसा आता है. इसका उपयोग शौचालय बनवाने में, पीने के पानी की व्यवस्था आदि करने में किया जाता है. लेकिन ज़्यादातर स्कूलों में इनकी व्यवस्था नहीं है.

कमला जी कहती हैं कि ये पैसा प्रधानाचार्य और अधिकारी मिलकर खा जाते हैं. दिखाने के लिए कुछ काम होता है लेकिन उसका कोई उपयोग नहीं होता. वो समझाती हैं कि स्कूलों में अगर शौचालय मिल भी जायेगा तो वो उपयोग के लायक नहीं होगा. कई जगहों पर तो शौचायलय बना हुआ है लेकिन उसके लिए सेफ्टी टैंक बना ही नहीं है. इस तरह के भरष्टाचार की शिकायते दूसरे वार्ताकारों ने भी अलग अलग तरीके और सन्दर्भ से दिए हैं. सभी वार्ताकारों की ये राय है कि सरकार की ओर से नियमित औचक निरिक्षण की व्यवस्था हो तो ऐसी कमियों को ठीक किया जा सकता है.

बिहार में आज भी ऐसे स्कूल हैं जो बिना भवन के हैं तो ऐसे भी हैं जिनका भवन जर्जर अवस्था में है. लेकिन डॉ. विद्यार्थी विकास कहते हैं अगर सरकारी स्कूलों को अच्छे, प्रशिक्षित शिक्षक दे दिए जाएँ तो इतने भर से स्कूलों में बहुत बदलाव आ जायेगा. हम सभी जानते हैं कि सरकारी स्कूलों में गरीब बच्चों के आकर्षण एक कारण एक बार मिलने वाला भोजन भी है. गायत्री उन बच्चों का ज़िक्र करते हुए भावुक हो जाती हैं जो उनसे इस आजकल बंद स्कूलों के खुलने के बाबत पूछते रहते हैं, ताकि उन्हें एक समय कम से कम भर पेट भोजन मिल सके.

एक और दिलचस्प पहलू दलित, आदिवासी और पिछड़ा वर्ग को मिलने वाले आरक्षण को लेकर पूरे देश में बहस चलती ही रहती है, ये बहस कभी ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती. हलांकि ये बात बार बार कही जाती है कि आरक्षण प्रतिनिधुत्व का मामला है इसका आर्थिक स्थिति से कोई सरोकार नहीं है. लेकिन जब हम सरकारी स्कूलों में नामांकन को जाति और धर्म के नज़रिए से देखते हैं तो एक अलग तस्वीर नज़र आती है।

वैसे तो ये आंकड़ा बिहार का है लेकिन उत्तर प्रदेश और राजास्थान जैसे राज्यों की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है. 2017-18 में माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक स्कूलों में जिन बच्चों ने नामांकन करवाया उनमें पछडे वर्ग से 67%, SC एवं ST वर्ग से 24%, सामान्य वर्ग से केवल 9% बच्चे शामिल थे. (ये आकडे पिछले साल 380 स्कूलों में किये गये अध्ययन पर आधारित हैं.)

हम सभी देख रहे हैं कि सरकारी स्कूलों में वे माता-पिता अपने बच्चों को नहीं भेज रहे हैं, जिनकी औकात प्राइवेट स्कूलों की फीस भरने की है, और उपरोक्त आंकड़ा कहता है कि सामान्य वर्ग, या सवर्ण वर्ग के बच्चों का नामांकन सबसे कम हैं इन स्कूलों में. क्या ये आंकड़ा समाज में जातीय स्थिति के आर्थिक पहलु पर भी रौशनी नहीं डालता? सोचियेगा !

बिहार सरकार ने राज्य के नागरिकों में शिक्षा के प्रति लगाव बढाने और बच्चों को स्कूलों में नामांकित करने को प्रोत्साहित करने के लिए कई योजनाओं की शुरुआत की. इनमें साईकिल, पोषाहार, पोशाक, नेपकिन, एवं छात्रवृत्ति योजना आदि हैं. लेकिन धरातल पर इनका भी पूरा लाभ इन योजनाओं के असली लाभार्थियों तक नहीं पहुंचा.

बहुत से बच्चों को इन योजनाओं का लाभ सिर्फ़ इसलिए नहीं मिल पाया कि बैंक में उनका खाता नहीं है. इसकी भी अपनी अलग कहानी है, ये जीरों बैलंस के खाते होते हैं, बैंक कर्मी ऐसे खाते खोलने में रुचि नहीं दिखाते, शिक्षक और प्रधानाचार्य इसके लिए यथोचित प्रयास नहीं करते और माता पिता के पास समय नहीं है और समय है तो उनकी सुनने वाला कोई नहीं है. गायत्री कहती हैं कि अभिभावकों के पास जो कागजात होते हैं उनमे अक्सर नाम और पते की गलतियाँ होती हैं, इसके अलावा आधार में तो कोई और नाम होता है और स्कूल में अभिभावक कुछ और नाम लिखवा देते हैं.

वो निराश होकर कहती हैं कि ये समस्या तो सरकार के विशेष प्रयास या फिर समय के साथ ही ठीक होगा. डॉ. विद्यार्थी विकास कहते हैं सभी छात्रों के खाते खोलने और उनके खतों में एक साथ पैसे ट्रांसफर करने के डिजिटल उपाय खोजे जा सकते हैं. वो एक नितांत व्यावहारिक बात कहते हैं, वो कहते हैं कि जीरो बैलेंस के खाते खोलने में वो भी एक बड़ी संख्या में बैंक कर्मियों को व्यावहारिक दिक्कतें आती हैं, अगर इनके लिए कोई डिजिटल उपाय किया जाये तो इस समस्या का समाधान हो सकता है.

गायत्री PNB कर कर्मियों के सहयोग से लगाये गये एक शिविर का उल्लेख करती हैं और कहती हैं जब बैंक कर्मी, सकूल स्टाफ और अभिभावक मिलकर प्रयास करते हैं तो आसानी से और कम समय में बच्चों का खाता खुल जाता है. इस शिविर में एक टीम ऐसी भी थी जो वहीँ के वहीँ आधार बना रही थी या आधार में आ रही दिक्कतों को ठीक कर रही थी.

शिक्षा का अधिकार कानून के तहत ये नियम बनाया गया कि प्राइवेट स्कूल प्रथम कक्षा में 25% गरीब बच्चों का एडमिशन लेंगे. इसके पीछे शायद ये अपेक्षा थी कि गरीब परिवारों के बच्चों को भी साधन संपन्न स्कूलों में पढ़कर अपना भविष्य सवांरने का मौका मिलेगा. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. प्राइवेट स्कूलों ने गरीब तबके के बच्चों को लेने में कभी भी रुचि नहीं दिखाई, खासतौर पर उन स्कूलों ने जो शहर के रईस तबके के बच्चों को पढ़ाने के लिए खासतौर पर जाने पहचाने जाते हैं.

सरकार के दबाव और मीडिया में गाहे बगाहे हो रही रिपोर्टिंग के कारण कुछ स्कूलों ने ऐसे बच्चों का नामांकन किया है. यहाँ दो बातों की ओर सरकार का ध्यान जाना चाहिए. सबसे पहले तो इस बात की जाँच होनी चाहिए कि कितने स्कूलों ने ऐसे बच्चों को प्रवेश दिया है, और जिन स्कूलों ने नहीं दिया है, उन पर कार्यवाही हो. इसके बाद ये भी देखना ज़रूरी है कि जिन बच्चों का नामांकन दिखाया जा रहा है क्या वे जेनुविन हैं या बस खानापूर्ति के लिए किसी का भी एडमिशन ले लिया गया है.

एक सरकारी कर्मचारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि गरीब कोटे के बच्चों में अधिकारी लोग अपने घरेलू नौकरों के बच्चों का एडमिशन करवाते हैं और बदले में उन्हें तनख्वाह कम देते हैं, अहसान ऊपर से जताते हैं. ये तथ्य कितना सही या ग़लत है, ये तो जाँच का विषय है, लेकिन मालिकों के नौकरों के बच्चों को भी अगर अच्छी शिक्षा मिल जाये तो इसमें कोई बुराई नहीं है. लेकिन ऐसा नहीं है, स्कूल अभी बंद हैं इसलिए जनज्वार टीम को वस्तुस्थिति को देखने का अवसर तो नहीं मिला, लेकिन बच्चों और अभिभावकों की बातचीत से जो मालूम हुआ, उसके अनुसार, प्राइवेट स्कूल गरीब बच्चों का नामांकन तो कर लेते हैं, लेकिन उन्हें आम बच्चों के साथ न तो बैठने की सुविधा मिलती है न ही उन्हें वो शिक्षक पढ़ाते हैं जो अमीर बच्चों को पढ़ाते हैं. गरीब बच्चों के लिए अलग बैठने और उन्हें अलग पढ़ाने की व्यवस्था की जाती है.

इस तथ्य पर सभी को ठहर कर सोचना चाहिए कि प्राइवेट सकूल इन गरीब बच्चों के अन्दर जो हीनताबोध पैदा कर रहे हैं उससे देश, समाज और खुद इन बच्चों का कितना अहित हो रहा है. इन बच्चों का कुसूर सिर्फ़ इतना है कि इनका जन्म ऐसे परिवार में हुआ है जिनके पास पैसा नहीं है और इसकी सजा ये समाज, ये सिस्टम इन्हें कैसे दे रहा है, ये उसका एक नमूना है. इससे तो बेहतर होता कि ये बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते या पढ़ते ही न.

इस सम्बन्ध में नीरज जी कहते हैं कि प्राइवेट और सरकारी स्कूल केवल दो तरह के संस्थान ही नहीं हैं बल्कि समाज के दो तरह के माहौल में पले बच्चों को शिक्षित करते हैं. सरकारी स्कूल के बच्चे जिस सामाजिक आर्थिक माहौल से आते हैं, प्राइवेट सकूल के बच्चों उसे जानते तक नहीं. ऐसे में जब उन्हें एक साथ किया जाता है तो कई तरह की दिक्कते पेश आती हैं.

इसके अलावा वो कहते हैं कि बिहार में एक बच्चे के लिए सरकार प्राइवेट स्कूलों को सिर्फ़ 6500 रुपये देती है, ऐसे में छोटे स्तर के प्राइवेट स्कूलों के लिए ये राशि जरूर अच्छी है लेकिन बड़े स्कूलों के लिए ये फीस बहुत मामूली है. ऐसे में बड़े स्कूल अगर दबाव में गरीब बच्चों का एडमिशन ले भी लें तो वो कभी भी दूसरे बच्चों के जैसी ही सुविधाएँ इन्हें नहीं देंगे. गायत्री जी भी कहती हैं कि प्राइवेट स्कूल गरीब बच्चों के एडमिशन में बिलकुल भी रुचि नहीं लेते.

मर्ज़ बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दवा की, सरकारी स्कूली तंत्र का यही हाल है, सरकारें जितना दावा करती हैं कि वो सरकारी शिक्षण तंत्र को ठीक कर रही हैं, उतना ही ये तंत्र बिगड़ता जाता है, जितना दावा किया जाता है कि शिक्षा को सर्वसुलभ बनाया जा रहा है, उतना ही शिक्षा आम आदमी की पहुंच से दूर होता जाता है. सिर्फ़ शिक्षा ही नहीं स्वास्थ्य हो या रोज़गार सभी मामलों में हमारी सरकारों का यही हाल है. ऐसे में शिक्षा या ओवरआल देश का भविष्य क्या होगा, ये इस देश की जनता को तय करना है.

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